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शास्त्रों में भी कहा गया है कि इंसान किसी भी ऋण को चुका सकता है पर मातृ-पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता। फिर ऐसे रिवाज कैसे बने?
शास्त्रों में भी कहा गया है कि इंसान किसी भी ऋण को चुका सकता है पर मातृ-पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता। फिर ऐसे रिवाज कैसे बने? कनकांजलि का अर्थ है, मुट्ठी भर चावल। शादी में ‘कनकांजलि’ की भी एक रीति होती है, जिसमें विदाई के समय, वधु अपने हाथों में मुट्ठी भर चावल लिए पीछे खड़ी अपनी माँ के आंचल में डालते हुए कहती हैं, “मैंने आपका ऋण उतार दिया।” यानि कि, “आपने आज तक मेरे लिए जो कुछ किया, वो सब मैंने आपको इन मुट्ठी भर चावलों में वापस किया।” क्या ये संभव है? शास्त्रों में भी कहा गया है कि इंसान किसी भी ऋण को चुका सकता है पर मातृ-पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता। फिर ऐसे रिवाज कैसे बने? दरअसल, इस रिवाज का असल रूप है कि बेटियों को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। इसलिए विदाई के समय एक अंजलि कनक(चावल) बेटियाँ माँ के आंचल में छोड़ कर कहती हैं, इस घर की लक्ष्मी (सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य) मैं यहां छोड़ जाती हूँ। पर समय के साथ एक सुंदर रिवाज को अपभ्रंश कर दिया गया। मेरी माँ ने अपनी शादी (चालीस साल पहले) में भी इसका विरोध किया था, पर उनकी नानी, मासी, दादी, बुआ, आदि घर की औरतों ने उनको ये शब्द कहने के लिए मजबूर किया। मेरी माँ को विदाई से ज़्यादा इस बात का दुःख था कि ऐसा उन्हें कहना पड़ा। मेरी शादी (अट्ठारह साल पहले) में मैंने इसका विरोध किया और माँ का पूरा समर्थन मुझे मिला। फिर हमारे घर की बड़ी बूढ़ी औरतों ने बार-बार मुझ पर दबाव डाला कि मैं भी बोलूं, पर मैंने नहीं कहा। एक विडियो देखकर मुझे ये बातें याद आ गईं। इस विडियो को बहुत पसंद किया जा रहा है, जहां विदाई के समय दुल्हन सीधे शब्दों में मना करती है कि मैं नहीं कहूंगी कि मैंने अपने माता-पिता का ऋण वापस कर दिया। माता-पिता का कर्ज कोई नहीं चुका सकता। इस विडियो को देखकर बहुत खुशी हुई कि समाज बदल रहा है। हमारी सोच बदल रही है। सही मायने में ये छोटे-छोटे बदलाव लड़के और लड़कियों में समानता की ओर एक कदम है।
कनकांजलि का अर्थ है, मुट्ठी भर चावल।
शादी में ‘कनकांजलि’ की भी एक रीति होती है, जिसमें विदाई के समय, वधु अपने हाथों में मुट्ठी भर चावल लिए पीछे खड़ी अपनी माँ के आंचल में डालते हुए कहती हैं, “मैंने आपका ऋण उतार दिया।” यानि कि, “आपने आज तक मेरे लिए जो कुछ किया, वो सब मैंने आपको इन मुट्ठी भर चावलों में वापस किया।”
क्या ये संभव है? शास्त्रों में भी कहा गया है कि इंसान किसी भी ऋण को चुका सकता है पर मातृ-पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता। फिर ऐसे रिवाज कैसे बने?
दरअसल, इस रिवाज का असल रूप है कि बेटियों को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। इसलिए विदाई के समय एक अंजलि कनक(चावल) बेटियाँ माँ के आंचल में छोड़ कर कहती हैं, इस घर की लक्ष्मी (सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य) मैं यहां छोड़ जाती हूँ। पर समय के साथ एक सुंदर रिवाज को अपभ्रंश कर दिया गया।
मेरी माँ ने अपनी शादी (चालीस साल पहले) में भी इसका विरोध किया था, पर उनकी नानी, मासी, दादी, बुआ, आदि घर की औरतों ने उनको ये शब्द कहने के लिए मजबूर किया। मेरी माँ को विदाई से ज़्यादा इस बात का दुःख था कि ऐसा उन्हें कहना पड़ा।
मेरी शादी (अट्ठारह साल पहले) में मैंने इसका विरोध किया और माँ का पूरा समर्थन मुझे मिला। फिर हमारे घर की बड़ी बूढ़ी औरतों ने बार-बार मुझ पर दबाव डाला कि मैं भी बोलूं, पर मैंने नहीं कहा।
एक विडियो देखकर मुझे ये बातें याद आ गईं। इस विडियो को बहुत पसंद किया जा रहा है, जहां विदाई के समय दुल्हन सीधे शब्दों में मना करती है कि मैं नहीं कहूंगी कि मैंने अपने माता-पिता का ऋण वापस कर दिया।
माता-पिता का कर्ज कोई नहीं चुका सकता। इस विडियो को देखकर बहुत खुशी हुई कि समाज बदल रहा है। हमारी सोच बदल रही है। सही मायने में ये छोटे-छोटे बदलाव लड़के और लड़कियों में समानता की ओर एक कदम है।
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