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'साईकल पर सवार उसकी ज़िन्दगी अब संतुलित होने को है।' विश्व साईकल दिवस के अवसर पर एक सच्ची कहानी, जिसे बहुतों ने जिया है, अपने-अपने तरीकों से।
‘साइकिल पर सवार उसकी ज़िन्दगी अब संतुलित होने को है।’ विश्व साइकिल दिवस के अवसर पर एक सच्ची कहानी, जिसे बहुतों ने जिया है अपने-अपने तरीकों से।
बरामदे के पास लगी चमेली की झाड़ से फूल झड़ते-झड़ते सुबह हो ही गयी। अलका जगी हुई थी रात भर, कहीं देर न हो सुबह उठ कर निकलने में। फूलों की उस सेज को देखा भी नहीं होगा शायद, आँखें जो जल रही थीं। सूज गई थीं जागरण से। उन्हें भी महसूस नहीं किया होगा, पिछले चार दिन की तरह। गुड्डी और उसके पापा सो रहे हैं, एक दूसरे से लिपट कर। बाथरूम-ब्रश, सब कुछ चार बजे ही हो चुका था अलका का। गुड्डी के सुसु वाले कपड़े और बासी बर्तन धोने में और कुछ वक़्त गया, फिर दूध बना के भरा बड़ी बोतल में और चाय को फ्लास्क में, सब के लिए।
वक़्त बेफिक्र है, उसे अलका का इंतज़ार नहीं है।
“हे भगवान, पांच बज गए!” अलका की दिमाग से एक आह निकली। साड़ी बदल कर वो भागी नीलम के घर।
नीलम एक अच्छी छात्रा और समय की बड़ी पाबंद है। उसे वक़्त पे ट्यूशन जाना होता है। साइकिल साढ़े छः बजे वापस करो तो अगले दिन साइकिल मिलने का आश्वाशन मिलता है।
वैसे अलका भी अच्छी ही थी पढ़ाई लिखाई में। पर कॉलेज के बाद जैसे सब की होती है, उसकी भी हो गयी, शादी। पति, ससुराल, गृहस्थी, बच्चे, और बहुत, बहुत कुछ।
पर यह अजीब था कि इतना सब कुछ पाने के बाद भी वो ‘कीड़ा’ नहीं निकला। ‘कीड़ा’ शब्द को अलका ने अपने बीमा एजेंट पति से सीखा था। उसको बेहद नाराज़गी थी अपनी पत्नी से, कि उसके दिमाग से छोटी सी एक नौकरी का कीड़ा निकलता ही नहीं है। इस मुद्दे पर अक्सर घर के विभिन्न मैदानों पर झड़पें चलती आईं।
आख़िरकार, पति ने सोचा, इस ‘कीड़े’ की मौजूदगी से अगर चार पैसे घर में आते हैं तो हर्ज़ ही क्या है। उसने यह बात माँ-बाबा को अकेले में समझाई। फिर कुछ हदों और शर्तों के साथ अलका के ‘कीड़े’ को हरी झंडी मिली।
पैसे की आस ने अलका के रस्ते को सुगम बनाया क्योंकि पतिदेव भी काम की खोज-बीन में जुटा थे। उसकी जान-पहचान से, अलका को पास वाले गांव की आंगनवाड़ी में पढ़ाने का काम मिला।
जैसे दूर-दराज़ के गाँवों में होता है, दूर तक पैदल चलना पड़ता है, अलका ने भी ऐसे ही शुरू किया। नौकरी लगने के बाद घरेलू काम कुछ ज़्यादा ही उभर के आ रहे थे। कुछ सास-ससुर ने दिए तो कुछ पति ने। फिर गुड्डी को ले कर भी मतभेद बढ़ने लगे। पर अलका को खामोशी से डटे रहना था। जितना हो सके, सब संभाल के वो भागती थी हर दिन एक व्यस्त पतंग की तरह, अपने उस नए आंगन की ओर।
आंगनवाड़ी की छोटी सी तनख्वाह से घर की छोटी-मोटी मांगे पूरी होने लगीं। गुड्डी के बुखार में डॉक्टर को दिखाने में पहली बार ज़्यादा हंगामा नहीं हुआ। दीवाली में कुछ और पटाखे खरीदे गए तो जाड़े में दो नए कम्बल।
दिन जब महीनों में बदले तो अलका ने देखा कि पैसे हो कर पर भी,अक्सर हालात को पूरी तरह मरम्मत करने की क्षमता नहीं होती है। उसे रोज़ और काम निपटाना था और भागना था और जल्दी गुड्डी तक वापस आना था। पर पैर गति का और गति वक़्त का साथ नहीं दे पा रहे थे। तो आख़िरकार, अलका ने साइकिल सीखने के बारे में सोचा।
इस बार जैसे मैदान में बम्ब फट गया था। बहु साइकिल चलाएगी तो ‘घर की इज़्ज़त पंक्चर हो जाएगी’ बोल कर सास-ससुर सरासर ना-ना किए तो पति ने गुड्डी को संभालना बंद किया। लाचार अलका को दो-चार दिन छुट्टी लेनी पड़ी, जैसा अक्सर होता रहता था।
एक नौकरी-शुदा औरत होने के नाते अलका को विपरीत हालातों को कुशलतापूर्वक संभालना भी आ गया था। उसे पता थी कि आग की लपटें देर तक ऊंची नहीं उठेंगी और नन्हीं चिंगारियों से उसे अब डर नहीं लगता था। तो वो चुपके से नीलम के पास पहुंची, जिसके बारे में हम पहलेे जान चुके हैं। नीलम ने साइकिल सिखाने से तो माना कर दिया, पर हर सुबह साइकिल देने का वादा किया साढ़े छः बजे तक लौटाने की शर्त पर।
एक शाम माहौल खुशनुमा देख अलका ने साइकिल सीखने की बात कुछ विस्तार से चाय के साथ फिर से परोसी। फिर से मैदान-ए-जंग में बम्ब फटा। उसने अब नीलम का उदाहरण दिया। तब जवाब आया कि गांव की बेटियों को जो जचता है, गांव की बहुओं को शोभा नहीं देता।
चाय पर बहस इससे आगे नहीं बढ़ी। पर गांव की इस बहु को तो अब किसी भी हाल में अपनी कठनाईयों को आसान करना था। तो पत्नी ने कुछ रात पतिदेव से किनारा कर लिया। मझधार में खड़ी अगिनत औरतों के लिए शरीर अक्सर एक नाव बन जाता है, जिसके सहारे वो कुछ एक तूफां कभी-कभार गुज़ार देती हैं। हमारी अलका ने भी गुज़ारा और उसे पति से साइकिल सीखने की और सबेरे-सबेरे गुड्डी को दूध पिलाने की गारंटी मिली। सास-ससुर की नाराज़गी पहले की तरह उसे नहीं दुखाती थी और उसके दृढ़-निश्चय को पहले से ही बुजुर्ग ज़िद और घमण्ड जैसे उपाधि दे चुके थे।
अलका धीरे-धीरे आँखों के सामने पतंग से पंछी बन रही थी। उसे उसकी छोटी सी उड़ान की रंग और महक भा गए थे। पैरों को पहिए और पहियों को हौंसला मिलने वाला था।
पिछली चार रात उसकी, आधी कटी है पति के सहयोग का ब्याज चुकाते, और बाकी आधी, भोर की राह तकते। सुबह वाले काम निपटा कर, नीलम से साइकिल उठा के, वो रोज़ भागी है घर के पिछवाड़े वाली धुंदली सी झुरमुट में।
गांव की बहू को साड़ी संभालते हुए, नीलम की साइकिल में उठते-बैठते-गिरते, पसीने से तरबतर होते, फिर भी पैडल चलाते हुए गावँ वालों ने शायद देखा भी हो। पर वो नज़रें, वो चर्चाएं यूँ ही धूल सी फिसल जाती हैं अब अलका की साड़ी की सिलवटों से।
आज भी पसीना पोंछते हुई भाग रही है देखो अलका। सुबह खिल रही है, उस के व्यस्त कदमों के पास फूल बन कर। साइकिल पर सवार उसकी ज़िन्दगी अब संतुलित होने को है।
मूलचित्र : Unsplash
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