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आइए बात करें नारी-स्वतंत्रता की। क्या ये कहना उचित होगा कि आज़ादी तो मिली पर देश की अधिकाँश महिलाओं के लिए 'सम्पूर्ण आज़ादी' अभी भी एक अप्राप्य लक्ष्य है?
आइए बात करें नारी-स्वतंत्रता की। क्या ये कहना उचित होगा कि आज़ादी तो मिली पर देश की अधिकाँश महिलाओं के लिए ‘सम्पूर्ण आज़ादी’ अभी भी एक अप्राप्य लक्ष्य है?
अभी कुछ दिन पूर्व 15 अगस्त 2019 को भारत ने अपना 73वां स्वतंत्रता दिवस मनाया। हर साल की तरह, इस बार भी ये दिन पूरे देश भर में हर्ष उल्लास के साथ मनाया गया। लगभग 200 वर्ष से अधिक समय से चल रहे ब्रिटिश उपनिवेशवाद से इसी दिन साल 1947 में हमें आज़ादी मिली।
आज़ादी का उल्लास मनाया तो पूरे देश भर में जाता रहा है पर यदि ग़ौर फरमायें तो ये कहना ग़लत ना होगा कि देश को आज़ादी तब तक दिखावे मात्र को रहेगी जब तक कि पूरी आबादी इसकी बराबर की हक़दार नहीं हो जाती। आप में से बहुत अब ये सोच रहे हैं कि देश की आज़ादी तो सबसे बड़ी आज़ादी है, इसका अब आबादी से क्या लेना देना? ज़्यादा दूर ना जाते हुए, अपने ही घर से शुरू करते हुए, इस बात को समझने की कोशिश करते हैं।
इस स्वतंत्रता दिवस, हमने बात करी नारी-स्वतंत्रता की। विमेंस वेब ने अपने पाठकों के समक्ष दो बेहद ही मामूली से लगने वाले सवाल रखे –
हमने अपने पाठकों से उनके विचार फेसबुक के कमेंट बॉक्स में साझा करने का आवेदन किया। दिलचस्प बात ये है कि हालाँकि ये सवाल देश के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर ही पूछे गए लेकिन मिली प्रतिक्रिया आज़ादी के सार को ज़्यादा नहीं दर्शाती।
आइये जानें नारी-स्वतंत्रता के मायने हमारे कुछ पाठकों के नज़रिये से –
शालिनी ह्यूमन के अपने शब्दों में आज़ादी सही मायनों में तब होगी, ‘जब महिला अपने विचारों को रखने के लिए स्वतन्त्र हो। अपनी ज़िंदगी के ज़रूरी फैसले लेने के बारे में वह क्या सोचती है, इसे प्राथमिकता मिले। वह भी बेटे की तरह अपने माँ-बाप के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठा सके, शादी-शुदा होने के बाद भी, और इसके लिए उसे किसी की अनुमति लेना आवश्यक न हो। वह सुरक्षित हो, अंधेरे अकेले रास्तों पर, भीड़ में और घर में भी।’
वहीं रिमझिम अग्रवाल कहती हैं, ‘मेरे विचार से सच्ची स्वतंत्रता है, सबको बराबर का सम्मान मिलना।’
सुषमा तिवारी जी की नज़र में, ‘नारी स्वतंत्रता, मतलब? अभी भी ये शब्द पढ़ते हुए सोच में आ जाते हैं, अच्छा, हाँ हम अभी भी स्वतंत्र नहीं है। वैसे इस बारे में सबकी अलग परिभाषा हो सकती है, क्योंकि किसी के लिए अर्थिक स्वतंत्रता मायने रखती है, तो किसी को लगता है शिक्षित हो जाने से ये मिल जाएगी। कहीं ये निर्णय लेने की आज़ादी हो सकती है, तो कहीं ये बाहर निकल के काम करने की। पर क्या जो शिक्षित वर्ग है, ज़रूरी नहीं कि उन्हें भी आर्थिक स्वतंत्रता मिले? ‘अरे पति-पिता कमा तो रहे हैं।’ और जो बाहर निकल कर काम कर रही हैं वो? ज़माने से गाँव में स्त्रियों का ही तो काम है, मज़दूरी या फिर खेती-बाड़ी। लेकिन जो बाहर निकल कर काम कर रही हैं तो भी उन्हें हर जगह निर्णय लेने की आज़ादी है क्या? मतलब नारी स्वतंत्रता तभी है, जब आपकी तरह के जो विचार हैं वो बाहरी समाज को मान्य हों।
अपनी-अपनी स्वतंत्रता की एक परिभाषा – जहाँ तक हम ख़ुद को स्वतंत्र महसूस करें। और अपने आसपास के लोगों को समझाने से फायदा नहीं क्यूंकि आपको जवाब मिल सकता है, ‘अरे इतनी तो आज़ादी है? कहीं भी आ जा सकती हो और क्या चाहिए? और कितनी स्वतंत्रता?’ या फिर, ‘अरे पति इतना पैसा ला कर देता है, बाहर जा कर कमाने की आज़ादी का क्या करोगी?’ तुमसे इतना प्यार करते हैं सब कि तुम एक दिन के लिए भी अपने हिसाब से कहीं जा नहीं सकतीं, ‘कैसे रहेंगे सब?’ तो मेरे हिसाब से नारी स्वतंत्रता मतलब उनके विचारों की स्वतंत्रता है, वो तय कर लेंगी अपने हिस्से की आज़ादी उनको कैसी चाहिए।’
शिखा पांडे कहती हैं, ‘मेरी स्वतंत्रता मेरे अंदर ही है और हर इंसान के अंदर होती है, बस ज़रुरत है उस ताले को तोड़ने की जिसने हमारी स्वतंत्रता को बंद करके रखा है।’
जूही श्रीवास्तव कहती हैं, ‘जब मैं हर वो चीज़ कर सकूँ जिसमें मेरी मर्ज़ी हो और उसके लिए मुझे किसी को परमिशन न लेनी पड़े, न पेरेंट्स की न ही पति की। और कई बार मैं ऐसा करती भी हूँ। मैं औरत हूँ, बस इसलिए मुझे हर मोड़ पर किसी की मदद नहीं चाहिए।’
वर्षा शर्मा, ‘नारी स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन किससे? सिर्फ़ पुरषों से? क्यों? क्या हम सब औरतें एक दुसरे को अपने हिसाब से जीने की, बड़े से बड़ा निर्णय लेने की स्वतंत्रता देती हैं? समाज में बहनें एक दूसरों के विचार, फैसले, या कुछ करने की ताकत को शक्ति बनाएं न कि कमज़ोरी। फिर चाहे घर हो या बाहर। आज भी अगर घर में एक बेटी के बाद दूसरी पैदा हो तो, घर के बाकि महिला सदस्यों की सोच सही में उस माँ के साथ होती है क्या? उसक साथ देना है स्वतंत्रता, घर या व्यवसायिक जीवन में एक नारी अगर कोई सही और ठोस निर्णय ले रही है, तो दूसरी नारी सदस्य उसका साथ दे, यह है स्वतंत्रता! आज भी कहीं न कहीं एक नारी, दुसरी नारी पर हो रहे दुःख का, तकलीफ़ों का कारण है, क्यों? मेरी नजर में हम सभी महिलाएं एक दुसरे की सोच का सम्मान करें, आर्थिक स्वतंत्रता का समर्थन करें, सम्मान दें, यही है सही स्वतंत्रता! इस से पहले कि कोई दूसरा हमें किसी भी प्रकार की आज़ादी दे, हमें अपनी संकीर्ण मानसिकता से आज़ादी पानी होगी।’
संगीता मोदी के अनुसार, ‘मैं अपने आप को स्वतंत्र उस दिन मानूँगी, जिस दिन अपने फ़ैसले खुद कर सकूँ। मायके और ससुराल में जिस दिन अंतर खत्म हो जाएगा और दोनों को समान अहमियत मिलने लगेगी।’
खुशबू कुमारी औरस्वाति कनौजिआ भी अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद लेने को ही असल स्वतंत्रता मानती हैं।
कलाश्री कहती हैं, ‘मुझे गर्व हैं की मैं इंडियन हूँ! मेरे लिए स्वतंत्रता का मतलब है, हर इंसान, अपने घर में और बाहर, जो काम करना चाहता है, उसे करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हो। खासतौर से आज के माहौल में, जब औरतों के लिए बुरा वक्त चल रहा है। वो बाहर जाने से भी कतराती हैं, तो उन सब के लिए मैं यही चाहती हूँ कि वे आज़ादी से चैन की सांस ले सकें। अपने सपनों को बिना रोक-टोक के पूरा करने की आज़ादी से साँस ले सकें। घर से बाहर कदम रखें तो बिना किसी डर के। दहशत या घूरती निगाहों से आज़ादी मिल सके। मेरे लिए आज़ादी का मतलब यही है!’
मीनाक्षी शर्मा कहती हैं, ‘नारी की स्वतंत्रता से मतलब यही है कि हम घर में पहले आज़ाद हों। घर में हमें बोलने की आज़ादी, कुछ करने की आज़ादी, स्वभिमान से जीने की आज़ादी हो। कम शब्दों में कहा जाए तो आज़ादी की शुरुआत घर से ही हो।’
हर्षा पालीवाल के शब्दों में, ‘ सबसे पहले मेरे विचारों की स्वतंत्रता, फिर मेरे रहन-सहन, मेरी पढ़ाई, मेरे काम करने, और परिवार में अपनी बात रखने की स्वतंत्रता मुख्य हैं मेरे लिए।’
ये विचार भले ही एक मुठी-भर पाठकों ने व्यक्त किये हैं, परंतु ये कहना बिलकुल ग़लत नहीं होगा कि यहां एक बहुत ही गंभीर निजी एवं सामाजिक मुद्दा हमारे रू-बरू खड़ा है। जहां ज़्यादातर पुरुष ख़ुद को आज़ाद मानते हैं, वहीं दूसरी ओर, ज़्यादातर महिला ख़ुद को रूढ़िवादी और न जाने किन-किन बेड़ियों में जकड़ा महसूस करती हैं। क्या इस से ये मान लेना चाहिए कि आज़ादी देश को तो मिली पर देश की अधिकाँश महिलाओं के लिए ‘सम्पूर्ण आज़ादी’ अभी भी एक अप्राप्य लक्ष्य है।
हमारा मानना है कि जब तक एक आज़ाद देश की तमाम जनता ख़ुद को असुरक्षित और अपनी निजी ज़िंदगी के, छोटे से लेकर बड़ा, हर एक फैसला लेने में खुद को समर्थ और स्वतंत्र नहीं समझती, ऐसी आज़ादी को चाहे एक हज़ार साल हो जाएँ, वो फिर भी अधूरी ही कहलाएगी।
मूलचित्र : Pexels
Editor at Women’s Web, Designer, Counselor & Art Therapy Practitioner. read more...
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