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#MeToo के साथ अब अपनी आवाज़ मुखर करने का वक़्त आ गया है

जो आरोप अब निकले हैं #MeToo की वजह से, उनकी जाँच तो होनी हीं चाहिए ताकि हर उस इंसान का वह चेहरा सामने आए, जो उसने अपने प्रत्यक्ष चेहरे के पीछे छुपाकर रखा है|

जो आरोप अब निकले हैं #MeToo की वजह से, उनकी जाँच तो होनी हीं चाहिए ताकि हर उस इंसान का वह चेहरा सामने आए, जो उसने अपने प्रत्यक्ष चेहरे के पीछे छुपाकर रखा है|

#MeToo की शुरुआत का श्रेय अमेरिका की तराना बुर्के को जाता है| उन्होंने साल 2006 में यह अभियान शुरू किया था| अपनी गैर-लाभकारी संस्था ‘जस्ट बी इंक’ में काम करते हुए अफ्रीकी-अमेरिकन सिविल राइट्स एक्टिविस्ट तराना बुर्के एक लड़की से बात कर रही थी| ‘जस्ट बी इंक’ अश्वेत महिलओं के लिए काम करता है| उसने हीं यह बताया कि उसकी माँ का दोस्त उसका शोषण कर रहा है| उसके बाद कई महिलाओं ने कहा, ‘यह मेरे साथ भी’ (MeToo) हुआ है|

उसके बाद ही यह फ्रेज चर्चित होता गया| फिर, 5 अक्टूबर 2017 को न्यूयॉर्क टाइम्स ने हॉलीवुड प्रोडूसर हार्वे विंस्टीन पर लगे आरोपों को एक स्टोरी के रूप में प्रकाशित किया था| हार्वे पर आरोप एक्ट्रेस ऐश्ले जुड ने लगाए थे|

पर देखा जाए तो, #MeToo की शुरुआत तब हुई जब हर महिला ने अपने साथ हुए अत्याचार और दुर्व्यवहार के खिलाफ बोलना शुरू किया| अपने अंदर की हिचकिचाहट, शंका और डर को किनारे रखकर बोलना शुरू किया| जिससे आज कई लोगों की बोलती बंद हो गई है|

#MeToo इन्टरनेट पर आया एक तूफ़ान है, जो अपने साथ ऐसे कई लोगों को बहाकर ले जाना जनता है| वह भी एक ऐसे किनारे पर जहां उन्हें अपनी करनी का पछतावा हो|

तनुश्री दत्ता के बाद, कई अभिनेत्रियों और महिला पत्रकारों ने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को इन्टरनेट के जरिए साझा किया है|(पर अभी भी कई ऐसे इलाके होंगे, जहाँ महिलाएं इन्टरनेट तक नहीं पहुँच सकती और उनके साथ दुर्व्यवहार होते होंगे|पर उन्हें अपनी बात कहने के लिए कोई माध्यम नहीं मिलता होगा|) कई नामी-गिरामी हस्तियों पर यौन-हिंसा के आरोप लगे हैं| यह जरुरी नहीं की महिलाओं के साथ जबरदस्ती करना हीं यौन-हिंसा हो| वह सभी बातें जो एक महिला को मानसिक रूप से कमज़ोर करतीं हैं| जैसे – अमर्यादित बातें, बेतुके सवाल, अंतरंग बातें यह सब भी एक प्रकार की हिंसा हीं है, जिससे महिलाएं मानसिक रूप से प्रताड़ित होतीं हैं|

महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए सेक्सुअल हरास्स्मेंट ऑफ़ वीमेन एट वर्कप्लेस प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रेड्रेस्सल एक्ट, 2013 (Sexual Harassment of Women at Workplace Prevention, Prohibition and Redressal Act,2013) का गठन भी किया गया है| लेकिन इसको लेकर जागरूकता की कमी है|

अब यह बात भी उठ रही है कि इन महिलाओं ने तब क्यों नहीं आवाज़ उठाई, जब इनके साथ यौन शोषण हुआ और उन्हें प्रताड़ित किया गया| मैं एक बात पूछना चाहतीं हूँ कि क्या वक़्त के साथ सच बदल जाता है? खुद सोचिए| अगर इन महिलाओं ने उस वक़्त अपनी आवाज़ मुखर नहीं की तो हो सकता है, उनपर किसी तरह का दबाव रहा होगा| काम से निकाल देने या काम नहीं देने की धमकी मिली होगी| जितना ऊँचा ओहदा रहा होगा, धमकी भी उतनी बडी ही मिली होगी| कई कयास लगाए जा सकते हैं| और इसी चुप्पी का फ़ायदा उठाया गया| पर जब आरोप ला रहे हैं, तब आरोपों की तह तक पहुंचना ही चाहिए| जाँच तो होनी हीं चाहिए ताकि हर उस इंसान का वह चेहरा सामने आए, जो उसने अपने प्रत्यक्ष चेहरे के पीछे छुपाकर रखा है|

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