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क्या होगा अगर अब कह दूँ, मेरे प्रश्नों के कोई उत्तर किसी के पास नहीं थे, तो जीवित दफ़ना कर मुझे देवी बना दिया! सदियाँ बीत गईं, यह इक्कीसवीं सदी है ना?
मेरा नाम सीता है। मैं बोल पड़ती तो, बड़ी आफ़त आ सकती थी। त्रेता युग में। इस लिए, एक बार मुझे लंका भेज दिया। दूजी बार जंगल। और आखिरकार, पाताल में गाड़ दिए स्वर मेरे। मेरी चीख। मेरे अंगार।
सदियाँ बीत गईं। यह इक्कीसवीं सदी, है ना? क्या अब प्रस्तुत हो, बोलो?
क्या होगा? अगर मैं कह दूँ, मैं खुद गयी थी लंका। उस भले आदमी के साथ। सारे लक्ष्मण रेखाओं से, ऊब कर। और तुम जैसों से भी।
क्या होगा? अगर मैं कह दूँ, बेटी चाहती थी मैं। युद्धलोलुप बेटे नहीं।
क्या होगा? अगर अब कह दूँ, मेरे प्रश्नों के कोई उत्तर किसी के पास नहीं थे, तो जीवित दफ़ना कर मुझे देवी बना दिया।
मैं अगर बोल पड़ी तो, तुम्हारा क्या होगा पुरुषोत्तम राम? और मेरा? दंगे-फ़साद, कर्फ़्यू, जेल? वैसे सुना है, नापसंद शब्दों पर यहाँ देशद्रोह का आरोप लगता है। धर्मद्रोह का भी।
त्रेता से कलयुग तक देख रही हूँ, मुझ जैसों को सुनने के लिए तुम सब कदापि इच्छुक बने ही नहीं ।
फिर भी, यह इक्कीसवीं सदी है। अब तो मैं बोलूँगी।
मूल चित्र : Pexels
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