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कर्तव्य कर्मा संस्था से जुड़ी हुई महिलाओं को सिर उठाकर समाज में जीने का हक हासिल हुआ है। वो स्वावलंबी हुई और उनको अपनी पहचान बनाने का मौका भी मिला।
दुनिया की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। लेकिन फिर भी हर देश, हर कोने में महिलाओं को सम्मान का वो दर्जा हासिल नहीं जिनकी वो असल हकदार हैं। हालांकि महिला उत्थान को महत्व का विषय मानते हुए दुनिया भर में कई प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन अब भी इसकी जड़ें उतनी मज़बूत नहीं हैं जितनी होनी चाहिए।
हाल के वर्षों में महिला सशक्तिकरण को लेकर काफी काम किया गया। इसका फायदा भी हुआ है। समाज में महिलाओं को सिर उठाकर जीने की आज़ादी मिली है। आज की महिलाएं हर क्षेत्र में कुछ ना कुछ नया और बेहतर कर रही हैं। लेकिन अब भी एक कड़ी बाकी है जिसने इस महिला सशक्तिकरण को दो भागों में बांट रखा है। दरअसल महिला सशक्तिकरण की बातें और योजनाओं का क्रियान्वन केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गया है। एक तरफ बड़े शहरों में रहने वाली महिलाएं पढ़ी लिखी, आर्थिक रुप से स्वतंत्र, नई सोच वाली, ऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं हैं, जो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं हैं, जो ना तो अपने मूल अधिकारों को जानती हैं और ना ही उन्हेंअपनाती हैं। वे अत्याचारों और सामाजिक बंधनों में आज भी बुरी तरह जकड़ी हुई हैं। यही नहीं गांव की महिलाओं ने तो उसी को अपनी नियति मान लिया है।
हम खुद को कितना भी मॉडर्न क्यों ना कह लें लेकिन, सच यह है कि मॉर्डनाइज़ेशन सिर्फ हमारे पहनावे में आया है लेकिन विचारों से हमारा समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। गांव और शहर की इस दूरी को समय रहते मिटाना बेहद ज़रूरी है। इसी मिशन को लेकर कर्तव्य कर्मा संस्था उत्तराखंड के गांव में कुछ परिवारों के साथ काम कर रही है जिसने, कुछ ही सालों में, गांव के हालात और वहां की तस्वीर बदल कर रख दी है। नैनीताल ज़िले के एक छोटे से गांव तल्ला गेठिया में कर्तव्य कर्मा संस्था महिला सशक्तिकरण पर काम कर रही है और साथ ही पलायन की समस्या को भी रोकने में कारगर साबित हो रही है।
2014 में कर्तव्य कर्मा ट्रस्ट के तौर पर रजिस्टर्ड हुई ये संस्था नैनीताल के ज्योलिकोट और गेठिया में महिलाओं को स्वावलंबी बनाने का काम कर रही है। अब तक कर्तव्य कर्मा संस्था से लगभग 70 महिलाएं जुड़ी हुई हैं। जिनको सिर उठाकर समाज में जीने का हक हासिल हुआ है। वो ना सिर्फ स्वावलंबी हुई हैं बल्कि उन्होंने वो दर्जा भी हासिल किया जिससे उनको अपनी पहचान बनाने का मौका भी मिला।
ऐसे हुई प्रोजेक्ट उद्योगिनी की शुरुआत
कहानी का सफर बेहद दिलचस्प है। कई साल बड़े शहरों में काम करने के बाद गौरव अग्रवाल गांव की तरफ लौट गए। इस तरह का काम करने की तैयारी तो 2011 से ही शुरु हो गई थी, लेकिन काम के बारे में सोचना और उसे धरातल पर लाना दोनों में बड़ा फर्क होता है। लिहाज़ा 2014 से गौरव अपने मिशन में जुट गए और सारी प्रक्रिया को सिलसिलेवार तरीके से अंजाम देना शुरु कर दिया।
इसी बीच गौरव की मुलाकात नैनीताल ज़िले के गांव तल्ला गेठिया में रहने वाली रजनी देवी से होती है। जो कई वर्षों से गांव की महिलाओं को सिलाई का प्रशिक्षण देने का काम कर रही थीं। रजनी देवी के साथ मिलकर गौरव ने गांव की कई महिलाओं से मुलाकात की और उनके बीच बैठकर सबसे पहले एक मुलाकात को अंजाम दिया।
उत्तराखंड में एक बात बेहद खास होती है कि गांव की महिलाओं के हाथ में कोई ना कोई हुनर मौजूद ज़रूर होता है। गौरव ने उनके इस हुनर को पहचाना और रजनी देवी के साथ मिलकर एक प्लान बनाया। गांव की ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को एक बार फिर बुलाया गया और उनसे पूछा गया कि आखिर उन्हें घर के काम-काज केअलावा क्या काम आता है। उनमें से ज़्यादातर महिलाओं का जवाब था सुई-धागे से जुड़ा काम, जैसे सिलाई और कढ़ाई। हालांकि, ये काम हिंदुस्तान के हर गांव की कहानी का हिस्सा है लेकिन गौरव ने इसे यहीं तक ही सीमित नहीं रहने दिया। गौरव और रजनी देवी ने मिलकर गांव की महिलाओं से कुछ नया करने की बात कही। गांव की महिलाओं की राय सामनेआई तो किसी ने बैग बनाने को कहा तो किसी ने जूट बैग्स, लेकिन गौरव को इससे कुछ अलग करने की चाहत थी।
गौरव को महिलाओं के इस हुनर को नई पहचान देने की सनक थी, लिहाज़ा उसने कपड़े की ज्वैलरी बनाने की बात महिलाओं से कही। ये सुनने में अटपटा ज़रूर था लेकिन महिलाओं के लिए ये एक नई चुनौती जैसा भी था। गौरव ने खुद अपने हाथों से पहले ज्वैलरी बनानी सीखी और फिर गांव की ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को बुलाकर सबको इसकी ट्रेनिंग दी गई। कुछ महिलाओं को फैबरिक ज्वैलरी बनाना बेहद मुश्किल काम लगा, तो किसी के लिए ये नया काम था। किसी को इसमें एक ही दिन में महारत हासिल हो गई तो किसी ने सरेंडर तक कर दिया कि हमसे नहीं हो पाएगा। लेकिन रजनी देवी और उनकी बेटी नेहा आर्या ने हार नहीं मानी। वो लगातार इसको बनानेकी प्रैक्टिस करते रहे।
गौरव ने हैंडीक्राफ्ट के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर पवन बिष्ट के साथ मिलकर इस पूरे प्रोजेक्ट पर रिसर्च की और इस प्रोजेक्ट को नाम दिया गया-उद्योगिनी। और इसके बाद इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत कपड़े की ज्वैलरी बनाने का काम शुरु हो गया। गांव की महिलाओं को जोड़कर पहले एक स्वयं सहायता समूह-हिमानी का निर्माण कराया गया जिसके बाद महिलाओं का जुड़ने का सिलसिला शुरु हो गया। देखते ही देखते गांव ही नहीं दूर-दूर के गांव की करीब 40 महिलाओं ने कर्तव्य कर्मा संगठन से जुड़ने का मन बना लिया, क्योंकि वो अपने हाथों से कपड़े की ज्वैलरी बनाने की कला में माहिर होना चाहती थीं। तीन महीने की ट्रेनिंग के बाद गांव की महिला को स्टाइपेंड मिलना शुरु होता है। और फिर काम के आधार पर उनका मानदेय तय किया जाता है। इससे भी ज़्यादा खास बात ये है कि गांव की इन महिलाओं को विश्वास ही नहीं होता कि उनके अपने हाथ में इतना हुनर छुपा हुआ है।
उत्तराखंड की नई पहचान बनती फैबरिक ज्वैलरी
वैसे तो हैंडीक्राफ्ट में उत्तराखंड की कई ऐसी कलाएं हैं जिनका नाम दुनिया भर में मश्हूर है लेकिन कर्तव्य कर्मा संस्था की मुहिम धीरे-धीरे अपना रंग जमाने लगी है। उत्तराखंड की कला और संस्कृति, जो परंपरागत तरीके से आगे बढ़ती चली आ रही थी, उसमें तल्ला गेठिया गांव की महिलाओं का ये प्रयास एक नया अध्याय जोड़ चुका है। आज तल्ला गेठिया गांव की पहचान फैबरिक ज्वैलरी बनाने वाले गांव के तौर पर बन चुकी है। कपड़े की ज्वैलरी हो या फिर राम झोला, कुशन कवर्स, कोस्टर्स, जूट बैग्स हों या फिर छोटे पर्स और पाउच, ये सभी प्रोडक्ट बिल्कुल नए तरीके के हैं।
नैनीताल या उसके आस-पास घूमने आने वाले लोगों को जब ये पता चलता है कि यहीं पास में तल्ला गेठिया गांव में कपड़े की खूबसूरत ज्वैलरी बनाने का काम होता है तो लोग दौड़े चले आते हैं। आज कारवां बढ़ते-बढ़ते 45 महिलाओं तक पहुंच चुका है, जिसमें रजनी देवी, डी क्राफ्ट ट्रेनर के तौर पर, नेहा आर्या, ज्वैलरी एक्सपर्ट के तौर पर और पूजा और फिरोजा, ज्वैलरी ट्रेनर के तौर पर संस्था में काम कर रही हैं।
हालांकि, यहां कई तरह के प्रोडक्ट्स बनाए जा रहे हैं, लेकिन खास प्रोडक्ट है कपड़े की ज्वैलरी जो पूरी तरह से हैंडमेड है। यही नहीं, इस ज्वैलरी की खास बात ये है कि ये पूरी तरह से अपसाइकल्ड और ईकोफ्रेंडली प्रोडक्ट है। और तो और, इसे सावधानी से धोकर दोबारा पहना भी जा सकता है। ये ज्वैलरी काफी मनमोहक और आकर्षक हैं। सबसे खास बात ये है कि ज्वैलरी में जितने भी नए डिज़ाइन बाज़ार में आते हैं, वो किसी डिज़ाइन आर्टिस्ट के द्वारा बताए हुए नहीं बल्कि महिलाओं के द्वारा ही बनाए हुए होते हैं। कहने का मतलब ये है कि किसी भी ज्वैलरी के नए डिज़ाइन के बारे में पहले ये महिलाएं खुद सोचती हैं, फिर उसे नई तरीके से बनाती हैं, फिर उसे सब की राय-मशवरे से फाइनल करती हैं और फिर उसी को और बेहतर बनाने का काम किया जाता है। इतनी प्रक्रियाओं से गुज़रने के बाद ये ज्वैलरी बेहद आकर्षक बनती है और लोगों का दिल लूटने में देर नहीं लगाती।
विदेशों तक धूम मचा रहा है ‘पहाड़ी हाट’
गांव की इन महिलाओं के प्रोडक्ट्स को विदेशी लोग काफी पसंद करते हैं। पायलट बाबा आश्रम में विदेशी सैलानियों का तांता लगा रहता है। वो गांव में इन महिलाओं के काम को देखने नीचे उतर आते हैं और फिर खरीददारी भी करते हैं। महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे इन प्रोडक्टस् को ‘पहाड़ी हाट’ नाम से बाज़ार में लॉन्च भी किया गया है। मुंबई, पुणे, फरीदाबाद और गुड़गांव में पहाड़ी हाट के कुछ प्रोडेक्ट्स लगातार जाते हैं। यही नहीं मेले और एक्ज़ीबीशन में भी पहाड़ी हाट के प्रोडेक्ट्स की काफी धूम रहती है। हाल ही में कनाडा की एक पार्टी ने भी पहाड़ी हाट से ज्वैलरी लेने का मन बनाया है जिस पर बात फिलहाल जारी है।
इन हुनरमंद महिलाओं का काम इतना साफ और सराहनीय है कि न्यूयॉर्क के एक वेडिंग प्लानर की कंपनी के प्रतिनिधि ने भी कर्तव्य कर्मा के सेंटर पर आकर इन महिलाओं द्वारा बनाई जा रही कपड़े की ज्वैलरी वगैरह की जानकारी ली। दिसंबर में खुद इस कंपनी की मालकिन सेंटर पर विज़िट करने का प्लान बना रही हैं। इसके अलावा महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे ये प्रोडक्ट्स महिला एंव बाल विकास मंत्रालय द्वारा भी मान्य हो चुके हैं। इन प्रोडेक्ट्स को इसी मंत्रालय की सरकारी वेबसाइट महिला ई हाट पर प्रदर्शित भी किया गया है। बड़े-बड़े इंस्टीट्यूट में पढ़ने वाले बच्चे भी उत्तराखंड की इस सरोवर नगरी नैनीताल के छोटे से गांव में हो रहे काम पर रिसर्च करने को आने को तैयार हैं। गांधीनगर स्थित धीरू भाई अंबानी इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्राफ्ट एंड डिज़ाइन, जयपुर, के बच्चे यहां एनजीओ में इंटर्नशिप करने के लिए अपना मन बना चुके हैं। यही नहीं निफ्ट रायबरेली जैसे संस्थान के बच्चे भी हमारे एनजीओ के साथ मिलकर काम करने का मन बनाते हैं। उन्हें महिलाओं के हाथ से बनी ज्वैलरी और उसके डिज़ाइन्स बेहद पंसद आते हैं।
पहाड़ी हाट ही नाम क्यों?
हाट का मतलब होता है बाज़ार। पहाड़ी हाट यानी ये पहाड़ का बाज़ार है। देखा जाए तो पहाड़ी हाट उत्तराखंड के कल्चर को समर्पित एक कॉन्सेप्ट है। यहां महिलाएं पहाड़ के उत्पादों पर काम कर रही हैं और उन्हें विशेष पहचान दिलाने को बेताब हैं। पहाड़ की जिन्दगी बेहद कठिन होती है। सुख-सुविधाओं के आभाव में भी यहां की महिलाएं पहाड़ की संस्कृति को बचाए रखने में सफल हैं। आज बाज़ार बड़ा हो चुका है। विदेशों से चीज़े मंगाना भी आसान हो चुका है। देश में हर कोई विदेशी प्रोडक्ट को अपना रहा है, लेकिन जो लोग पहाड़ की संस्कृति, वहां के उत्पाद, खान-पान की चीज़ें और हाथ से बनाए गए प्रोडक्ट्स पसंद करते हैं, उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। लिहाज़ा पहाड़ी हाट उन लोगों का अपना बाज़ार होगा जो पहाड़ और वहां के प्रोडक्ट्स को दिल से पसंद करते हैं।
‘गांव टू ग्लोबल’-एक सोच, एक प्रोजेक्ट
ये दूसरे प्रोजक्ट की ही तरह कोई आम प्रोजेक्ट लग सकता है। क्योंकि गांव में कई संस्थाएं काम भी कर रही हैं। लेकन यहां सवाल सोच का है। उसे लागू करने का है। सामाजिक बदलाव लाने का है। तल्ला गेठिया गांव पूरी तरह बदल रहा है। जहां गांव को लोग ज़्यादा कुछ जानते तक नहीं थे, वहां अब विदेशियों का तांता लगने लगा है। ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड्स, रूस, जपान औरअमेरिका तक से विदेशी सैलानी यहां आकर ज्वैलरी खरीदकर जाते हैं। उन्हें पता लग चुका है कि नैनीताल जिले में ऐसा भी गांव है जहां महिलाओं ने अपने दम पर वो काम कर दिखाया, जिसे बहुत कम लोग कर पाते हैं। यही नहीं, गांव में बनी ज्वैलरी को लोग विदेशों में पहनते हैं, गिफ्ट करते हैं। कर्तव्य कर्मा के सेंटर पर जो भी काम होता है, विदेशी ना सिर्फ उसे खरीदने का शौक रखते हैं, बल्कि यहां से कई सैलानी ट्रेनिंग लेकर भी गए हैं। उन्होंने यहां की महिलाओं को विदेश में ट्रेनिंग देने का बुलावा भी भेजा है। ये सब गांव की महिलाओं के लिए किसी सपने से कम नहीं लगता, लेकिन जब बात सामने होती है, जब विदेशी उन्हें अपने यहां ले जाने का प्रस्ताव देते हैं, तब उनका अपने हुनर पर यकीन और बढ़ जाता है। विदेशियों से जब भी अपने काम की तारीफ ये महिलाएं सुनती हैं तो उनका सपना जैसे पूरा होने जैसा लगता है। कर्तव्य कर्मा की पहले ही दिन से सोच है कि अपने मिशन को ‘गांव टू ग्लोबल’ बनाया जाए, जिससे, एक तो प्रोडक्ट्स उसी फिनिशिंग और कॉन्सेप्ट के साथ बनें और दूसरा विदेश तक इन महिलाओं का नाम हो।
कर्तव्य कर्मा का बढ़ता दायरा
कर्तव्य कर्मा एनजीओ की मुहिम सिर्फ हैंडीक्राफ्ट तक ही सीमित नहीं है। संस्था के दो और जगह सेंटर्स हैं जहां पर एग्रो प्रोडक्ट्स और हैंड निटिड प्रोडक्ट्स पर काम चल रहा है। फिलहाल हैंडीक्राफ्ट के साथ-साथ संस्था ने धीरे-धीरे एग्रो प्रोडक्ट्स पर भी काम करना शुरु कर दिया है। ज्योलिकोट स्थित होर्टीकल्चर सेंटर के सामने ही एक सेंटर पर सिर्फ एग्रोप्रोडक्ट्स पर काम किया जा रहा है। यहां पर हाथ से कूटे हुए मसाले, दालें, शहद, हर्बल चाय और हर्ब्स सीज़निंग का काम किया जा रहा है। ये काम पुष्कर जोशी की देखरेख में हो रहा है जो इस एग्रो प्रोडक्ट प्रोजेक्ट के कोऑर्डिनेटर हैं। एग्रो प्रोजेक्ट पर फिलहाल 14 महिलाएं काम कर रही हैं। जिनका एक स्वयं सहायता समूह भी बनाया जाएगा। इसके अलावा रानीखेत के पास चिलियानौला गांव में एक छोटा सा निटिंग सेंटर भी है जहां पर महिलाएं हाथ से स्वेटर, कार्डिगन, शॉल, बच्चों के स्वेटर, टोपी, दस्ताने और मफलर बनाने का काम करती हैं। इस सेंटर को अनीता सिंह परिहार संभालती हैं जो इस निंटिंग प्रोजेक्ट की कोऑर्डिनेटर हैं। बुनाई के काम को 15 महिलाएं अंजाम देती हैं। बुनाई के सभी प्रोडक्ट को फिलहाल बाज़ार में उतारा जा चुका है।
अपने ब्रांड की पहचान बनती महिलाएं
कर्तव्य कर्मा संस्था ने महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे पहाड़ी हाट के प्रोडक्ट को महिला सशक्तिकरण का मज़बूत आधार माना है। काम को पहचान मिली, गांव की पहचान भी होने लगी, लेकिन इन हुनरमंद महिलाओं की खुद की पहचान अब तक नहीं बनी जिनके उत्थान का मकसद लेकर संस्था ने काम शुरु किया था। लिहाज़ा, गौरव का एक आईडिया फिर काम कर गया। गांव में बनने वाले प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए इन्हीं महिलाओं को मॉडल के तौर पर आगे किया गया। यानी कान के झुमके और गले का हार पहनकर ये महिलाएं खुद ही अपने प्रोडक्ट की ब्रैंड एम्बैसेडर बन गईं। हालांकि गांव की महिलाएं अभी इस काम को करने में शर्माती हैं क्योंकि समाज के दायरे ने अब भी इन महिलाओं को दहलीज़ लांघने से रोक रखा है। लेकिन परिवार वालों की अनुमिति के बाद उन्हें अपने प्रोडक्ट का मॉडल बनाकर गांव में ही प्रोडक्ट का फोटो-शूट कराया जाता है, और फिर वो महिला अपने ही बनाए प्रोडेक्ट की ब्रैंड एम्बैसेडर बन जाती है। कभी बैग्स टांगकर, तो कभी कार्डिगन पहनकर, सुपरमॉडल बनती महिलाओं का ये नया अवतार उन्हें भी अपार खुशियां दे जाता है। यही नहीं, राह चलते अब लोग भी इस गांव की महिलाओं को पहचानने लगे हैं, उनसे सम्मानपूर्वक बातें करते हैं और उनके काम की तारीफ करते हैं। ये सामाजिक बदलाव नहीं तो क्या है। बैंक में जब ये महिलाएं पैसा निकालने या जमा करने जाती हैं, तो कई महिलाओं को लोग मिलकर ऐसा काम करने की बधाइयां देते हैं। ये सारे पहलू उनके हौसले को दोगुना कर जाते हैं।
बॉलिवुड तक पहुंची पहचान
कर्तव्य कर्मा की महिलाओं का काम ऐसा है जिसके चर्चे बॉलिवुड के स्टार एक्टर्स भी करते हैं। तल्ला गेठिया गांव में बन रही कपड़े की ज्वैलरी फिल्म एक्टर वरुण धवन को भी लुभा गई। दरअसल हाल ही में वरुण धवन और अनुष्का शर्मा की फिल्म सुई-धागा रिलीज़ हुई थी जिसमें एक वरुण धवन और अनुष्का शर्मा के संघर्ष की कहानी को पर्दे पर उतारा गया था। फिल्म में दोनों एक्टर्स ने अपने काम को अपनी पहचान बनाते हुए दुनिया भर में अपना परचम लहराया था। इसी सपने को हमारे गांव की महिलाएं भी साकार करने में जुटी हैं। फिल्म सुई-धागा जैसी कहानी हमारी गांव की महिलाओं की भी है जो सुई-धागे का काम करते हुए काफी पहचान हासिल कर चुकी हैं। जब यह बात ट्विवटर के ज़रिए वरुण धवन को बताई गई, कि हमारी कहानी भी आपकी फिल्म सुईःधागे से मिलती है, तो उन्होंने हमें ना सिर्फ बधाई दी, बल्कि ट्विटर पर टैग करके लिखा कि ‘मैं उम्मीद करता हूं कि आपकी कहानी के पात्र भी फिल्म सुई-धागे की कहानी से ज़रुर मेल खाएंगे।’ वरुण धवन के इस ट्वीट ने तो कर्तव्य कर्मा संस्था और गांव की पहचान को बॉलिवुड तक पहुंचा दिया। मीडिया में इस बात के चर्चे होने लगे कि फिल्म सुई-धागे की कहानी नैनीताल जिले के एक गांव तल्ला गेठिया में काम करने वाली महिलाओं से मिलती है। फिर क्या, गांव की महिलाओं को दूर-दूर से बधाई संदेश आने लगे। लोगों ने हमारे काम को खूब सराहा और ये भी कहा कि हम भी आपके साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। ये ऐसा बदलवा था जिसने इस गांव की किस्मत में चार चांद लगा दिए थे।
पहाड़ सी दिक्कतें भी हैं सामने
किसी ने सच ही कहा है कि पहाड़ की ज़िन्दगी पहाड़ जितनी ही मुश्किल और कठोर होती है। यहां जीवन ज़रा भी आसान नहीं होता। यहां की महिलाएं बेहद मेहनती होती हैं। कर्तव्य कर्मा संस्था से जुड़ी महिलाओं की दास्तान भी चुनौती भरी है। कपड़े की ज्वैलरी दिखने में जितनी सुंदर है, उसको बनाने के पीछे की चुनौती उतनी ही मुश्किल। सुबह जल्दी उठकर ये महिलाएं घर की साफ-सफाई, चूल्हा-चौका करने के बाद खेतों में काम करती हैं। गाय-भैंस चराती हैं। बच्चों को स्कूल भेजती हैं, फिर ले कर भी आती हैं। इसके बाद कई किलोमीटर का रास्ता तय कर, नदियां पार कर, मुश्किल रास्तों से गुजरते हुए ये कर्तव्य कर्मा के सेंटर पर पहुंचती हैं। चार से पांच घंटे काम करने के बाद, ये फिर घर वापस लौटती हैं, पूरे परिवार का खाना बनाती हैं, तब तक रात हो चुकी होती है और अगले दिन का सारा काम फिर से इनके दिमाग में गोते खाने लगता है। सुई धागे का काम इतना भी आसान नहीं होता। संस्था इन महिलाओं को हर 6-6 महीने पर टिटनेस का इंजेक्शन भी लगवाती है क्योंकि सुई कभी हाथ में चुभती है तो कभी कहीं उंगली में। इन सब मुश्किलों के बाद भी इन महिलाओं के हौसले टस से मस नहीं होते। उन्हें तो अपनी और अपने गांव की पहचान बनानी है, लिहाज़ा ये अविरल धारा की तरह बहती चली जा रही हैं, बिना किसी लोभ-लालच के।
उद्योगिनी के अंतर्गत और भी प्रोजेक्ट होंगे लॉन्च
कर्तव्य कर्मा के प्रोजेक्ट उद्योगिनी के अतंर्गत फिलहाल हैंडीक्राफ्ट, ऐपण आर्ट, एग्री प्रोडक्ट्स और बुनाई के प्रोडक्ट्स को मार्केट किया जा रहा है, लेकिन अभी और भी महिलाओं और उनके परिवारों की जिन्दगी संवारनी बाकी है। लिहाज़ा कर्तव्य कर्मा के संस्थापक गौरव लगातार नए प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं। फिलहाल, अभी दो और विंग खोलने की तैयारी चल रही है, जिनमें से एक में बायो कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स का काम किया जाएगा, जिसमें हैंडमेड सोप, स्क्रब, शैंपू, बॉडी लोशन, फेस क्रीम, लिप बाम वगैरह बनाने की ट्रेनिंग महिलाओं की दी जाएगी। जबकि दूसरे विंग में, अगरबत्ती और सेंटेड कैंडल्स का काम शुरु करने की प्लानिंग चल रही है। ये अगरबत्ती हर्बल और बिल्कुल अलग तरह की होगी। कैंडल्स को भी नए प्रोयोगों के साथ बाज़ार में उतारा जाएगा। इन प्रोजेक्ट्स को अगले साल तक लॉन्च करने की इसलिए भी तैयारी हो रही है ताकि गांव की ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं हुनरमंद हो सकें और उन्हें अपना परिवार चलाने के लिए कहीं दूर ना जाना पड़े।
बिना सरकारी मदद के काम
ताज्जुब की बात ये है कि कर्तव्य कर्मा संस्था के संस्थापक गौरव अग्रवाल अब तक बिना किसी सरकारी मदद के ही ये सारा काम आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं । गौरव एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखते हैं लेकिन फिर भी वो बिना किसी मदद के लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इतने सालों से वो अपनी कमाई का ही पैसा लगाकर गांव की महिलाओं का उत्थान करने में लगे हैं। ऐसा नहीं कि सरकारी मदद के लिए कभी सोचा नहीं गया, लेकिन कागज़ी कार्रवाई और दौड़-भाग में अगर उलझते तो जिस मुकाम पर आज खड़े हैं, वो कभी हासिल नहीं हो पाता। गौरव बताते हैं कि इस तरह का सामाजिक काम, दो तरह से होता है-पहला, आप सरकारी मदद लेकर काम को आगे बढ़ाओ और दूसरा, अपने काम को इतना बड़ा कर लो कि मदद के लिए खुद लोगों के हाथ आगे बढ़ने लगे। गौरव दूसरे वाले तरीके पर ज्यादा विश्वास करते हैं, लिहाज़ा, बस इंतज़ार अब उसी का है कि कोई मदद के लिए हाथ आगे आए और महिला उत्थान के लिए चल रही इस मुहिम और भी ताकत मिले। हालांकि, कई बार बीच में आर्थिक बाधाओं के चलते काम रुकते-रुकते बचा है, लेकिन फिर भी गौरव लगातार अपने मिशन में बिना किसी लोभ लालच के जुटे हुए हैं। गौरव कहते हैं, ‘ईश्वर में आस्था है तो उलझनों में ही रास्ता है।’
सिर्फ सोच नहीं, परिवार भी है कर्तव्य कर्म
अपने कर्तव्यों और कर्मों पर भरोसा रखने का हौसला बहुत कम लोगों में होता है। खुद पर विश्वास और अपने कर्मों में आस्था रखने की सोच को लेकर, कर्तव्य कर्मा संस्था का अनावरण हुआ था, लेकिन ये अब सिर्फ सोच नहीं है बल्कि ये कर्तव्य कर्मा परिवार के हर व्यक्ति की सोच का हिस्सा है, लिहाज़ा, यहां ना कोई संस्थापक है, ना कोई काम करने वाले, यहां सिर्फ एक परिवार है जिसका नाम कर्तव्य कर्मा है। इसी सोच ने लोगों में वो भरोसा भर दिया है जिससे ये सारी महिलाएं आज दुनिया के सामने सिर उठाकर चलने का भरोसा रखती हैं। कोई भी नया सदस्य भी जब इस परिवार के साथ जुड़ता है, तो वो भी इसी सोच से आगे काम करता है, जिसमें ये विश्वास जगता है कि वो दुनिया का ऐसा काम करने का माद्दा रखता है, जो बहुत कम लोग कर पाते हैं।
पलायन की समस्या का निदान
उत्तराखंड में पलायन एक विकट समस्या है। यहां गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। पुश्तैनी घर, जम़ीन, सब खंडहर और बंजर होते जा रहे हैं। गांव में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। क्योंकि वहां ना कमाई के साधन हैं, ना कोई सुविधा। हालात ऐसे हैं जहां ना कोई डॉक्टर जाना चाहता है ना कोई स्कूल है, और ना ही कोई सरकारी योजना का लाभ लेने को तैयार है। तल्ला गेठियां गांव भी इसी पलायन की समस्या का शिकार होते-होते बचा है। काम की तलाश में लोग परिवारों के साथ गांव छोड़कर प्लेन्स में चले जाते हैं जहां छोटा-मोटा काम कर गुजर-बसर करते हैं। फिर ना तो उनकी हालत शहरों में बसने लायक बचती है और ना ही गांव बसने लायक। वो सब ज़मीन, घर सब बेचकर शहरों में बस जाते हैं। लेकिन वहां हालात और भी बदतर हो जाते हैं। कम से कम कर्तव्य कर्मा के मिशन से तल्ला गेठिया गांव में इस तरह के हालात नहीं पनपे। हम खुश नसीब हैं कि कर्तव्य कर्मा ने सही वक्त पर ये प्रोजेक्ट शुरु कर गांव की तस्वीर ही बदल दी। अब लोग अपने घर से ही काम करते हैं। उनकी आजीविका भी बेहतर है और उन्हें ना तो घर-जमीन बेचने की ज़रूरत है और न ही शहरों में जा कर बसने की इच्छा है। और यही कर्तव्य कर्मा संस्था की पहली जीत है।
एक हज़ार परिवार जोड़ने का लक्ष्य
सवाल उठता है कि क्या इतने बड़े कॉन्सेप्ट को लेकर लगातार आगे बढ़ना आसान है? ज़रा भी नहीं। दरअसल, सीमित संसाधनों में, गांव में रहकर के ये काम करना बिल्कुल भी आसान नहीं है। पहाड़ में एक महिला ही पूरे घर को संभालने का काम करती है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि एक महिला मतलब एक परिवार। कर्तव्य कर्मा से जुड़ी 70 महिलाओं कामतलब 70 परिवारों का जिम्मा उठाना है, जो बिल्कुल भी आसान काम नहीं है। हर किसी की अपनी ख्वाहिश होती है, हर कोई अपनी तरीके से काम करना चाहता है। लेकिन गौरव को ये काम और मुश्किल तब लगता, जब ये काम बड़े शहरों में होता। गांव में तो सीधे-सादे लोग बसते हैं, उन्हें ना किसी दौड़ में शामिल होना है, और ना ही कामयाबी का कोई स्तर पार करना है। यहां की महिलाएं तो बस चेहरों पर मुस्कान लिए काम करना जानती हैं। उनका सपना सिर्फ एक है, कि वो अपने गांव की पहचान बना सकें। उन्हें वो रुतबा हासिल हो सके, जो उन्हें आज तक नहीं मिला।
शहरी लोग इन महिलाओं को वो सम्मान और प्यार नहीं देते जिसके ये असल हकदार होते हैं, लेकिन आज अपने काम की बदौलत दूर-दूर से लोग यहां इस छोटे से गांव में आकर, इन महिलाओं के सम्मान में तारीफों के कसीदे पढ़ते हैं। उनके काम की सराहना करते हैं। इन महिलाओं के हाथ का हुनर विदेश तक अपनी पहचान बना रहा है। ये आगे भी चलता रहे, इसके लिए कर्तव्य कर्मा को मदद की ज़रुरत है। ज़्यादा से ज़्यादा मददगार हाथ आगे आएंगे तो ज़्यादा से ज़्यादा परिवारों को रोज़गार मिलेगा और पहाड़ से पलायन की समस्या का समाधान हो सकेगा।
महिला उत्थान का ये सिलसिला और कारवां और भी बड़ा करना है, और भी आगे ले जाना है। संस्था अपने साथ करीब 1000 महिलाओं को जोड़ने का लक्ष्य लेकर आगे बड़ रही है। अगर प्रयास सफल रहे और ईश का आशीर्वाद रहा तो ये आंकड़ा भी ज़रूर पार होगा, इसमें कोई शक नहीं।
‘हैंडीक्राफ्ट विलेज’ का सपना
गांव के हालात बदल रहे हैं। सोच बदल रही है। वहां रहने वाले लोगों को भी भरोसा होने लगा है कि उनका गांव उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि दुनिया के नक्शे पर भी चमकेगा। इसी सोच के साथ कर्तव्य कर्मा संस्था के संस्थापक गौरव ने छोटी आंखों में अपने सपने को और भी बड़ा कर लिया। बड़ा विज़न और कॉन्सेप्ट गौरव को सपने के और भी करीब ले आया। गौरव ने गांव को हैंडीक्राफ्ट विलेज बनाने का सपना देखा है। ये ऐक ऐसा गांव होगा जहां आर्टिसन एक जगह काम कर रहे होंगे। कपड़े की ज्वैलरी, एपण आर्ट, दाले मसाले, बुनाई, हैंडमेड सोप और बायोकॉस्मेटिक्स और अगरबत्ती, कैंडल बनाने का सेंटर डेवलेप होगा। जहां कर्तव्य कर्मा के आर्टिसन से लोग ट्रेंनिग एंव वर्कशॉप लेने के लिए वहां आ सकते हैं। जहां सारे प्रोडक्ट्स का शो रूम होगा, जहां से खरीदारी हो सकेगी। इसके अलावा आर्ट एंड कल्चर हॉल होगा, जहां उत्तराखंज की विलुप्त होती कल ऐपण कला की पेंटिंग्स लगी होंगी। एम्पीथिएटर में नुक्कड़ नाटक होंगे, कलचरल एक्टीविटीज़ होंगी, फूड कोर्ट होगा जहां उत्तराखंडी खाना मिलेगा और गेस्ट हाउस होगा जहां लोग आकर ठहर कर हमारे काम को देख सकेंगे और सीख सकेंगे। यहां एक्सीबिशंस भी लगेंगी, जहां उत्तराखंड के आर्ट एंड कल्चर को प्रोमोट किया जाएगा।
ये अपने आप में अनोखा गांव बन जाएगा, जो उत्तराखंड की शान और पहचान दोनों बनेगा। नैनीताल और भीमताल के बीच रास्ते में पड़ने की वजह से सैलानियों से अच्छा रेवेन्यू जेनरेट हो सकेगा, जिसका फायदा उत्तराखंड सरकार को भी मिल सकता है। इसमें मिनिस्ट्री ऑफ टूरिज्म भी शामिल हो सकती है जिससे इस गांव को उत्तराखंड की धरोहर का दर्जा मिल सकता है। ऐसा विलेज बनाने के लिए बड़े पैमाने पर पैसा और इंफ्रास्टचर की ज़रुरत होगी। लेकिन गौरव और गांव की महिलाओं को यकीन है कि कभी ना कभी, कोई ना कोई, ऐसा टकराएगा जो इस गांव और महिलाओं की तकदीर बदल देगा। उसी दिन का इंतज़ार हम सब कर रहे हैं। वो दिन गांव की महिलाओं के काम की बदौलत ज़रूर आएगा, ऐसा हम सबको भरोसा है।
मूलचित्र : कर्तव्य कर्मा
लेखक : गौरव अग्रवाल, फाउंडर-कर्तव्य कर्मा
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