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चंदर! हाँ, यही नाम तो बताया था उसने।

चंदर आपके दिए खाने की भीख या दया को मेहनत की कमाई में बदल रहा है। उसके सम्मान की दौड़ में मेरे जूते उसे जीत दिलाएंगे। आप उसे ये जूते दे दो।

चंदर आपके दिए खाने की भीख या दया को मेहनत की कमाई में बदल रहा है। उसके सम्मान की दौड़ में मेरे जूते उसे जीत दिलाएंगे। आप उसे ये जूते दे दो।

चंदर! हाँ यही नाम बताया था उसने।

अपने पिता के साथ निर्माणाधीन मकान में काम करने आया था। मैले-कुचैले कपड़े पहने, घमोरी से भरा शरीर लिये, मेरे गेट के पास ही खेलता रहा। कुछ देर बाद वह मुझे कुछ काम देने के लिए कहने लगा। छोटा होने के कारण मैंने उसे कोई काम नही दिया और अन्दर काम करने चली गई। मेरे पास इतवार को वैसे भी सैंकड़ों काम होते हैं। पर मुझे कुछ झाड़ने की आवाज आ रही थी।

नाश्ते में पकौड़े बनाये थे, सो लंच हल्का ही बना रही थी। मैने चंदर के लिये खाना निकाला और उसे देने बाहर आई तो देखा वह कड़ी धूप मे नंगे पांव मेरा आँगन झाड़ रहा था। मैने पूछा, ‘क्या हुआ? क्यों कर रहे हो ये! और तुम्हारी चप्पल कहाँ हैं?’

पैरों को दिखाते हुए उसने कहा, ‘चप्पल नहीं है आँटी।’

‘ओह!’ मैंने पूछा, ‘चप्पल कहाँ गई?’

उसने कहा, ‘बापू लेकर नहीं देता।’

‘तूने सुबह से कुछ खाया?’

उसने ना में सिर हिला दिया। मैंने उसे खाने को भोजन दिया, वह बिना कुछ बोले जल्दी-जल्दी खाने लगा जैसे कई दिनों से भूखा हो। पानी पी कर वह वापस नई उर्जा से आँगन झाड़ने लगा। मैंने उसे काम करने को मना किया, पर वह नहीं माना। मासूमियत से निवेदन करते हुए कहने लगा, ‘अगर बिना काम किये खाया, तो यह तो भीख हुई ना? मैं मज़दूर का बेटा हूँ, भिखारी का नहीं।’

उसकी खुद्दारी देखकर मैं भाव-विभोर हो गई। मैंने उसे छाँव में खड़ा किया और अन्दर जाकर चप्पल ढूंढने लगी।मुझे वहाँ अपने बेटे के पुराने जूते मिले और मिली कुछ यादें, जब स्पोर्ट्स में प्रथम आया था मेरा बेेटा और सारा श्रेय इन जूतों को दिया था। और, साथ ही हिदायत भी दी कि ये जूते छोटे भी हो जाएँ तो भी किसी को ना दें।

मैंने जूते नीचे रख दिए। पैरों में पहनी चप्पल निकालकर हाथ में ली और इन्हे ही चंदर को देने के लिये मुड़ी तो, पीछे मेरा बेटा खड़ा था। बोला, ‘माँ, भूल गयीं क्या आप? मैंने कहा था कि ये जूते केवल जीतने वाले पहन सकते हैं। चंदर आपके दिए खाने की भीख या दया को मेहनत की कमाई में बदल रहा है। उसके सम्मान की दौड़ में मेरे जूते उसे जीत दिलाएंगे। आप उसे ये जूते दे दो।’

इन जूतों को सुपात्र मिल गया था और मुझे अच्छी परवरिश के कारण सपूत। और, इस तरह अब मैं भी कुशल माँ बनने की इस जंग में जीत गई थी और सारा श्रेय मैंने भी इन पुराने जूतों को दिया।

चंदर पुराने जूते भी मुफ्त में लेने को तैयार नहीं हुआ, सो मैंने उसे बगीचे में पौधे सींचने का काम दे दिया और वादा लिया कि वह जब जब यहाँ आए मुझसे मिलने ज़रूर आये। आख़िर मुझे मेरी जीत का अहसास इसी खुद्दार चंदर ने जो कराया।

मेरे बेटे ने कहा, ‘इन पुराने जूतों के नसीब में जाने और कितनी जीत लिखी हैं! है ना माँ!’

मूलचित्र : Pixabay

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