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मैं चुप थी तब, मैं चुप हूँ आज-काश न होती, और बोल पड़ती, मेरे हक़ की बात-"लड़की हूँ, बोझ नहीं, इंसान हूँ, कठपुतली नहीं।"
मैं चुप थी तब, मैं चुप हूँ आज-काश न होती, और बोल पड़ती, मेरे हक़ की बात-“लड़की हूँ, बोझ नहीं, इंसान हूँ, कठपुतली नहीं।”
मैं चुप थी, जब मेरे दुनिया में आने से लोग नाराज़ हुए; मैं चुप थी, जब मेरे पढ़ने पर सवाल उठे। मैं चुप थी, जब मेरे कपड़ों से मेरे किरदार पे उंगली उठाई; मैं चुप थी, जब मेरे सपनों पर ताले लगे। मैं चुप थी, जब मेरे हँसने पे रोक लगाई। मैं चुप थी, जब बोलने पर मैं बदतमीज़ कहलाई।
मैं चुप थी, जब मेरे अरमानों का गाला घोंट दिया। मैं चुप थी, जब मेरे रंग को मुद्दा कहा गया। मैं चुप थी, जब मेरी उम्र निकल जाने के बहाने से किसी पराये को सौंप दिया; मैं चुप थी, जब उसने पहली बार हाथ उठाया; मैं चुप थी, जब मेरे ही घरवालों ने सह लेने को कहा; मैं चुप थी, जब मुझे लोगों ने ठुकराया; मैं चुप थी, जब मुझे ‘डिवोर्सी’ होने पर बदचलन बुलाया।
मैं चुप थी तब, मैं चुप हूँ आज लेकिन, काश न होती, और बोल पड़ती, मेरे हक़ की बात- कि लड़की हूँ, बोझ नहीं, इंसान हूँ, कठपुतली नहीं। मेरी ज़िन्दगी, मेरी अमानत, सबकी नहीं; हर बार गलती सिर्फ लड़की की नहीं, लड़की हूँ बोझ नहीं।
मूलचित्र : Pixabay
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