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कृष्णकली तुम श्रेष्ठ हो, अपराजित हो

इतनी बार अस्विकृत होने के बाद यह तो समझ ही चुकी थी कि झूठ है कि संबंध ईश्वरीय वरदान से बनते हैं।

इतनी बार अस्विकृत होने के बाद यह तो समझ ही चुकी थी कि झूठ है कि संबंध ईश्वरीय वरदान से बनते हैं।

“फिर से वही जवाब आया है पापा।”

भाई की बात सुनकर पैर वहीं दरवाजे में ही जम गए कृष्णकली के। जवाब तो उसे पता था।

जब शाश्वत देखने आया था तभी बातों ही बातों में उसने जता दिया था कि ये रिश्ता उसे पसंद नहीं। फिर भी शायद कृष्णकली की इंजिनियरिंग की डिग्री और सरकारी नौकरी की मोटी कमाई के कारण ‘ना’ करने में पंद्रह दिन लग गए।

“क्या? फिर से? कैसी दुनिया है? जहाँ लोग आज भी शरीर के रंग को महत्त्व देते हैं गुण को नहीं।”

पिताजी की बातों में उनका दर्द साफ झलक रहा था। कृष्णकली सोचने लगी, पिताजी को कैसे समझाए, लोगों के लिए पत्नी सिर्फ सुख-दुख की साथी नहीं। प्रदर्शन की वस्तु भी है। कुरूप पत्नी होने का मतलब है, सीधे ही लोग ये अनुमान लगा लेंगे कि या तो दहेज में मोटी रकम मिली है या लड़की की नौकरी देखकर ब्याह कर लिया।

“जन्माष्टमी के दिन सांवले कन्हैया की पूजा करने वाली सांवली कृष्णकली को अस्वीकृत करके चले गए।” कहते-कहते मां का स्वर कांपने लगा। “कितने प्यार से नाम रखा था कृष्णकली, पर यह काला रंग ही उसके लिए अभिशाप बन गया। उसके इंजीनियरिंग की डिग्री के काले अक्षर भी उसके काले रंग के दोष को नहीं ढक पाए।”

इससे आगे वह कुछ ना कह सकीं, अब तक उनके स्वर भीगने लगे थे। कृष्णकली के मन से आवाज आई, माँ लोग बहुत गुणा-भाग करके संबंध बनाते हैं। इतनी बार अस्विकृत होने के बाद यह तो समझ ही चुकी थी कि झूठ है कि संबंध ईश्वरीय वरदान से बनते हैं। लोगों को अपने भविष्य की पीढ़ी की भी चिंता थी कि माँ का रंग साँवला है तो बच्चे भी साँवले होंगे।

कृष्णकली के पैर घर के मंदिर में विराजित कृष्ण की ओर अपने आप ही मुड़ गए। देखो तो! श्याम रंग के संगमरमर का कान्हा कितनी चपलता से मुस्कुरा रहा है। कृष्णकली ने मन ही मन कहा, “तुम क्या जानो श्याम रंग की पीड़ा। तुम तो पुरुष थे शायद इसलिए तुम रंग से नहीं गुण से जाने गए। साथ में उज्जवल राधा को लेकर कैसे भृकुटी ताने मुस्कुरा रहे हो।”

आज पूजा में भी मन नहीं लग रहा था। आरती के बाद जैसे ही कन्हैया के पैरों को छूने गई, नील रंग का अपराजिता का फूल उसके हाथों में आ गया। सर उठा कर देखा तो ऐसा लगा कुरुक्षेत्र में रथ पर बैठा माधव मुस्कुराकर कह रहा है,”लोगों की नजरों से स्वयं को क्यूँ आंकती हो। तुम श्रेष्ठ हो। अपराजित हो।

अपने आप को उसने पार्थ (अर्जुन) की जगह देखा। अब उसके सारे संशय दूर हो गये थे।

मूलचित्र: Google images

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