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सबरीमला-सिर्फ लड़ाई या वजूद की लड़ाई?

एक मंदिर में प्रवेश पाने के लिए औरतों को अपने अस्तित्व को ही सिद्ध करना पड़े तो न्यायसंगत होगा कि औरतों को हर मंदिर में जाना बंद कर देना चाहिए। 

एक मंदिर में प्रवेश पाने के लिए औरतों को अपने अस्तित्व को ही सिद्ध करना पड़े तो न्यायसंगत होगा कि औरतों को हर मंदिर में जाना बंद कर देना चाहिए। 

धर्म हमेशा से ही भारत में एक मुद्दा रहा है, चाहे वो औरतों का शनि शिंगणापुर में प्रवेश हो या हाजी अली, या अब सबरीमला। बिंदु और कनकदुर्गा वो पहली महिलाएँ बनी जिन्होंने साबरी माला में अपने पूरे वजूद के साथ प्रवेश किया, पर उसके बाद क्या हुआ?

तिरुवनंतपुरम में आंदोलनकारी चोटिल हुए, एक आंदोलनकारी मारा गया, घर, कार्यालय, स्टेट बसों को नुक़सान पहुंचाया गया। स्कूल कॉलेजों को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया। केरला स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन ने 1.4 करोड़ की क्षति का अनुमान लगाया है। क्या यह खुशी, शांति पाने के लिए सबरीमला जाना जरूरी है? भगवान ने खुद धरती पर अवतरित होकर ये शायद कभी नहीं कहा होगा कि ‘औरतों का प्रवेश निषेध’। और, ईश्वर तो हमारे मन में होता है, उसके लिए मंदिर, दरगाह गुरुद्वारा जाना क्या इतना महत्वपूर्ण है?

एक मंदिर में प्रवेश पाने के लिए अगर औरतों को अपने अस्तित्व को ही सिद्ध करना पड़े तो न्यायसंगत होगा कि ना केवल सबरीमला बल्कि औरतों को हर मंदिर में जाना बंद कर देना चाहिए। धार्मिक कट्टरता या धार्मिक विश्वास पर मेरा कटाक्ष नहीं है, बल्कि यह प्रश्न है कि जो आस्था महिला के वजूद को ही स्वीकार नहीं करती तो उसको मानने और मनाने में, महिलाएँ क्यों जूझ रही हैं?

महिलाओं की स्थिति भारतीय समाज में ऐसी नहीं है कि वे सिर्फ मंदिर में जाकर घंटियाँ बजाएँ या मस्जिद में जाकर आयतें पढ़ें, उन्हें लिंग-भेद, रेप, दहेज उत्पीड़न, शोषण और भी जाने कितनी जीवंत समस्याओं से जूझना पड़ता है। और, इन समस्याओं से हमें बचाने के लिए ब्रह्मा अवतरित नहीं होते, हमें खुद से कहना होगा “अहम् ब्रह्मास्मि”।

“मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारा, ना भी जा पाऊं, तो कोई बात नहीं,

जीयूं इस तरह खुद को खड़ा करके कि कोई कह ना पाए –

“औरत तेरी कोई बिसात नहीं।”

 

 

 

 

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