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अगर समाज में बलात्कार को, 'बदला लेना', 'सज़ा देना' या सेक्स को विकृत रूप में देखने की प्रवृति है, तो ये बलात्कारी संस्कृति है।
अगर समाज में बलात्कार को, ‘बदला लेना’, ‘सज़ा देना’ या सेक्स को विकृत रूप में देखने की प्रवृति है, तो ये बलात्कारी संस्कृति है।
ऐसी संस्कृति जहाँ लैंगिक समानता अथवा ‘जेंडर इक्वालिटी’ कम है और एक श्रेणीबद्धता बनी हुई है, जहां लैंगिक हिंसा आम और लगभग स्वीकार्य है, जो मर्दों के लैंगिक मतभेद वाले व्यवहार को स्वीकार करती है, वो एक बलात्कारी संस्कृति है, अंग्रेजी के चिंतक इसे ‘रेप कल्चर’ कहते हैं।
एक पितृसत्तामक समाज में ऐसी अनेक मान्यताएँ और प्रथाएँ प्रचलित होती हैं, जो लैंगिक मतभेद को बढ़ावा देती हैं।
महिलाओं के साथ की गई हिंसा को अक्सर इस धरना से सही ठहराया जाता है कि उन्हें समाज में ‘अपनी जगह मालूम होनी चाहिए’, इसलिए, उन पर हुए भावात्मक, शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक, हर प्रकार के शोषण को ऐसे ही सही ठहराया जाता है। जिन्हें इस सामाजिक ढांचे में थोड़ा भी विशेषाधिकार प्राप्त है, उन्हें इस हिंसा में अक्सर कुछ भी गलत दिखाई नहीं देता।
ऐसी कोई भी संस्कृति, जहाँ इन सब बातों को सामान्य माना जाए, वो रेप कल्चर या बलात्कारी संस्कृति का हिस्सा है। ऐसा समाज अक्सर बलात्कारियों को माफ़ी देने के हिमायती होता है और पीड़ित को ही दोष देता है। ऐसे में, अक्सर जो भी क्रोध या विरोध का प्रदर्शन होता है, वो प्रतीकात्मक ही रह जाता है तथा ज़मीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं आता।
बलात्कारी संस्कृति के अनेक उदाहरण हमें अपने आसपास ही निजी, पारिवारिक तथा संगठनात्मक रूप में मिल जायेंगे। हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी लैंगिक मतभेद से कितने ही अप्रत्यक्ष तरीकों से व्याप्त है।
अगर समाज में बलात्कार को, ‘बदला लेना’, ‘नीचा दिखाना’, ‘सज़ा देना’ या सेक्स को विकृत रूप में देखने की प्रवृति है, और अक्सर लैंगिक हिंसा को मीडिया और लोकप्रिय साहित्य और कला माध्यमों, जैसे कि फिल्में और टीवी प्रोग्राम में भी स्वीकृति प्राप्त है, तो ये निश्चित ही रेप कल्चर है।
ऐसा समाज अक्सर महिलाओं के अधिकारों, निजता और सुरक्षा को नज़र अंदाज़ करता है। ऐसे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक माहौल में बलात्कार को महिलाओं और हाशिये पर रह रहे पुरुषों और समुदायों को डराने और दबा कर रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
यहाँ तक कि छोटे बच्चों तक के बलात्कार के मामलों में बलात्कारी को नहीं बल्कि पीड़ित को दोष दिया जाता है। लड़की ने क्या पहना था, वो कहाँ थी, उसकी सामाजिक आर्थिक स्तिथि क्या है, इन सब बेकार की बातों पर बहस की जाती है लेकिन बलात्कारी को दोष नहीं दिया जाता। ‘ऐसी लड़कियों का बलात्कार होता ही है’, ‘इसने ही मर्दों को भड़काया होगा’, ‘ये वहां से भागी क्यों नहीं’, ‘चिल्लाई नहीं?’, ऐसी अनेक प्रतिक्रियाएँ दी जाती हैं।
जब भी कोई पीड़ित अपने लैंगिक हिंसा के अनुभव को सार्वजनिक करे, जैसा की #मी टू आंदोलन के दौरान हुआ, तो रेप कल्चर में उन दावों को झुठलाए जाने और कम महत्वपूर्ण या सामान्य बताये जाने की कोशिश की जाती है। ‘लड़के/ मर्द तो ऐसे ही होते हैं’, ‘ओहो! ये सिर्फ मज़ाक था’, ‘कुछ तो व्यंग्य समझो’ जैसे जुमलों का प्रयोग किया जाता है।
पिछले कुछ सालों में खासकर व्हाट्सप्प जैसे माध्यमों के लोकप्रिय होने के बाद सेक्स सम्बन्धी चुटकलों का प्रचलन बहुत बढ़ गया है, ख़ास कर ऐसे चुटकुले और मज़ाक, जिन में सेक्स और हिंसा सम्बंधित मज़ाक को नियमित सा बना दिया है। ऐसा ही एक उदाहरण है टीवी पर आने वाले कॉमेडी शो, जिन में समलैंगिकों, महिलाओं या अन्यलिंगियों का मज़ाक बनाना आम चलन है।
जब समाज में लैंगिक शोषण सामान्य बात हो तो इसे केवल अपराध मन जाने लगता है, सामान्य अपराध। किसी ने कहा है – औरतों को अगर कोई प्रताड़ित कर रहा हो तो ‘बचाओ’ की जगह वो ‘आग-आग’ चिल्लाएं तो शायद कोई मदद के लिए आ जाए, क्यूंकि लैंगिक अपराध से बचाने कोई नहीं आता।
स्त्रीद्वेषी संस्कृति में अक्सर महिअलों द्वारा जिए गए अनुभव को झुठलाने के लिए मर्दवादी, मात्र प्रतिवाद या फिर नारीवादियों और वीमेन राइटस एक्टिविस्ट्स को नीचा दिखाने के लिए झूठे केसों का बढ़-चढ़ कर बखान करते हैं, जिससे कि ये मान्यता स्तापित हो सके कि लैंगिक शोषण या बालात्कार के मामलों में महिलाएं ज़्यादातर झूठ बोलती हैं।
आज के युग में मीडिया का जनता पर भरपूर प्रभाव रहता है, इससे न केवल उनके विचार बल्कि रोज़मर्रा का व्यवहार तक प्रभावित हो सकता है। हाल ही में आई फिल्म कबीर सिंह जैसी फिल्मों में जब एक हीरो को यौनिक हिंसा करते हुए दिखाया जाता है, तो ये, ख़ास कर युवाओं पर, अलग ही प्रभाव छोड़ती है और वे ऐसे बर्ताव को सही मानने लगते हैं।
अक्सर लड़कों को ये सिखाकर बड़ा किया जाता है कि ‘लड़के, लड़कियों जैसे नहीं रोते’, लेकिन दूसरों को रुलाने में कोई बुराई नहीं। उनके द्वारा पेड़-पौधों, जानवरों, दूसरे बच्चों पर की जाने वाली हिंसा को अक्सर घर-परिवार सहयोग और बढ़ावा देते हैं। स्कूल, समुदाय, समाज सब लड़कों को सिखाते हैं – ‘मर्द बनो’ जिसका मतलब यही होता है कि मर्दों को न भावनायें रखनी चाहिए न ही समझनी और इसके चलते लड़कों पर मर्दानगी साबित करने का भरपूर दबाव रहता है।
महिलायें अक्सर पराश्रित और आज्ञाकारी इसलिए होती हैं क्यूंकि उन्हें बचपन से ही चुप्पी सिखाई जाती है। अपने शरीर को छिपाना सिखाया जाता है और उनकी अपनी विचारधारा को विकसित नहीं होने दिया जाता। उनके अधिकतर महत्तवपूर्ण फैसले दूसरों द्वारा लिए जाते हैं और उनके जीवन का सर्वोच्च ध्येय मातृत्व को बना दिया जाता है। माँ होने का भारत में इतना महिमामंडन हो जाता कि औरतें इंसान भी हैं सब ये भूल जाते हैं।
ये मान्यता कि यौनिक हिंसा केवल लड़कियों और औरतों के साथ हो सकती है, या जिन पुरुषों के साथ होती है उनके पुरुषत्व में कुछ कमी है, भी रेप कल्चर का हिस्सा है। यदि पुरुष किसी भी प्रकार की भावनाएं, मानसिक कमज़ोरी या भेद्यता दर्शाते हैं तो उन्हें ‘स्त्रेण’ कहना, ‘चूड़ियाँ पहन लो’, गाली की तरह कहना भी रेप कल्चर का हिस्सा है।
ऐसी संस्कृति में महिलाओं पर अनेक नैतिक दबाव बनाये जाते हैं और उन्हें ये कहा जाता है कि खुद को यौनिक हिंसा से बचाना उनकी ज़िम्मेदारी है। इसके चलते उनके रहन-सहन पर भी अनेक प्रतिबन्ध लगाए जाते हैं। जबकि, लड़कों और मर्दों को हिंसा न करना नहीं सिखाया जाता बस ये सिखाया जाता है कि सिर्फ ‘अपनी औरतों’ को बचाएँ।
पितृसत्ता में पुरुषों को अधिक महत्व दिया जाता है। पुरुष परिवार और समुदाय की ताक़त और महिलाएं कमज़ोरी मानी जाती हैं। क्यूंकि महिलाएं ऐसे माहौल में असुरक्षित होती हैं, तो वे अक्सर दूसरों पर निर्भर रहती हैं और उनका दायित्व बन जाती हैं।
मूलचित्र : Still from Darr, YouTube
Pooja Priyamvada is an author, columnist, translator, online content & Social Media consultant, and poet. An awarded bi-lingual blogger she is a trained psychological/mental health first aider, mindfulness & grief facilitator, emotional wellness read more...
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