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बचपन की ऐसी सखी की याद जो सिखा गई ज़िंदगी जीने का जज़्बा

मेरी यादों के बसेरे में एक बात अवश्‍य ही जुड़ गई दोस्‍तों, ज़िंदगी जीने का नाम है, मुर्दादिल क्‍या ख़ाक जिया करते हैं।

मेरी यादों के बसेरे में एक बात अवश्‍य ही जुड़ गई दोस्‍तों, ज़िंदगी जीने का नाम है, मुर्दादिल क्‍या ख़ाक जिया करते हैं।

जी हाँ दोस्‍तों, फिर हाजिर हूँ एक नये ब्‍लॉग के साथ, जिसमें बचपन की ऐसी याद का ज़िक्र कर रही हूँ, जिसने मेरे जीने का अंदाज़ ही बदल दिया।

बचपन के छींटों की फुहारों के साथ हम अपनी पूरी जिंदगी बिता देते हैं, और तनहाई में यही यादें सहारा बन हमदर्द बन जाती हैं हमारी।

हम लोग बचपन में सब एक ही ब्‍लॉक में रहते थे, बिल्‍कूल एक परिवार की तरह और छोटे बच्‍चों को तो पड़ोसी लगते ही नहीं थे, ऐसा लगता मानो घर के सदस्‍य ही हैं। आज भी इस चीज़ का मन में अहसास है मुझे और आजकल इसी का अभाव भी देखा जा रहा है। प्राय: देखा जा रहा है कि रिश्‍तेदार ही अब अपने ना रहे, फिर पड़ोसी तो, खैर…

अभी भी वहॉं रहने वाली सखियां मिलती हैं, तो हम अपने बचपन को बहुत याद करते हुए सोचते हैं कि काश वह वापिस आ जाए।

इन्‍हीं सब बचपन की वादियों को याद करते-करते अक्‍सर याद आ जाते हैं, ऐसे लोग जो भले ही बहुत कम समय के लिये ही मिले हो, लेकिन उनकी आत्‍मीयता दिल पर ऐसी गहन छाप छोड़ती है कि हम उनको भुलाए नहीं भूल सकते।

मैं कक्षा छठवीं में पढ़ रही थी, तब वह चंचल खुश-मिजाज़ लड़की हमारी कॉलोनी में नयी-नयी आई, नाम था उसका सुषमा। अपने चाचा-चाची के यहां पढ़ने आई थी वो, मूलताई की रहने वाली, माता-पिता उसके वहीं रहते थे। उन्‍होंने सोचा, शहर जाएगी सुषमा अच्‍छा पढ़-लिख जाएगी। उसके चाचाजी एम.पी.ई.बी. में कनिष्‍ठ अभियंता के पद पर कार्यरत थे, पर मिलनसार इतने कि पूछो मत। जी हॉं आजकल तो हम इसका अभाव महसूस करते हैं। बचपन की वो मसखरी भरी शरारतें बस हमारी यादों में समाकर रह गयी हैं। ऐसे ही कुछ अलग ही स्‍वभाव की थी, सुषमा और मुझे लगा ही नहीं था कि पहली मुलाकात में ही हम लोग इतने घुल-मिल जाएँगे।

मैं रोज़ाना की ही तरह स्‍कूल जाने की तैयारी कर रही थी कि वह चहल कदमी करते हुए आयी, और जी हां दोस्‍तों, वो आती थी न, तो पूरे ब्‍लॉक में तहलका मच जाता, हँसती, खिल-खिलाती, छुई-मुई बन आई मेरे घर।

सुषमा मॉं से तपाक से बोली, ‘आंटी जी मेरी टिफिन भी साथ ही में पैक कर देना।’

मुझे भी तभी मालूम चला कि मेरे ही स्‍कूल में उसे प्रवेश मिला है।मोहल्‍ले में किसी से जान-पहचान नहीं थी उसकी ज़्यादा और उनके गांव में ऐसा माहौल था नहीं, सो एक ही स्‍कूल में होने के कारण, मुझसे दोस्‍ती बढ़ाना चाहती थी। बहुत दिनों बाद उसे कोई बराबरी का साथी जो मिला था।

फिर क्‍या था दोस्‍तों, शुरू हो चला दोस्‍ती का कारवां, रोज़ाना साथ स्‍कूल जाना, साथ में पढ़ाई करना, घूमने जाना, खेलने जाना इत्‍यादि। और ऐसी दोस्‍ती हो गई दोस्‍तों कि एक दिन मिले बगैर रह नहीं पाते।

एक दिन हमारे भोपाल में हो रही थी, झमाझम बारिश और ऐसी बारिश कि आज हम वैसी बारिश को तरस रहे हैं। जी हाँ दोस्तों, बारिश के मौसम का कुछ अंदाज ही निराला होता है, और ऐसे में जब अपेक्षा से ज़्यादा बारिश हो जाती थी, तो भदभदा के सारे गेट खुल जाते, और उस सौंदर्यपूर्ण नज़ारे को देखने का आकर्षण ही  अलग था।

पहले के जमाने में इतने संसाधन उपलब्‍ध नहीं थे और पापाजी की अकेले की कमाई में ही गुज़ारा होता घर का, साथ ही हम दो बहनों की पढ़ाई-लिखाई भी। पापा चलाते थे केवल साईकल, और हम ऐसे झमाझम बारिश में बाहर जाने का सोच भी नहीं सकते थे।

इतने में सुषमा दौड़ी-दौड़ी आई और मां से कहने लगी, ‘आंटी जी आप सब लोग चलो न मेरे साथ।’

अब हम लोग एकदम से हक्‍के-बक्‍के रह गए कि इतनी बारिश में कहॉं बोल रही है, चलने को? फिर वह बोली, ‘अरे भाई इतना सोचने की ज़रुरत नहीं है, मेरे चाचाजी के विद्युत ऑफीस की गाड़ी आई है और हम भदभदा का नजारा देखने चलेंगे।’

जी हॉं, सोचने तक को समय भी ना दिया उसने और हम सब चल दिये। बाहरी मौसम का नज़ारा साथ-साथ भदभदा का नज़ारा। कैसा लगे साथियों कि आपने कोई योजना नहीं बनाई हो और आपका खास दोस्‍त आपके मन की बात जानता हो, वह एकदम से आकर कहे कि मौसम का लुत्‍फ उठाना है, तो दिन ही बन जाता है।

फिर उस दिन मस्‍त नज़ारों का आनंद उठाया हम सबने, साथ ही साथ उसके चाचा-चाची से पहचान भी बढ़ी। माँ मेरी हमेशा की ही तरह भोजन की चिंता करने लगी। इतने में सुषमा बोली, ‘अरे आंटीजी, अपन बाहर घूमने आए हैं, तो यह सब फिक्र नहीं करने का, क्‍या?’

मौज-मस्‍ती करने का साथ में, उस दिन हम सबने मिलकर एक रेस्‍टॉरेंट में खाना खाया और ऐसे सरप्राईज़  खाना साथ में खाने का मज़ा ही कुछ और है दोस्‍तों।

और तो और, उस सरप्राईज़ खाने के साथ ही साथ सरप्राईज़ गिफ्ट भी, वह गिफ्ट जानकर आप हैरान ज़रूर होंगे। उस समय हम भी हो गए थे। मन ही मन मैं सोचा कि क्‍या लड़की है सुषमा, माता-पिता के बिना भी चाचा-चाची के साथ ही एकदम खुश। ख्‍यालों में खोई हुई थी मैं कि वह बोली, ‘हम सब नाटिका देखने जा रहे हैं।’

मां ने कहा, ‘अरे ऐसे कैसे जा सकते हैं हम लोग, पहले से कुछ मालूम नहीं।’

तपाक से बोली सुषमा, ‘सभी लोग सुन लो रे! एम.पी.ई.बी. (विद्युत) को 25 वर्ष पूर्ण होने की खुशी में कुछ कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, और चाचाजी को पास मिले हैं, तो हमने सोचा क्‍यों न यह खुशी का अवसर आपके साथ बिताया जाय।’

पलछिन-पलछिन समय हो चला था, नाटिका का नाम था ‘संय्या भये कोतवाल’ और उसमें मुख्‍य रूप से अभिनय कर रहे थे, महान गायक, फिल्‍म कलाकार एवं स्‍टेज संचालक श्री रघुवीर यादव जी। उनके इस नाटक को देखकर महान अभिनय की मेरे अंतःकरण तक छाप पड़ी।

श्री रघुवीर यादव जी जबलपुर-मध्‍यप्रदेश के निवासी हैं, जिन्‍होंने राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय से डिग्री प्राप्त कर ख्‍याति हासिल की है और मुंगेरीलाल के हसीन सपने में भी भूमिका निभाई। फिल्‍म लगान, मेस्‍सी साहब, वाटर, सलाम मुबंई आदि में भी इन्होने अभिनय किया है। इनका एक गाना जो काफी प्रसिद्ध हुआ, वह है, ‘महंगाई डायन खाये जात है’। वे प्रथम भारतीय नायक हैं, जिन्‍हें सिल्‍वर पिकॉक बेस्‍ट एक्‍टर अवार्ड मिला। इस महान कलाकर को सदा ही हमारा नमन है।

आप लोग सोच रहे होंगे शायद, यह सब मैं आपको क्‍यों बता रही हूँ। जी हॉं दोस्‍तों, सुषमा जैसे दोस्‍त मिलते हैं और मिलते रहेंगे और मालूम है, वह ज़्यादा दिन रही नहीं अपने चाचा के पास, पर एक सबक ज़रूर सिखा गई कि जिंदगी में जहां भी रहो खुश होकर जीयो, हर तरफ फूलों सी खुशियॉं बिखेरो और जिस समय जो मौका जिंदगी आपको दे रही है, उस मौके का लुत्‍फ उठाओ, उसको हाथ से जाने मत दो।

मेरी यादों के बसेरे में एक बात अवश्‍य ही जुड़ गई दोस्‍तों, जिंदगी जीने का नाम है, मुर्दादिल क्‍या ख़ाक जिया करते हैं। जी हॉं दोस्‍तों हर हाल में जीने की आदत डालनी चाहिए।

और रघुवीर यादव जी का ज़िक्र मैंने इसलिये किया कि उस दिन से हम उन्‍हें जानने लगे। उस दिन न ही सुषमा आती और न ही हम उनको जान पाते और तब से उनसे ही प्रेरित होकर कवि सम्‍मेलन, नाटक मंचन देखने हम लोग जाने लगे। ज़िन्दगी जीने के लिये कुछ न कुछ शौक तो होना ही चाहिए, यह सबक सिखा गई हमें सुषमा।

उस दिन के बाद मेरा जीवन जीने का नज़रिया ही बदल गया और पढ़ाई-लिखाई के साथ ही साथ कविताएं, कहानियां, नाटक वगैरह में रूचि जागृत हो गई।

और हॉं साथियों, ज़िंदगी में कभी भी कोई बात जो आपके मन को प्रभावित करती है, वह यादों के रूप में समायी रहती है, जिनके सहारे हम ज़िंदगी की तमाम कठिनाईयों को सफलतापूर्वक पार कर जाते हैं। सुषमा ने इतने कम समय में मेरे दिल में वो जगह बनाई, जिसे मैं आज भी तहे दिल से याद करती हूं। गर दिल में जज़्बा हो कुछ कर गुज़रने का तो आप देखिएगा, हम क्‍या से क्‍या कर सकते हैं, बस हौसला रखिए और आगे बढ़िए। और आज उन्‍हीं यादों को पाठकों मैने आपके साथ शेयर किया है।

अपनी आख्‍या के माध्‍यम से बताईएगा ज़रूर। मुझे आपकी आख्‍या का इंतजार रहेगा।

मूलचित्र : Pixabay 

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