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"औरत हूँ, तुम जैसे ही खून हाड़-मांस हूँ। क्यों मेरी पवित्रता का दायित्व, तुम्हारी छोटी सोच पर निर्भर है? अरे हो कौन तुम जिसका जीवन मेरी ही देन है?"
“औरत हूँ, तुम जैसे ही खून हाड़-मांस हूँ। क्यों मेरी पवित्रता का दायित्व, तुम्हारी छोटी सोच पर निर्भर है? अरे हो कौन तुम जिसका जीवन मेरी ही देन है?”
कौन बोलो देता है तुम्हें ये अधिकार, कि मेरे अस्तित्व को दो तुम हर बार धिक्कार; न मैं तुम्हारी जायदाद और न मैं हूँ तुम्हारी जीत, मैं एक औरत हूँ, जननी हूँ, बोलो कब मिलेगा मुझे बराबर का सम्मान।
क्यों मुझे है पड़ रहा चीखना, बनाना रोष को अपना हथियार; जब ह्रदय में मेरे बहती, सिर्फ निर्मल ममता की धार।
क्यों देवी को भी ना छोड़ रहे तुम? क्यों उसके आँगन को जीण-क्षीण कर रहे तुम? क्यों आता है मज़ा मुझे झुठलाने में, दबाने में, हर क्षण चीर के खाने में?
चाहे रावण को हो तुमने हार गिराया, फिर भी अपनी सोच पे काबू पाया। क्यों मेरी पवित्रता का दायित्व, तुम्हारी छोटी सोच पर निर्भर है? अरे हो कौन तुम जिसका जीवन मेरी ही देन है?
मैं नहीं कोई चौसर का खेल, ना मैं किसी देवी का रूप; औरत हूँ, इंसान हूँ, तुम जैसे ही खून हाड़-मांस हूँ।
समय का चक्र अब फिर रहा है, उपहास का पात्र अब बदल रहा है, आक्रोश आज रग-रग मे उबल रहा है।
“हाँ, मैं भी” नहीं किसी प्रतिकार की ललकार, “हाँ, मैं भी” नहीं किसी लाचार की हुंकार, “हाँ, मैं भी” नहीं किसी इन्साफ की गुहार।
“हाँ, मैं भी” है हर उसकी दहाड़, जिन्होंने इंकलाब को चख लिया है, धधकती लौ को छाती मे जला लिया है।
समझो इसे चेतावनी, या समझो, अंतरिक्ष में हो रहा हा-हा कार।
रुक जाओ, थम जाओ, कि नहीं ज़रुरत “हमें”, अब किसी भी कृष्ण की, जब नारी बन रही हर नारी की ढाल।
मूल चित्र: Pexels
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