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अब तक, तुमने कहा और मैंने माना, पर तुमने, हमेशा मुझे ही दोषी ठहराया। पर अब, तुम्हारी एक तरफा परिभाषा की, मैं, कोई पाबन्द नहीं!
तुम कहते हो-
मैं लिबास बदल डालूं,
मेरे झांकते बदन से
उठती है कोई चिंगारी,
जो तुम्हें अँधा कर देती है
मैं उस चिंगारी को,
इन कपड़ों की परतों में-
बुझा दूँ।
लो, मान लिया!
पर, क्या तुम वादा कर पाओगे-
कि इन सन्नाटों में,
ऑफिसों में,
और इन मोटरगाड़ियों में,
तुम्हारी निगाहें
खंजर बन,
इन परतों को चीर-चीर कर
मेरे उजले बदन को मैला ना कर देंगी?
२.
तुम कहते हो,
मैं ये चारदीवारी ना लांघूँ
घर पर दुल्हन सी सजी,
घूंघट को मुँह में भीचें
छन-छन करती और बलखाती,
बस तुम्हारे इर्द-गिर्द फिरती रहूं
तुम्हें, बस तुम्हें रिझाती रहूं।
पर, क्या तुम ये यकीन दिलाओगे-
कि कोई इंद्र तुम्हारे भेष में,
भीतर ना आ पायेगा
और फिर इस जुर्म का दोषी,
अहिल्या को ना ठहराया जायेगा?
३.
मेरी मुस्कराहट तुम्हें बहकाती है
भरे बाजार में खिलखिला उठूं तो,
तुम्हें कुछ पैगाम भेजती है
और तुम्हारे भीतर जो मर्द है,
उसे लुभाती है उकसाती है।
अपनी इस मुस्कराहट को
अलमारी की सबसे गहरी तह के नीचे,
तुम्हारे बदबूदार रुमाल से पोंछ कर
लो मै दफ़न कर देती हूँ।
पर क्या तुम मुझे बताओगे-
ये जो किलकारती मारती नन्ही कलियाँ हैं,
जो अभी खिली भी नहीं
पर इन मासूम मुस्कराहटों से लबालब हैं,
उन तक तुम्हारा ये पैगाम
कैसे पहुचाऊं?
उनके झाकतें बदनों को
उनके बेपरवाह लुपा-छिपी के खेलों को,
कैसे संदूक में
कसोड-मसोड़ कर ठूंस दूँ?
४.
अब-
अब बहुत हुआ!
अब तुम्हारी हर बात को
अपनी चार इंच के नोक के तले,
मसल कर-
मैं सड़कों पर बेपरवाह घूमती हूँ,
लो बिठा लो खूब संसदें
या ये दबंग खप-पंचायतें,
हाँ! हाँ, हूँ मैं कुलक्षण
हूँ मैं बागी,
पर अब-
पर अब,
तुम्हारी एक तरफा परिभाषा की,
मैं कोई पाबन्द नहीं।
इस short-skirt में
इन रंग-बिरंगी फ्रॉक में,
खिलखिलाती और झूमती
दफ्तर की कुर्सी पर,
गोल-गोल झूलती
अब तुम्हारी ही ‘टेरिटरी’ में-
अब तुम्हारी ही ‘टेरिटरी’ में,
मैं तुम्हें मात देती हूँ-
मैं, मात देती हूँ!
मूल चित्र: Unsplash
Vartika Sharma Lekhak is a published author based in India who enjoys writing on social issues, travel tales and short stories. She is an alumnus of JNU and currently studying law at Symbiosis Law School, read more...
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