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अभी तीन माह ही हुए हैं शादी को। अगर तुम हर छोटी बात को तूल दोगी तो ऐसा न हो कि तुम्हारा जो डर है, वो सच्चाई बन जाए।
मंदिर से वापस आ कर शारदा अपने कमरे में गई और बहू रीमा किचन में नाश्ते की तैयारी करने चली गई। शारदा का प्रसाद देने के समय मुंह फूला देख कर ही अनिल जी समझ गए कि आज फिर नई नवेली बहू की आफ़त आने वाली है। बेचारी कितनी कोशिश कर रही है सास का मन जीतने का, पर कुछ न कुछ गड़बड़ी हो ही जाती।
किचन में झाँक कर देखा तो रीमा सामान्य रूप से अपना काम कर रही थी, उसे तो पता भी नहीं था कि सासू-माँ की वक्रदृष्टि उसके किये हुए हर काम और उसकी कही हर बात पर रहती है, और फिर उसको तोड़-मरोड़ कर वो रीमा को ग़लत साबित कर देती। रीमा का कसूर बस इतना था कि वो प्रेम करने के बाद विवाह-बंधन में बंधी थी यानी की प्रेम-विवाह किया था, जिसमें सासू-माँ की मर्ज़ी नहीं थी, पर बेटे की ज़िद के आगे हाँ कर दी थी।
शारदा जी को पहले दिन से यकीन था कि एक दिन रीमा उसके बेटे के साथ अलग घर बसा लेगी और उनको बेटे से अलग कर देगी। अनिल जी अपनी तरफ से बहू का साथ देने की भरसक कोशिश करते रहते, सो अपने कमरे में गये माजरा पता करने।
शारदा तो प्रतीक्षा ही कर रही थी अनिलजी की, बस शुरू हो गई बहू पुराण लेकर, “सुनो मुझे तो पहले दिन से पता था कि रीमा को हर चीज़ अलग ही पसन्द है। आज मंदिर में अष्टमी की पूजा करने के लिए जब मैं प्रसाद और नारियल ले रही थी, तो वो बोली, ‘माँ मैं भी ले लूँ?’ अब सबके सामने पूछ रही थी तो मैं क्या बोलती, पर उसे सोचना चाहिए कि मैं घर की बड़ी हूँ, तो उसको अलग से नहीं लेना चाहिए, पर उसे तो अपने मन की ही करनी है।”
“पर शारदा उसने तुमसे पूछा था न? तो तुम मना कर देतीं। अब उसका मन किया होगा तो ले लिया। तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि बहू को पूजा-पाठ में विश्वास है, वरना आजकल के बच्चे तो मंदिर जाने के नाम से बिदक जाते हैं।”
“तुमने बोला तो रीमा गई न तुम्हारे साथ? अगर अपनी बेटी से कहतीं, तो वो साफ मना कर देती। रीमा से तुम या तो खुल कर बताओ कि तुम क्या चाहती हो, वरना उसे कौन बताएगा हमारे घर के नियम-कानून?”
“परसों जब उसका छोटा भाई आया, तब भी तुमने उसे नहीं बताया कि तुम उसके लिए उपहार लाई हो, तो उसने भी रमन से मंगवा लिया। अब उसे क्या पता कि उसको अपने मायके में कुछ देना हो तो उसमें भी बवाल हो जायेगा। अगर तुम बहू से सलाह कर लेतीं कि उसके भाई को क्या देना चाहिए, तो उसे कितनी ख़ुशी होती और वो अलग से भी नही मंगाती।”
“अभी तीन माह ही हुए हैं उनकी शादी को। उसे तो दुनियादारी की समझ भी नहीं है। अगर तुम हर छोटी बात को तूल दोगी तो ऐसा न हो कि तुम्हारा जो डर है, वो सच्चाई बन जाए। तुमने अपने मन में उसके लिए नकारात्मक छवि बना रखी है, इसलिए तुम उसकी अच्छाई नहीं देख पा रही हो।”
“हमेशा वो तुम्हारी इच्छा का मान रखती है, तुमसे पूछती है, मन से तुम्हारी सेवा करती है। लेकिन हर बार तुम उसको आड़ा-टेढ़ा जवाब देती हो। अभी वो नई है, गीली मिट्टी के जैसी। तुम चाहो तो उसको अपने सांचे में ढाल सकती हो। अगर मिट्टी सूख गई, यानि कि उसको लगने लगा कि पूछने से कोई फ़ायदा नहीं, तो फिर वो अपनी मर्ज़ी से निर्णय लेने को स्वतंत्र है। अब तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि इस गीली मिट्टी को कैसा स्वरूप देना है।”
“अभी तुम जिस बात को पकड़ कर बैठी हो, उसको तो आभास भी नहीं है, क्योंकि उसने पूछा था तुमसे और तुमने मना नहीं किया था। आओ, बाहर आ कर सबके साथ नाश्ता करो। रीमा ने गर्म-गर्म पोहा और कचौरी बनाई है।”
शारदा को शायद कुछ समझ आया। वह धीरे से उठी और किचन में गई और रीमा को समझाने लगी कि कचौरी के साथ इमली की चटनी सबको बहुत पसंद है, “तुम नाश्ता लगाओ, मैं जल्दी से चटनी बना देती हूँ। फिर सब साथ में बैठ कर नाश्ता करेंगे।”
आज अपनी पत्नी और माँ दोनों को मिल-जुल कर काम करते देख रमन आश्चर्यचकित था और खुश भी। उसने इशारे से अनिल जी को पूछा तो वो भी मुस्करा दिए।
डाइनिंग टेबल पर सब साथ बैठे बात कर रहे थे। अनिल जी को बहुत समय के बाद रमन के चेहरे पर शान्ति दिखाई दी, अपनी पत्नी रीमा को परिवार का हिस्सा बनते देख कर।
मूलचित्र : Unsplash
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