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सर्दी की वो धूप कभी भुला ना पाऊँगी

कभी सूरज की कड़कन से आँख-मिचोली खेलते, पढ़ाई में ध्यान लग भी जाता था, शॉल को टेंट बनाते-बनाते सारा समय निकल जाता था। 

कभी सूरज की कड़कन से आँख-मिचोली खेलते, पढ़ाई में ध्यान लग भी जाता था, शॉल को टेंट बनाते-बनाते सारा समय निकल जाता था। 

माँ! आज देखा जो तेरा कंगन,

याद आ गया बचपन का अपना आँगन।

चमकती धूप जहाँ खिलखिलाती थी,

सुस्ती भरी अँगड़ाइयों की झड़ी लग जाती थी।

 

“ऐ ले लो साग”, बाहर कोई आंटी चिल्लाती थी,

सर पर रखी उनकी बड़ी सी टोकरी एक हाथ से संभल जाती थी।

कभी ऐसा सुना है आम बेचने वाला जो कहता हो,

“अम्ब जी तुस्सी बड़े मिट्ठे हो” गली-गली गाता हो।

सुस्ताने के अलावा अपना नहीं था कोई काम,

जहाँ एक चारपाई थी गाजर, गोभी, शलगम के नाम।

 

वो तुम्हारा सिलाइयों में उलझे रहना,

और हमारा मूँगफली के छिलकों से खेलना।

“कुछ पढ़ लो पेपर सर हैं”, तुम्हारा कहना,

हमारा, “हाँ जी बस चली”, कह कर टालना।

 

कभी सूरज की कड़कन से आँख-मिचोली खेलते, पढ़ाई में ध्यान लग भी जाता था,

शॉल को टेंट बनाते-बनाते सारा समय निकल जाता था।

फिर दोपहर की शांति में पड़ोस से मूँगफली की इक कड़क गूँजती थी,

तो हमारे मुँह में मानो सुनामी की लहरें उठती थी।

 

आज वो कुछ जुराबें-टोपियाँ अलमारी में मिली,

मानो मुझे देख उनकी ऊन भी खिली।

इतनी गर्मी कहाँ इन ‘मॉलों’ के स्वेटर की ऊन में है,

माँ और दादी-नानी के हाँथों की ख़ुशबू तो मेरे पिटारे में बंद है।

 

दादी के हाथ की शफ़ा घर के खाने में ख़ूब छलकती थी,

तुम्हारी और उनकी हँसी जब अचार और कांजी में घुलती थी।

खिड़की में पड़े काँच के मर्तबान की चाशनी हीरे सी चमकती थी,

उस मुरब्बे की मिठास दादी की मुस्कान सी मासूम लगती थी।

 

कितने तरह के अचार यूँ नाज़ुक सफ़ेद-भूरे मर्तबानो में सेक लेते थे,

शाम को उन्हें घर के अंदर ले जाने के चक्कर लगते थे।

जब हम जिद्द करते कि ज़रा तुम्हारा हाँथ बँटा दें,

तुम्हारे दिल में उनके टूट जाने के अजीब भ्रम उठते थे।

 

मक्की की रोटी की गर्माइश से घी और गुड़ पिघल जाता था,

“इससे वज़न नहीं बढ़ता”, ऐसा तुम्हारा प्यार समझाता था।

नए साल का प्रोग्रम टीवी पर देख गुड़-पट्टी के साथ पार्टी टाइम हो जाता था,

ये भीड़ में ऊँचे गानों पर नाचने का शौक़ तब तक हमने नहीं पाला था।

 

देसी आदतें और देसी नुस्ख़े तब इतने समझ नहीं आते थे,

आज उन सब को याद कर बिगड़ी देह हैं सुधारते।

वो खट्टी कांजी की ख़ुशबू, वो मीठे मुरब्बे की मिठास,

कभी भुला ना पाऊँगी वो दिन जो हमेशा रहेंगे इतने ही ख़ास।

 

मूलचित्र : pixabay 

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Shruti (Mehendiratta) Choudhary

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