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कहती है बेटी, तेरा ही अंग हूँ

ये कविता एक माँ और एक बेटी के पावन रिश्ते को समर्पित है। इस बेटी की अपनी माँ से बस इतनी दुआ है- "जो रिश्ता तुम्हारे अंदर शुरू हुआ था, उस पर विश्वास बनाए रखो तो मैं हार कहाँ मानूँ।"

ये कविता एक माँ और एक बेटी के पावन रिश्ते को समर्पित है। इस बेटी की अपनी माँ से बस इतनी दुआ है- “जो रिश्ता तुम्हारे अंदर शुरू हुआ था, उस पर विश्वास बनाए रखो तो मैं हार कहाँ मानूँ।”

प्यार तो सब समझ लेते हैं, मेरा ग़ुस्सा समझ पाओ तो मानूँ ,
कड़वे शब्दों के पीछे जो जज़्बात हैं उनको सुन पाओ तो जानूँ।
इतने क़ाबिल बना कर इस मुक़ाम पर जो पहुँचाया है,
अब आगे मेरी दृष्टि को भी सराहो तो मानूँ।

तुम्हारी ही देह से बनी हूँ, तुम्हारी ही परवरिश में पली हूँ,
दुनिया की रीत से अपनी परछायी को दूर जो कर दिया है,
अब ज़िंदगी के उलझते पहलुओं को सुलझाने में धैर्य दे सको तो मानूँ।
परिंदे छोड़ देते हैं आशियाँ, उनके लिए तो बस है आसमान,
मुझे कुछ दूर ही, पंख पसारने का होंसला बंधा पाओ तो जानूँ।

तुम्हारी सीख सदा साथ चलती है,
याद रखना हर साँस में मेरे माँ रहती है,
तुम्हारी फ़िक्र की मुझे भी कद्र है,
क्यूँकि जानती हूँ मुझमें मेरी माँ की जान बस्ती है।
बस मन व्याकुल हो जाता है कभी कुछ लफ़्ज़ों से,
तुम भी कुछ वाक्यों को भुला आगे बढ़ पाओ तो मानूँ।

कुछ लोग अल्फ़ाज़ों का सहारा लेते हैं तो कुछ भावों का,
जब मैं आँखों से बयाँ करूँ, उसे महसूस कर पाओ तो जानूँ।
ना जाना बदलते स्वभाव पर, वह तो समय की मार है,
तुम इस दिल की असली धड़कन गिन पाओ तो मानूँ।

घूम लूँ चाहे जग सारा,
बन जाए चाहे कोई कितना भी प्यारा,
जो रिश्ता तुम्हारे अंदर शुरू हुआ था,
उस पर विश्वास बनाए रखो तो मैं हार कहाँ मानूँ।

About the Author

Shruti (Mehendiratta) Choudhary

A Creative Writer by choice and an IT person by profession, Shruti likes to make use of her writings to reach more and more people & help make a difference to the way society has been read more...

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