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जब लड़के वाले दहेज लेते हैं तब उन्हें बहुत अच्छा लगता है लेकिन जब अपनी बेटी की शादी में दहेज देना पड़ता है, तब बहुत तकलीफ होती है।
“चलो शादी अच्छे से निपट गई, बेटी अपने घर चली गई। है ना रीता की माँ? एक कप अच्छी सी चाय पिला दो, बहुत थक गया हूँ।” एक लम्बी सांस भरते हुए वर्मा जी ने अपनी पत्नी से कहा। वर्मा जी की पत्नी चाय लेकर आयीं। बेटी की विदाई से अभी भी उनका मन दुःखी था। चाय पीते हुए वर्मा जी ने पत्नी से पूछा, “राकेश कहां है?” “शायद बरामदे में है।” इतना कहकर एक लड़के को पुकारा(बच्चे वहीं खेल रहे थे),”दीपू देख तो राकेश भईया कहां हैं? जा बुला ला उन्हें।”
लड़का दौड़ते हुए इधर-उधर ढूंढने लगा, तभी एक आदमी से बात करते हुए राकेश को देखा, “भईया, काका बुला रहे हैं तुम्हें।”
“चल मैं आता हूँ।” इतना कहकर राकेश फिर बात करने लगा। कुछ देर बाद वो कमरे में आया, “पिताजी आपने बुलाया मुझे।”
“हाँ-हाँ बैठो।” तभी राकेश के लिए मां चाय लेकर आती हैं। दोनों शादी में हुए खर्चे और बाकी खर्चों का हिसाब-किताब करने लगे।
“चलो सब कुछ अच्छे से हो गया। बेटी खुशी-खुशी अपने घर चली गई।” वर्मा जी सुकून भरे लहजे में बोले।
“क्या सब अच्छे से हो गया? खून तो चूस लिया रीता के ससुराल वालों ने। अभी बाहर टेंट वालों को पैसे दे रहा था। वह और पैसों की डिमांड कर रहे था, कह रहे थे कि दो गद्दे, पांच बर्तन, दो तकिये गायब हैं। अभी लाइट वाले, बैंड वाले, कैटरर को भी पैसे देना बाकी हैं।”
“सही कह रहे हो बेटा खून तो चूस लिया हमारा, दस लाख कैश और एक आई ट्वेन्टी लेने के बाद भी रीता के ससुर का पेट नहीं भरा तो अपने दामाद और भाई को सोने की अंगूठी भी दिलवा दी और मजबूरीवश मुझे देनी पड़ी। बहुत लालची हैं ये लोग।”
ये सारी बातें राकेश की पत्नी आशा सुन रही थी, सहसा वो अतीत में खो गई। जब तय की हुई दहेज की रकम देने के बाद भी उसके ससुर ने अपने दोनों दामादों को और बेटियों को सोने की रिंग देने के लिए कहा था। ये बात उन्होंने पहले नहीं कही थी। उस समय मेरी मां ने अपनी दोनों रिंग मेरी ननदों को दे दी। और उसके बाद कभी बिजनेस के नाम पर, तो कभी ज़मीन खरीदने के नाम पर, तो कभी रस्मों के नाम पर पैसे ऐंठे गए। मां की अंगुलियां आज भी सूनी हैं, बेटी का घर भरते-भरते खुद कंगाल हो गयीं। वो मन ही मन सोचने लगीं आज इन लोगों के मुंह से ऐसी बातें सुनकर तसल्ली हो रही है, “जैसी करनी वैसी भरनी” इसे कहते हैं कर्म। जो आपको इसी दुनिया में भोगना पड़ता है।
बातें सुनकर राकेश की पत्नी उस कमरे में दाखिल हुई। उसे देख एकाएक वर्मा जी और राकेश को, आशा के घरवालों के साथ अपने द्वारा किए गए एक-एक कृत्य तस्वीर की भांति आंखों के सामने घूमने लगे। कमरे में कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया।
आशा ने कहा, “नाश्ता तैयार हो गया है, कहिए तो कमरे में ही ले आऊं।”
“हाँ-हाँ ले आओ।” फिर आपस में बातचीत करने लगे, “अब लड़के वालों की तो सारी बातें माननी ही पड़ती हैं। आखिर लड़के वाले जो ठहरे। ये तो जगजाहिर बात है, उनकी डिमांड तो पूरी करनी ही पड़ती हैं, यही दुनिया की रीत है।”
आशा को उनकी ये बात सुनकर दुःख हुआ कि इतना सब कुछ होने के बाद भी इन लोगों का अहम आड़े आ रहा है। ये दहेज को बढ़ावा देने का ही काम कर रहें हैं। शायद पैसों की गर्मी बोल रही है, लेकिन जिनके पास पैसे नहीं हैं उनका क्या?
आशा ने खाना परोसा, खाने के दौरान दीपू भी अपने काका के साथ ही खाने बैठ गया और खाना खाते हुए उसने पूछा, “काका, रस्सी जल गई पर बल नहीं गया, का क्या मतलब है?”
आशा दीपू की बातें सुनकर मंद-मंद मुस्कुराने लगी लेकिन उस मुस्कुराहट में एक बड़ा दुःख छुपा हुआ था।
दोस्तो, जब लड़के वाले दहेज लेते हैं तब उन्हें बहुत अच्छा लगता है लेकिन जब अपनी बेटी की शादी में दहेज देना पड़ता है, तब बहुत तकलीफ होती है। लेकिन दुःख तो इस बात का होता है कि फिर भी उस बात से सबक नहीं लेते। और, इसे एक प्रथा या परंपरा की तरह आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाने का काम करते हैं।
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