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ये रोटी बनाना नहीं आसां गालिब, बस यूं समझिए आग का दरिया है

पहले प्रयास के अगर मार्क्स मिलते तो मेरे नंबर नेगेटिव में आते। भगवान जी ने कोई ऐसी संरचना और इंसान ने कोई ऐसा नक्शा नहीं बनाया जैसा मेरी रोटी का आकार।

पहले प्रयास के अगर मार्क्स मिलते तो मेरे नंबर नेगेटिव में आते। भगवान जी ने कोई ऐसी संरचना और इंसान ने कोई ऐसा नक्शा नहीं बनाया जैसा मेरी रोटी का आकार।

कल मेरे बेटे ने रोटी बनाई।

जी हाँ! इसमें हैरान होने की बात नहीं है। छठी क्लास में पढ़ने वाले मेरे बेटे की क्लासमेट रिद्धी ने उसे कल ही बताया था कि उसकी माँ उसे रोटी बनाना सीखा रहीं हैं। मेरे बेटे ने शाम को ऐलान किया कि ‘मम्मा, मैं भी रोटी बनाऊंगा।’

मैं दो बेटों की माँ हूँ और दोनों बच्चे घर के कामों में मेरी हमेशा सहायता करते हैं। जब ज़रुरत हो तो हल्का-फुल्का नाश्ता भी बना लेते हैं, लेकिन फिर भी मैं उन्हें गैस के सामने जाने देने से बचती हूँ। ओवन में या टोस्टर में कई तरह के व्यंजन बनाने की कोशिश दोनों भाई मिलकर करते हैं।

तो बेटे के ज़िद के आगे नतमस्तक होते हुए मैंने उसे रोटी बनाने की परमिशन दे दी। आटे की लोई के साथ जद्दोजहद करते आखिर पहली रोटी बनी, पर चकले से उठाते ही रोटी फट गई आधी चकले में चिपकी रही, आधी उसके हाथ में। उसकी रोनी सी सूरत देखकर मुझे हँसी आ गई।  मैंने एक और बार कोशिश करने को तो कह दिया लेकिन मेरा मन पीछे भागने लगा।

कुछ ऐसा ही हुआ था मेरे साथ जब मैं कक्षा नौवीं में थी। दोस्तों से सुनती थी कि सब लड़कियाँ घर में कुछ न कुछ खाना बनाती थीं, जैसे किसी लड़की की रात में रोटी बनाने की ड्यूटी थी, तो किसी को सब्जी बनानी होती थी। कक्षा के लड़कों में से किसी को नहीं सुना था कि वे घर का कोई काम करते हों। मेरा घर के कामों में योगदान सिर्फ चाय बनाने तक सीमित था, वो भी जुम्मा-जुम्मा दो महीने का ही एक्सपिरियंस था। कभी चीनी ज़्यादा हो जाती तो कभी दूध कम।

कक्षा की सहेलियाँ मेरे घर के कामों में अज्ञानी होने के कारण चिढ़ाने का कोई भी अवसर छोड़ती नहीं थी। यहाँ तक की उनसे नंबर ज़्यादा आने तक में मुझे यही ताने सुनने पड़ते कि तुम्हें तो घर का काम नहीं करना पड़ता और नंबर घर वालों के मन मुताबिक न हों, तो भी यह ताना की तुम्हें तो घर का कोई काम नहीं करना पड़ता। उफ़! तंग आ चुकी थी। फिर तो मैं रोटी बनाने में सिद्धहस्ता बनने के ख्वाब संजोने लगी।

मगर ‘ये रोटी बनाना नहीं आसां गालिब

बस यूं समझिए आग का दरिया है

और रोटी फूली हुई और गोल ही बननी चाहिए।’

पहले प्रयास के अगर मार्क्स मिलते तो निसंदेह मेरे नंबर नेगेटिव में आते। भगवान जी ने दुनिया में कोई ऐसी संरचना और इंसानों ने किसी देश का ऐसा नक्शा नहीं बनाया होगा जैसी मैंने रोटी का आकार बनाया था। जो भी हो, मैंने रोते हुए और भाई-बहनों ने हँसते हुए तो माँ और पापा ने गर्व के साथ उन पापड़ जैसी रोटियों को तोड़ते हुए, चबाने का अथक प्रयास करते हुए, दाल में डूबोकर पानी से गटका।

पहला प्रयास और इतना बुरा अंजाम कि शादी से पहले तक मेरी रोटी बनानी की कभी हिम्मत नहीं हुई। कॉलेज के बाद मैं खाना बनाने लगी थी, पर रोटी पर फिर से हाथ लगाने की हिम्मत नहीं हुई। शादी के बाद ससुराल में जब तक रही सारा खाना बनाने के बाद, ननद या सास को रोटी बेलने में लगा देती थी। थोड़े से दिमाग के इस्तेमाल से मेरी पोल खोल नहीं हुई।

मुझ पर गाज तब गिरी जब मैं पहली बार पतिदेव के पास रहने गई। रोटी बनाने के ट्रॉमा ने मेरे रोमांस की चाह के हिस्से-हिस्से कर दिए थे। पहले दो दिन सामान सेट करने के लिए इन्होंने छुट्टी ले रखी थी। वेजिटेबल फ्राइड राइस, तो कभी एग बिरयानी खिलाकर मैंने इनके रोटी खाने की इच्छा को दबाकर रखा। लेकिन ऑफिस के टिफिन में तो रोटी खानी थी। अथक प्रयास और प्रयत्नों, खुद 360 डिग्री के रोटेशन के बावजूद रोटी गोल न बनी। आँखों में आँसू छुपाए मैंने टिफिन दे दिया।

शाम को आने वाले तूफान के इंतजार में ख़ुद को पूरे दिन तैयार करती रही। शाम को ये आए और मैं चाय बनाकर ले आयी। इन्होंने रोटी के बारे में कुछ नहीं कहा। मुझसे रहा नहीं गया।

“मुझसे रोटी गोल नहीं बनती। सॉरी।” आँखों में ढेर सारे आँसू और भर्राए गले से कान पकड़कर मैंने कहा।

“अरे! इसलिए तुम उदास हो। रोटी तो तोड़कर खाई जाती है। उसे कोई एग्ज़ीबिशन में थोड़े ही न रखना हैं। फिर चाहे गोल हो या चौकोर! क्या फर्क पड़ता है?” इन्होंने बड़े आराम से कहा।

कितनी आसानी से ये इस बात को कह गए। बस इनके प्यार में मेरा मिशन गोल रोटी अभियान चल पड़ा। कुछ दिनों के अथक परिश्रम का फल, रोटी की साइज़ और शेप में भी दिखने लगा। जबकि मुझे पता था कि रोटी की सुंदरता भूख पर कोई असर नहीं छोड़ती, फिर भी कुछ सीखने की चाह बुरी तो नहीं होती।

“माँ! देखो ना! आप जैसी नहीं बन रही।”

मेरा ध्यान सौम्य पर गया, वो अभी भी रोटी की मोटाई और गोलाई पर उलझा हुआ था। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “रोटी को किसी एग्ज़ीबिशन में थोड़े ही न रखना है। रोटी तो तोड़कर ही खानी है, फिर चाहे गोल हो या चौकोर! क्या फर्क पड़ता है?”

मेरे बेटे की मुस्कान बता रही थी कि अब वो नहीं डरेगा। अगली बार फिर से कोशिश करेगा।

मूलचित्र : YouTube

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