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मेरी पहली 'ना' आज भी उत्पन्न कर देती है ज़लज़ला, पर माफ़ कीजियेगा यूँ ही चलता रहेगा 'ना' का ये सिलसिला।
मेरी पहली ‘ना’ आज भी उत्पन्न कर देती है ज़लज़ला, पर माफ़ कीजियेगा यूँ ही चलता रहेगा ‘ना’ का ये सिलसिला।
लड़का बड़ा अच्छा है, हमारी लड़की के लिए ठीक रहेगा
बड़े शहर में नौकरी करता है, अच्छा ही कमाता होगा।
फिर हमारी गुड़िया भी तो इतना पढ़ी है
अपनी पहचान बना हमेशा आगे बढ़ी है।
मुहूर्त निकाला गया और मुझे लड़के से बाँध दिया गया।
मेरा पालन-पोषण कुछ ऐसा हुआ था
लड़कों से नीचा ना समझना जैसा पाठ पढ़ा था।
रसोई तो सब पका लेते हैं, निर्भीक और आत्म-सम्मान नसों में माँ ने गढ़ा था।
पर विवाह कहाँ केवल लड़के से होता है,
नाम मिलन का और समझौता पूरे परिवार से होता है।
धीरे-धीरे ‘ससुराल’ का मतलब समझ आने लगा
और बहु का तमगा मुझे और उलझाने लगा।
‘अनुमति’ लेने की भी अनुमती लेनी पड़ती
याद आती मायके की ऐसी तो नहीं थी मैं लड़की।
सारी पाबंदियों में परदे ने किया सबसे ज्यादा परेशान
घूँघट को बना दिया मेरी शान।
पल-पल कचोटती ये प्रथा
गुनाह क्या है मेरा, क्यूँ छुपाऊँ ये मुखड़ा।
ज़िन्दगी जीने का नाम है
इंसान के कर्मों से ही उसकी पहचान है।
छः महीने हो चले, अब सहा नहीं जाता
अपना अधिकार माँगना, गलत नहीं कहा जाता।
सुबह उठी तो घरवालों की सिट्टी-पिट्टी गुम थी
बहु-रानी आज सलवार-सूट में बन-ठन थी।
हाँ! सुने थे ताने कुछ दिन, बोली ना एक शब्द
पर हिम्मत की उस दिन तो आज आने वाली हर बहु है घूँघट-प्रथा से रद्द।
मेरी पहली ‘ना’ आज भी उत्पन्न कर देती है ज़लज़ला
पर माफ़ कीजियेगा यूँ ही चलता रहेगा ‘ना’ का ये सिलसिला।
मूलचित्र: Pixabay
Now a days ..Vihaan's Mum...Wanderer at heart,extremely unstable in thoughts,readholic; which has cure only in blogs and books...my pen have words about parenting,women empowerment and wellness..love to delve read more...
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