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बस इतना ही कहने आयी हूँ – नहीं बनना मुझे सीता और द्रौपदी

रक्षक के भेष  छुपे भक्षक बोलो, "क्या है मेरा जो मुझे जननी कहते हो, जन्म मेरा ही बाकी अब तक, स्वयं चुभा तीर, रहेगा रक्षक का आडंबर कब तक?"

रक्षक के भेष  छुपे भक्षक बोलो, “क्या है मेरा जो मुझे जननी कहते हो, जन्म मेरा ही बाकी अब तक, स्वयं चुभा तीर, रहेगा रक्षक का आडंबर कब तक?”

परशुराम का धनुष तोड़ चाहे ना ले जाये कोई राम मुझे,
एक वचन पर जीवन अर्पण, नहीं चाहिए ऐसा रघुकुल मुझे।
वचन जहाँ परिवार के परिणय से आगे रहे सदा यूँ,
छोड़ अपना दुलार मैं भी तो प्रीत परायी हूँ।
युग बीते जैसे विरह के वो साल,
फिर भी बचाई स्वयं अपनी ही लाज।
पवित्रता की कसौटी पर मैं ही क्यों, तुम भी तो हो,
नहीं हो भले राम नाम के पहले मेरा नाम।
विश्वास तो मेरा घात हुआ,
जब पर पुरुष का एक शब्द मेरे चरित्र का ग्रास हुआ।
प्रेम के वो ग्रंथ तब निशब्द हो गए,
जिस दिन मुझसे  प्रथम, लोक निंदा और भय हो गए।
सब खोया मैंने, मान, निकुंज, चरित्र और अधिकार मेरे,
सिर्फ इसलिए क्योंकि सीता हूँ मैं?

द्रौपदी का उपहास विनाश बना,
क्या चूक ना कोई कौरव से हुई?
नपुंसक बनाया वचन ने पति को,
एक खेल जहाँ मेरी आत्मा की हार हुई?
माँ का शब्दबाण बाँट गया पतिव्रत को,
मान रखा और पांचाली बन गयी?
खो कर अपना ही खून उस महायुद्ध में,
उस न्याय की मैं थाली बन गयी?

आकर्षण अगर मैं रोप दूँ तो शूपर्णखा, तू कर तो पौरुष,
बन अहिल्या करूँ राम की तपस्या, चाहूँ अगर मोक्ष।
क्या है मेरा जो मुझे जननी कहते हो, जन्म मेरा ही बाकी अब तक,
स्वयं चुभा तीर, रहेगा रक्षक का आडंबर कब तक?
परीक्षा देने नहीं सृजन को आई हूँ,
पग-पग दबने नहीं, तार लेने आयी हूँ।
108 रूप बन तेरा पूरा तन निर्मित,
मेरा ही अंग है तू, तभी जान्या कहलाई हूँ।
बल ध्वस्त की कथा चंड-मुंड से सुन,
लक्ष्मी बन माया तुझे दिखा दूं, कामिनी बन इतराई हूँ।
रूप मेरे अभेद अनेक, तू पूरक नहीं मेरा,
सिर्फ यही बतलाने आयी हूँ।
त्याग की आड़ में ना मांगो, मुझसे मेरा सब कुछ,
आत्म-सम्मान केवल मुझे प्रिय, इतना ही कहने आयी हूं।
ना बैठा सको मुझे वहाँ, जहाँ पूजा जाए कोई रंज नहीं,
मान रख मेरा,
बिन माँगे सर्वस्व अर्पण करूँ, फिर मैं तेरी अनुयायी हूँ।

मूल चित्र : Pexels 

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Shweta Vyas

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