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उन तमाम हँसते चेहरों को समर्पित - "जिनके दिल के, किसी बियाबान कोने में, रोज़ - एक हूक सी उठती है, जीने के लिए, अपनी मर्ज़ी का एक दिन।"
उन तमाम हँसते चेहरों को समर्पित – “जिनके दिल के, किसी बियाबान कोने में, रोज़ – एक हूक सी उठती है, जीने के लिए, अपनी मर्ज़ी का एक दिन।”
मैंने देखा है- उन हँसते चेहरों को, जिनके दिल के, किसी बियाबान कोने में, रोज़, एक हूक सी उठती है, जीने के लिए, अपनी मर्ज़ी का एक दिन।
मैनें देखा है- ढलती शाम के अंधेरे, निगल लेते हैं, सपनों की तपिश, इसलिए, वो उफनती हूक, थोड़ा, छटपटाने के बाद, दम तोड़ देती है, और, रोज़ की तरह, विलीन हो जाती है, बेबसी के ब्लैकहोल में।
फिर- रोज़ की ही तरह, मास्क ओढ़े, वो चेहरे ढूँढ लेते हैं- अपने हिस्से का सुकून, अपने-अपने पिंजरों में।
मूल चित्र:
I writer by 'will' , 'destiny' , 'genes', & 'profession' love to write as it is the perfect food for my soul's hunger pangs'. Writing since the age of seven, beginning with poetry, freelancing, scripting and read more...
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