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बांझपन के लिए केवल औरत ही दोषी है ?

इस समाज में बांझपन के लिए क्या अकेली औरत ही दोषी है? साथ ही साथ यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्या औरत ही औरत की दुश्मन हो सकती है?

इस समाज में बांझपन के लिए क्या अकेली औरत ही दोषी है? साथ ही साथ यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्या औरत ही औरत की दुश्मन हो सकती है?

संगीता आज घर पर ही थी, रविवार का अवकाश जो था। पति और बच्चों को नाश्ता करा कर बस वह खाने की तैयारी कर ही रही थी कि उसकी सहेली सुधा का फोन आ गया। वह बोली कि दोपहर को एक मीटिंग रखी थी महिलाओं की, और उसमें संगीता ज़रूर आए। फिर क्या, संगीता जल्दी से अपने काम पूरे करके पहूंच गई मीटिंग में।

सुधा एक प्राईवेट स्कूल में शिक्षिका थी, साथ ही साथ समाज सेविका का कार्य भी कुशलता-पूर्वक कर रही थी। संगीता और मीटिंग से संबंधित सभी महिलाएँ शीघ्र ही उपस्थित हो गईं। संगीता सुधा के घर जल्दी पहुंच गयी थी, तो सुधा ने उसके साथ कुछ विचार-विमर्श किया और मीटिंग की कार्यवाही शुरू की।

सुधा ने सभी महिलाओं को संबोधित करते हुए बताया कि आज की मीटिंग कोई ऐसी मीटिंग नहीं है, कि जिसके लिए किसी को कोई कार्य करना है अपितु केवल सोचना है, क्यूंकि आजकल के बदलते तकनीकी  स्वरूप में महिलाओं के अधिकार और अस्तित्व के बारे में सोचने की आवश्यकता है।

सुधा ने बताया कि कुछ दिन पहले हमारी कॉलोनी में प्रतिमा नाम की एक महिला रहने आई। वह एक विश्वविद्यालय में उच्च स्तरीय प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थी। कालोनी में उसके आते ही सब लोग अजीब-अजीब सी बातें और उसपर छींटाकशी करने लगे। मुझसे रहा नहीं गया और मैं पहुँच गई उस महिला प्रोफेसर के घर। बहुत ही सरल और शांत थी बेचारी।

वह मुझसे कहने लगी, “मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता है दीदी, बाहर के लोग कुछ भी कहें। फर्क तो तब पड़ा मुझ पर, जब मेरे अपने पति ने मुझे बाँझ बोलकर तलाक़ दे दिया। और, ना ही कोई चिकित्सकीय परीक्षण कराया और ना ही किसी से कोई परामर्श। बस अपने घर वालों की पुरानी सोच के चलते, बिना सोचे समझे फैसला ले लिया।”

प्रतिमा और अमित दोनों ही प्रोफेसर थे। अच्छी ख़ासी ज़िंदगी चल रही थी।  बस कमी खलती थी, तो बच्चे की। पांच साल हो गए थे उनकी शादी हुए। काफी प्रयास किए पर सफलता प्राप्त नहीं हो रही थी। चूंकि आजकल सभी अस्पतालों में कुछ उपयोगी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं, जिसके माध्यम से, किस कारण बच्चा नहीं हो रहा, यह ज्ञात हो सके, इसलिए प्रतिमा के कहने पर अमित अपनी जांच कराने हेतु राज़ी भी हो गये थे।

लेकिन इतने में अमित की माँ और बहन मंजु आ गईं। वे अमित से कहने लगीं, “जांच-वांच कुछ नहीं कराना। तू तो इस कलमुंही को छोड़ दे। खराबी इसी में होगी। तू तो बेटा दूसरी शादी कर ले। तेरे लिए हमने लड़की भी देख रखी है। मंजु की चचेरी बहन है माया, वह भी पढ़ी-लिखी है, उससे शादी कर ले, कम से कम मैं मरने से पहले, तेरे बच्चे का मुंह देखना चाहती हूं।”

इतना बताते हुए वह सिसक रही थी और बोली, “दीदी, वह माँ और बहन के कथन से सहमत हो गए और मुझे तलाक दे दिया और उन्होंने माया के साथ दूसरी शादी कर ली। फिर मैं क्या करती दीदी? मैं यहां रहने आ गई। और लोग क्या कहेंगे इसका मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। नौकरी तो करनी है ना दीदी और मेरी जिंदगी भी मुझे हँस के जिंदादिली से बितानी  है।”

प्रतिमा का उस समाज सेविका सुधा से एक अहम प्रश्र यह था कि ‘इस समाज में बांझपन के लिए क्या अकेली औरत ही दोषी है? साथ ही साथ यह भी सोचा जाना चाहिए कि औरत ही औरत की दुश्मन क्यों होती है? वह उसके विकास हेतु सहायता नहीं कर सकती?’

सुधा ने मीटिंग में प्रतिमा ने जो प्रश्र किया, वही सभी महिलाओं के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा, “आप समस्त महिलाएँ भी इसके बारे में सोचिए। किसी और के साथ ऐसा समय ना आए, इसीलिए इस समूह की महिलाओं को एकत्रित होकर ही समस्या का समाधान निकालने की आवश्यकता है।”

मेरी कहानी कैसी लगी आपको, बताइएगा ज़रूर।

मूलचित्र : Pexels 

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