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"अग्नि रूपी चमक जितनी कंगन और श्रृंगार में है, उतना ही ज़ोर आज इनके आत्मविश्वास की धार में है" - सिमित दायरों में बंधी नारी की आशाओं और आत्मविश्वास का एक परिचय।
“अग्नि रूपी चमक जितनी कंगन और श्रृंगार में है, उतना ही ज़ोर आज इनके आत्मविश्वास की धार में है” – सिमित दायरों में बंधी नारी की आशाओं और आत्मविश्वास का एक परिचय।
अग्नि सा पावन माना तो अग्नि में अर्पित हो जाती थी, ऐसा था ये जौहर जो इक राजपूतनी उससे भी लड़ जाती थी। माथे पर तेज़ और मुख पर नूर अपार, मन में ख़ुशी की आई मैं दुर्ग के काम। गर हिम्मत दे हाथ में तलवार पकड़ाई होती, देखो फिर कैसे वो रणभूमि में जौहर करवाती।
आज भी परम्पराएँ अंजाने में कुछ ऐसी सी उलझी हैं, मंदिर में पूजी जाने वाली स्वरूप कई हाथों में रूलती हैं। तब हँसी ख़ुशी मिल जाती थी उन लपटो में, आज चिंगारियों से उभर कर उठना चाहती हैं। अपना सक्षम सार्थक करने हेतु समाज के विपरीत नहीं, धारणाओं से परे चमकना चाहती हैं।
तुम कठिन कर दो चाहे मार्ग कितना ये बाज़ुओं के बल को उतना बढ़ा लेती हैं, ये मंदिर की शोभा ही नहीं घर की पालनहार भी हैं, ये खड़ी तेरे संग जगाने इस समाज के विचार भी हैं। अग्नि रूपी चमक जितनी कंगन और श्रृंगार में है, उतना ही ज़ोर आज इनके आत्मविश्वास की धार में है।
मूल चित्र: Pixabay
A Creative Writer by choice and an IT person by profession, Shruti likes to make use of her writings to reach more and more people & help make a difference to the way society has been read more...
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