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चिता की लकड़ी अब भी मायके से आएगी क्या? अब तो छोड़ें ऐसे रिवाज़ों को।

सरकार ने नारा तो दे दिया है बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, पर जब तक हम बेटियों के माँ-बाप के बोझ को हल्का नहीं होने देंगे, तब तक यह नारा चरितार्थ नहीं हो पाएगा। 

सरकार ने नारा तो दे दिया है बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, पर जब तक हम बेटियों के माँ-बाप के बोझ को हल्का नहीं होने देंगे, तब तक यह नारा चरितार्थ नहीं हो पाएगा। 

रमा के ससुर के निधन पर जब उसकी माँ ने उसे पाँच हज़ार रुपये देते हुए कहा, “ये रख लो, तुम्हारे ससुर के क्रिया-कर्म में जो खाना होगा उसके पैसे। और दामाद जी से कहना बाकी और जितना खर्च हो बता दें, हम दे देंगे।”

“माँ, पर आप क्यों दे रही हैं?”

“रमा, बेटा ये रिवाज़ है, हमें ही देना होता है।” रमा की माँ उसे समझाते हुए बोली।

“पर माँ पहले ही आप पर और भाई पर इतनी जिम्मेदारियां हैं। यह सब रिवाज़ आप क्यों निभा रही हैं। मैं नहीं मानती ऐसे रिवाज़ों को। मैं और रमेश दोनों कमाते हैं। हम दोनों जब माँ-बाप को जीते जी सब दे सकते हैं, तो उनके मरने पर क्या हम उनका क्रिया-कर्म नहीं कर सकते? माँ मैं ये पैसे नहीं ले सकती। सारी उमर आपने हमारे लिए इतना कुछ किया पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया, इतना काबिल बनाया कि आज हम अपने पैरों पर खड़े हैं। और तो और, शादी के बाद भी, कभी त्यौहार के नाम पर, तो कभी बच्चों के जन्म पर और जन्म दिवस पर भी आप इतना कुछ देते हैं।”

उन दोनों की बातें सुनते हुए रमा की बुआ-सास चिल्लाने लगी, “यह देखो आजकल की आई हुई लड़की। न इसे संस्कार है, ना कोई भी रिवाज़ निभाने की समझ। यह तो अपने कमाने के घमंड में चूर है। पता नहीं भाई के जाने के बाद, मेरी भाभी का यह क्या हाल करेगी। जो मायके का वालों का कर्तव्य है, वो तो उनको देना ही है।”

“शादी के बाद भी, कभी त्यौहार के नाम पर, तो कभी बच्चों के जन्म पर और कभी हमारे जन्म दिवस पर,आप इतना कुछ देते हैं।”

औरतों में बातें होने लगी और फैलते-फैलते मर्दों के कानों में भी जा पड़ी। रमेश को पहले तो कुछ समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है फिर उसने माँ से पूछा तो माँ के बोलने से पहले ही बुआ बोल पड़ी, “यह देख बेटा। यह कल की आई लड़की पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ने पर लगी है। अपनी माँ से तुम्हारे पिता के क्रिया कर्म का पैसा लेने से मना कर रही है। तुमने इसे बहुत सिर चढ़ा रखा है। मुझे तो अब तुम्हारी माँ की फिक्र हो रही है कि भाई को मौत के बाद मेरी भाभी का क्या होगा।”

बात समझ आते ही रमेश ने अपनी बुआ से कहा, ” बुआ, रमा को मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ। हमारी शादी को दस साल हो गए हैं और इन दस सालों में उसने मम्मी-पापा का मेरे से भी ज़्यादा ध्यान रखा है। तो आप इस बात की फिक्र छोड़ दो कि मम्मी का क्या होगा। और रही बात पापा के क्रिया कर्म के खर्चे की, तो बुआ, मम्मी-पापा ने मुझे इतना सक्षम बनाया है कि मैं अपने माँ-बाप के लिए इतना तो कर ही सकता हूँ। उसके लिए मुझे अपने ससुराल से मदद की ज़रुरत नहीं है।”

“बुआ अब वो ज़माना नहीं रहा जब यह सब रिवाज़ माने जाते थे। आज से मैं अपने घर में इन रिवाज़ों को तोड़ता हूँ। पर हाँ, कल को मेरी बहन के ससुराल में ज़रुरत पड़ी तो मैं उनकी मदद करूँगा। बेटी के ससुराल में चाहे खुशी हो या गम, उसके माँ-बाप पर इतना बोझ क्यों डालना।”

तभी रमेश के ताऊ बोले, ” रमेश तुम सही कह रहे हो। मैंने भी देखा है जब तुम्हारी ताई की मृत्यु होने वाली थी, तो उनकी आंखों में भी यही चिंता थी कि उनकी चिता की लकड़ी कहाँ से आएगी। क्योंकि उनके माँ-बाप, भाई-भाभी की मौत पहले ही हो गई थी और बच्चे विदेश में थे। और आजकल के बच्चे कहाँ इतने रीति-रिवाज़ों को जानते हैं। तब मैंने ही बच्चों के नाम से उसे आश्वस्त कर दिया कि उनका फोन आया था और वह तुम्हारे संस्कार का इंतजाम अपनी तरफ से कह रहे हैं। तब जाकर तुम्हारी ताई ने अंतिम सांस ली क्योंकि वह तो पुराने रीति-रिवाज़ों को बहुत ज़्यादा मानती थी। लेकिन मैं नहीं मानता हूँ।”

“अब वो ज़माना नहीं रहा जब यह सब रिवाज़ माने जाते थे। आज से मैं अपने घर में इन रिवाज़ों को तोड़ता हूँ।”

“पुराने समय में सब रिवाज़ हमारे पुरखों के द्वारा सोच समझ कर बनाए गए थे। उस समय संयुक्त परिवार होते थे और दामाद पर ज़्यादा बोझ ना पड़े, शायद इसलिए इस तरह से रिवाज़ बनाए गए जिससे उनकी मदद हो जाए। पर आज वह समय नहीं रहा इसीलिए समय के साथ साथ हमें पुराने रीति-रिवाज़ों को भी बदलना पड़ेगा, तभी हम आगे बढ़ पाएँगे।”

“रमेश मैं तुम्हारे साथ हूँ और मैं आज अपने लिए भी कह रहा हूँ कि मेरी मृत्यु पर मेरा क्रिया-कर्म मेरे दोनों बेटों की अपनी कमाई से होगा, ना कि उनके ससुराल से कुछ लिया जाएगा। अगर मेरे बेटों को यह स्वीकार नहीं है, तो वह मुझे अभी बता दें, तो मैं पहले ही अपने क्रिया-कर्म  के लिए राशि रख कर जाऊँगा।” यह सब सुनकर उनके बेटों ने ताऊ जी के चरण स्पर्श कर अपनी सहमति कर दी।


रमेश व उसके ताऊ जी के तर्कों से सब तो सहमत नहीं थे पर कुछ लोगों ने सहमति दे दी।

दोस्तों अपने आसपास घटी ऐसी घटनाओं को देखकर मेरे मन में इस विषय पर ब्लॉग लिखने की इच्छा हुई। मुझे नहीं पता कि आपको यह विषय अच्छा लगेगा या नहीं। लेकिन मेरे मन में यह जानने की इच्छा हुई कि क्या इन रिवाज़ों को यूँ ही चलने देना चाहिए या समय के साथ साथ बदल देना चाहिए। आज भी बहुत जगह बेटियों को बोझ समझा जाता है। उनके जन्म से लेकर पालना-पोसना, शादी करना, फिर शादी के बाद त्योहारों के और बच्चों के जन्म व जन्मदिवस पर, फिर बाद में बेटी की मृत्यु पर, या उसके सास-ससुर या पति की मृत्यु पर, मायके वालों को रिवाज़ों के नाम पर बहुत कुछ देना पड़ता है।

सरकार ने नारा तो दे दिया है बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, पर यह नारा तब तक चरितार्थ नहीं हो पाएगा जब तक कि हम बेटियों के माँ-बाप के बोझ को हल्का न कर दें। इसके लिए लड़के व उसके परिवार को समझदारी दिखानी होगी। साथ ही साथ लड़की के माँ-बाप को भी यह समझना पड़ेगा कि लड़कियां बोझ नहीं हैं। वो भी लड़कों की तरह कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। पहले का ज़माना और था पर अब उन्हें अपनी सोच बदलनी होगी।

मैं चाहती हूँ इस विषय पर आप लोग खुलकर अपने विचार प्रकट करें और आपको इस विषय में क्या ज्ञान है? इस तरह की रीति रिवाज़ों को बनाने का क्या कारण रहा होगा? इसके लिए आप अपने घर के बड़े बुज़ुर्गों की राय भी पूछ कर बताइए और क्या हम लोग मिलकर इन रीति-रिवाज़ों को बदल पाएंगे?

कृप्या इस ब्लॉग को ज़्यादा से ज़्यादा शेयर करें ताकि इस विषय पर लोगों की राय पता चले।

मूलचित्र : Pixabay

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