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घरेलु हिंसा एक सच है, और आश्चर्य यह कि हिंसा करने वाला दोषी तक नहीं समझा जाता और सहने वाला शर्मिंदगी में घुलता चला जाता है।
लिखने का शौक है और साथ ही कभी कभार रंगों से छेड़खानी कर लिया करती हूँ। एक पेंटर दोस्त मिली और उसने ज़िद पकड़ ली, “इस बार महिला सशक्तीकरण का मुद्धा है, और कैनवस तो तुमको भी बनाना पड़ेगा।”
और कोई विषय होता तो शायद इतना उत्साह न होता, पर ये तो दिल के बेहद करीब विषय है।
तो यूँ शुरू हुआ एक के बाद एक कैनवस का सिलसिला। तीन कैनवस पर हमने नारी जीवन के तीन भाव अपने विचारों के साथ उतार दिये। रंगों से सराबोर आजाद पंछी सी हमारी नायिका सबको भायी।
एक तस्वीर का शीर्षक था बेड़ियाँ, अर्थात एक नारी के लिए उसके ज़ेवर, उसकी ख़ुशी है या उसकी बेड़ियाँ, यह बात उसके जीवन से मालूम होती है। तस्वीर में एक नारी के इन दो रुपों को दर्शाया गया था। कहना यह चाहती थी कि साज-सज्जा से नारी मन का, उसकी ख़ुशी का अवलोकन ना करें। इस तस्वीर में दर्द, गुस्सा व कुछ ना कर पाने की बेचैनी साफ दिखायी दे रही थी।
तभी एक भद्र पुरूष आये जो कि बड़े-बड़े सम्मेलनों में बतौर मेहमान व वक्ता के रुप में जाते हैं, वे बड़ी बारीक़ी से तस्वीर देखते हुए बोले, “क्यों दिखाते हैं आप लोग यह सब? माना की चीजें ग़लत हैं किन्तु दिखा कर क्या होगा? पॉजिटिव दिखाया करें आप लोग।”
मन खट्टा हुआ किन्तु ज्यादा कुछ नहीं कहा क्यूँकि वो जगह ऊचित नहीं थी। बस इतना कहा कि “समाज की सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।”
इस पर उन भद्र पुरूष की मुस्कुराहट मुझे भीतर तक कचोट गई क्योंकि उसमें ना सिर्फ उस तस्वीर पर सवाल था किन्तु सवाल ये भी था कि इतने सालों से जो न हुआ तो वो अब क्या होगा?
इतना बड़ा और व्यापक सच जो आँखों के सामने है किन्तु हम देखना नहीं चाहते।
नारी का गला सूना हो, यानि कोई ज़ेवर न हो तो आते-जाते बुज़ूर्ग महिला भी टोक देंगी, “गला सूना नहीं रखते, अशुभ होता है।” किन्तु किसी के चेहरे पर चोट का नील दिखे तो पूछते भी नहीं या उसके ‘बाथरुम में गिर गई’, को सच मान लेते हैं। दिल नहीं मानता लेकिन, हम उस झूठ को सच मान मुस्करा कर रास्ता बदल लेते हैं।
इतना ढका-छुपा सच है ये कि हम सब इसे कल्पना मात्र मान लेते हैं या ये समझते हैं कि ये हमारे बीच नहीं होता। अनपढ़-गँवार, झोंपड़-पट्टी में रहने वाले करते हैं ये सब, किन्तु सच्चाई कुछ और ही है।
घरेलु हिंसा एक कड़वा सच है और शहर में रहने वाली पढ़ी-लिखी नारियाँ और अगर कहूँ कि कुछ हद तक नौकरी-पेशा भी इसका शिकार होती हैं तो गलत नहीं होगा।
और, हिंसा का मतलब सिर्फ शारीरिक चोट नहीं होती, हर वो व्यवहार जो नारी के सम्मान को, उसके स्वाभिमान को और उसके आत्मविश्वास को तोड़े वो हिंसा में ही आता है। शारीरिक चोट सिर्फ शरीर को नहीं आत्मा को भी चोटील करती है। उसके आत्मविश्वास को रौंद कर उसे उस गड्ढे में धकेल देती है, जहां से वापस आना आसान नहीं होता।
ज़ुबान की चोट, क्योंकि दिखती नहीं है, इसलिये वार करना आसान होता है।
“तुमसे कुछ नहीं होगा।”
“किसी लायक नहीं हो।”
“कुछ पढ़ी-लिखी हो या नहीं? इतना सा काम नहीं हुआ?”
“तुम नहीं समझोगी !”
जी हाँ, बड़े मामूली से, आम इस्तेमाल में आने वाले जुमले हैं। किन्तु, इनका असर बहुत गहरा होता है। इन शब्दों को सुनते-सुनते एक पढ़ी लिखी औरत भी अपने आप को कमतर समझने लगती है, और धीरे-धीरे अपने चारों तरफ एक चार-दिवारी बना कैद हो जाती है। और, लोगों को चोट नज़र भी नहीं आती !
कितनी आसानी से हम प्रगति की बात करते हैं, महिला सशक्तिकरण की बात करते है, समान-अधिकार की बात करते हैं, किन्तु इन अनदेखी हिंसा को रिश्ते की ऊँच-नीच मान लेते हैं।
एक सवाल – अगर कभी पुरूष किसी कारणवश घर में हो, नौकरी चली जाये, या व्यापार में घाटा हो जाये और तब अगर नारी के मुँह से ये शब्द निकलें तो क्या तब भी ये महज रिश्ते की ऊँच नीच होगी?
बात कड़वी है पर ध्यान देने योग्य है।
अब इस सच की तरफ से आँख बन्द करने से काम नहीं चलेगा, अपितु इसको उजागर करना होगा और साथ ही इसे खत्म करने की ओर ध्यान देना होगा।
घरेलु हिंसा एक सच है, और आश्चर्य यह कि हिंसा करने वाला दोषी तक नहीं समझा जाता और सहने वाला शर्मिन्दगी में घुलता चला जाता है।
अजब है ना औरत के खिलाफ होने वाले हादसों में औरत ही दोषी बन जाती है?
क्या ये ज़रुरी नहीं कि चुपचाप पाँव पसारे हुए इस दोष को खत्म किया जाये?
चोट शारीरिक हो या मानसिक, इसकी शिकायत करने का हौसला देना ज़रुरी है। साथ ही, यह मानसिकता भी ज़रुरी है कि नारी की ख़ुशी को, उसकी साज-सज्जा से नहीं, उसकी आज़ादी और अपने जीवन पर उसके अपने अधिकार से नापा जाये।
मूलचित्र : Pixabay
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