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भारत छोड़ो आंदोलन में समाज के हर छोर से ऐसी ही औरतें शामिल हुईं जिन्होंने अपने साहस, नेतृत्व और त्याग से भारत में नारीवाद का एक नया इतिहास लिखा।
1850 के दशक से पूरे भारतीय उपमहादेश में राष्ट्रवादी अवधारणा का उत्थान हो रहा था। ब्रिटिश अत्याचार और स्वेच्छाचारी कानूनों के खिलाफ बन रही संगठन और प्रदर्शनों में समाज के ऊंचे वर्ग की कुछ शिक्षित महिला भी अपने परिवार के पुरुषों के साथ भाग ले रही थीं। 1910 तक के आंदोलनों में उनकी प्राथमिक भूमिका कभी देशभक्त साहित्यिक तो कभी पुरुष क्रांतिकारियों के सहायिका के तौर पर ही सीमित थी, पर स्वतंत्रता संग्राम में औरतों का प्रत्यक्ष योगदान समय के साथ प्रसारित होने लगा था। 1910 के दशक से महात्मा गांधी द्वारा संगठित असहयोग आंदोलन(1920-1922), सविनय अवज्ञा आंदोलन(1930-1934) ,भारत छोड़ो आंदोलन (1942-1943), विभिन्न जनजातीय आंदोलन और वामपंथी मजदूर और किसान आंदोलन महिलाओं की वीरता और बलिदान के अनगिनत दलीलें पेश करते हैं।
पर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, जो अगस्त क्रांति की नाम से भी प्रख्यात है, औरतों के योगदान के मापदण्ड से भारतीय स्वाधीनता संग्राम का सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन रहा है। 8 अगस्त, 1942 को देर रात अंग्रेज़ी हुकूमत के द्वारा लगभग सभी शीर्षस्थ नेताओं की गिरफ्तारी के बाद, 9 अगस्त की सुबह से हज़ारों की संख्या में महिलाओं ने पुरुषों के साथ संगठित तरीके से पूरे देश में अहिंसात्मक सत्याग्रह और प्रबल क्रांति की लहरों को ना ही सिर्फ प्रबलतर किया बल्की आम जनता का सफल नेतृत्व भी किया।
देश के सभी प्रांतों की तरह उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी अगस्त आंदोलन अपने चरम पर था और इसने यहाँ की आम महिलाओं को एक अभूतपूर्व जागृति और राजनैतिक गतिशीलता प्रदान की। उन्होंने विदेशी सरकार का हर मानसिक व शारीरिक पीड़न सह कर भी, अपने निश्चय में अविचल रह कर, मातृभूमि के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए।
अगस्त क्रांति के पूण्य अवसर पर तीन महान असमिया महिला क्रांतिकारी की निर्भीक और प्रेरणात्मक जीवन को पाठकों के समक्ष लाना ही मेरे इस लेख का उद्देश्य है।
पुष्पलता दास असम की एक स्वतंत्रता संग्रामी थीं। उनका जन्म असम के उत्तरी लखीमपुर ज़िले में 27 मार्च, 1915 को एक साधारण परिवार में हुआ। पान बाज़ार गर्ल्स हाई स्कूल में पढ़ते हुए ही उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का निश्चय किया और अपने सहपाठियों के संग मिल कर मुक्ति संघ नाम के एक संगठन की स्थापना की। 1931 में भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के खिलाफ मुक्ति संघ ने ज़िले में एक विशाल रैली आयोजित की, जिसके चलते पुष्पलता को स्कूल से निलंबित किया गया। फिर भी उन्होंने पढ़ाई रोकी नहीं और 1938 तक अपनी मास्टर्स डिग्री हासिल की। 1940 में गुवाहाटी में लॉ पढ़ते समय उन्होंने गांधी जी की प्रेरणा में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया और गिरफ्तार कर ली गयीं।
पुष्पलता, असम में महिला कांग्रेस की संयोजक और नैशनल प्लैनिंग कमिटी के महिला उप समिति की सदस्य थीं। जेल से निकल कर वो बम्बई चली गईं और दो साल तक वहाँ विजय लक्ष्मी पंडित, और अमिय कुमार दास जैसे प्रमुख नेताओं के साथ काम किया।
अमिय दास के साथ विवाह के पश्चात वे दोनों असम लौट आये और अगस्त क्रांति को संगठित करने में खुद को समर्पित कर दिया। पुष्पलता ने सबसे निर्भीक महिला क्रान्तिकारीयों को एकत्रित कर शांति वाहिनी और मृत्यु वाहिनी नाम के दो दल बनाये, जिनको दूरदराज़ के गांव में आंदोलन चालित करने का दायित्व मिला।
असम में अगस्त क्रांति सहित आखरी चरण के जन-आंदोलनों को सफल करने में पुष्पलता दास की स्मरणीय भूमिका थी।
1947 के बाद से ले कर 09 नवम्बर1975 में अपनी मृत्यु तक, पुष्पलता दास असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में जनसेवा और महिला अधिकार आंदोलनों के साथ निरंतर प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी रहीं।
‘बीरबाला’ कनकलता बरुआ भारत छोड़ो आंदोलन में शहीद होने वाली असम की सबसे कम उम्र की क्रांतिकारी थीं।
उनका जन्म गोहपुर थाने के बरंगबाड़ी गांव में 22 दिसंबर 1924 को हुआ। 5 साल की उम्र में उनकी माँ का देहांत हुआ। पिता भी 13 साल की उम्र में ही चल बसे। कनकलता तृतीय कक्षा के बाद स्कूल न जा सकीं क्योंकि उन पर अपने भाई-बहन और घर को संभालने की पूरी जिम्मेदारी आ पड़ी थी। कनकलता के दुःखद शैशव के अनुभव ने उन्हें एक जागरूक और संवेदनशील किशोरी में बदल दिया था। बचपन से ही वो स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेना चाहती थीं। उन्होंने आज़ाद हिंद फौज में प्रवेश करने की कोशिश की, पर कम उम्र की वजह से उन्हें फौज में दाखिला नहीं मिला। कनकलता ने हार नहीं मानी और क्रांतिकारी पुष्पलता दास द्वारा संगठित महिला आत्मघाती दल मृत्यु वाहिनी में शामिल हुईं। अपने जज़्बे और योग्यता से वो जल्द ही वाहिनी की एक विश्वसनीय बनी गयीं।
देश की सभी हिस्सों की तरह गोहपुर इलाके में भी सदियों से ब्रिटिश का निष्ठुर पीड़न चल रहा था।अगस्त क्रांति के दौरान सारे प्रमुख नेताओं के गिरफ्तारी के बाद वहाँ युवा और महिलाओं के नेतृत्व में भूमिगत आंदोलन चल रहा था। इसी समय भारतीय कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ता और सत्याग्रही किशोर कोंवर को पुलिस ने फ़र्ज़ी मामलों में मृत्युदंड दिया।
इस घटना के विरोध में ज्योतिप्रसाद अगरवाला के नेतृत्व में गोहपुर थाने का घेराव चल रहा था। क्रांतिकारियों ने कनकलता और मुकुंद काकती के नेतृत्व में 20 सितम्बर थाने पर लगी ब्रिटिश झंडे को उतार कर तिरंगा लहराने का कार्यक्रम लिया। इस जोखिम के बारे में कनकलता निःसन्देह थीं। दोपहर अपने छोटे भाई-बहनों को खिलाने के बाद वो उनसे गले मिलीं और अपने महान लक्ष्य और कार्य के बारे में सचेत करते हुए सदा के लिए विदा ले आयीं।
शाम को सशत्र पुलिस की चेतावनी की उपेक्षा कर, तिरंगा हाथों में लिए कनकलता की अगुवाई में मृत्यु वाहिनी के महिलाएँ और जनता थाने की ओर बढ़ रहे थे, तब ही इंस्पेक्टर रेवती मोहन सोम ने स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलाई। मृत्यु से पहले तक कनकलता ने अपनी ध्वज को धूमिल न होने दिया और उसे सहयोद्धा मुकुंदा काकती को अर्पण किया। काकती भी कुछ देर बाद शहीद हो गईं।कनकलता बरुआ और मुकुंद काकती की शहादत व्यर्थ नहीं हुई क्योंकि गोलियों का सामना करते हुए उस रात बाकी क्रांतिकारी थाने पर तिरंगा ध्वज लहराने में समर्थ हुए थे।
वरिष्ठ शहीद भोगेश्वरी फूकोननी अगस्त क्रांति का एक अनोखा व्यक्तिव थीं।
उनका जन्म 1885 में असम के नगांव ज़िले में हुआ। बचपन में भोगेश्वर फुकन के साथ उनकी शादी हो जाने की कारण से उन्हें पढ़ने-लिखने की आज़ादी नहीं मिली। दो लड़की और छह लड़कों की माँ भोगेश्वरी ने अपनी तमाम घरेलू ज़िम्मेदारियों के वावजूद असहयोग आंदोलन के समय से इलाके में आयोजित हर अंग्रेज़ विरोधी प्रदर्शन में अहिंसक सत्याग्रही के रूप में भाग लिया। पूरे नगांव ज़िले में भारतीय कांग्रेस के कार्यालय खोलने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
अगस्त क्रांति और गांधी जी के करो या मरो के नारे ने उनको देश-सेवा का एक सुनहरा अवसर प्रदान किया। उन्होंने अपने बच्चों को भी आंदोलन में शामिल किया था। भोगेश्वरी नगांव के बेरहमपुर, बाबाजिया, बरपूजिया इलाकों में सक्रिय थीं और वहाँ की अनगिनत औरतों को क्रांति के आंगन में ले आयी थीं।
नगांव में प्रबल आंदोलन के चलते ब्रिटिश शासकों ने बेरहमपुर में स्थित भारतीय कांग्रेस कार्यालय को बंद कर दिया था। पर जनता ने अंग्रेज़ो के साथ लड़ कर कार्यालय को छीन लिया, जिसे 18 या 20 सितंबर, 1942 को दोबारा खोलने की कोशिश की जा रही थी। इस बार कार्यालय को तोड़ने के लिए अंग्रेजों ने सशस्त्र सेना भेजी, जिनके आते ही कांग्रेस कार्यालय के बचाव में हज़ारों की तादात में लोग भोगेश्वरी और रत्नमाला नाम की एक और क्रांतिकारी के नेतृत्व में हाथों में तिरंगा और होंठो पर वंदे मातरम की ध्वनि के साथ सेना और पुलिस का सामना किया।
भोगेश्वरी के आखरी पलों के दो अलग प्रत्यक्ष-दर्शी विवरण मौजूद हैं। एक में, जब ‘फिंच’ नाम के एक पुलिस अधिकारी ने रत्नमाला से तिरंगा छीनने के लिए बदतमीज़ी की, तब भोगेश्वरी ने अपने ध्वज के डंडे से फिंच को आहत किया। बदले में फिंच ने गोली चला कर भोगेश्वरी को बुरे तरीके से ज़ख्मी कर दिया। दूसरे के अनुसार, कांग्रेस कार्यालय ध्वस्त करने में विफल पुलिस को अपने बेटों और सहयोद्धाओं पर बंदूक उठाते हुए देख भोगेश्वरी ने ‘फिंच’ नामक अधिकारी को जब अपने ध्वजा-स्तम्भ से मारा, तब क्रोधित फिंच ने भोगेश्वरी सहित निहत्थी भीड़ पर गोली बरसाई।
घायल भोगेश्वरी फुकननी ने उसी शाम या 20 तारीख को अस्पताल में अपना प्राण त्याग दिए और अमर हो गयीं।
सामाजिक रूढ़ीवाद और अपने पारंपरिक दिनचर्या में सिमटी-थकी पुष्पलता, कनकलता या फिर भोगेश्वरी जैसी हज़ारों महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम ने एक ओर, एक सर्वभौम सामर्थ्यवान भारत का सपना दिखाया तो दूसरी ओर उनके लिए घर की चार दीवारी के बाहर एक अनंत संभावना का आकाश रचा। भारत छोड़ो आंदोलन में समाज के हर छोर से ऐसी ही औरतें शामिल हुईं जिन्होंने अपने साहस, नेतृत्व और त्याग से भारत में नारीवाद का एक नया इतिहास लिखा।
मूलचित्र : YouTube
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