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कहीं गलती से रसोई में कदम पड़ गए, तो सब दोबारा से साफ करना पड़ जायेगा आप दोनों को। इसीलिए नीचे बैठी हूँ ताकि मुझे याद रहे कि इस समय मैं अपवित्र हूँ।
‘दिव्या! बेटा दिव्या जल्दी आना तो। देख तेरी नंद प्रिया आयी है।’ अपनी इकलौती बेटी के मायके आने पर खुशी से झूमती हुए शांति जी बोलीं।
माँ की एक आवाज़ सुनते ही शांति जी की बहू दिव्या दौड़ती हुई आयी और अपनी नंद प्रिया से गले लगकर खुशी-खुशी मिली। दोनों में प्यार ही इतना था ओर होता भी क्यों न एक समय में पक्की सहेलियां जो ठहरीं।
‘आजा मेरी बच्ची। कितने दिनों बाद आई है हमसे मिलने। अब कुछ दिन रहे बिना जाने नही दूँगी तुझे वापिस ससुराल।’ पूरे लाड-प्यार में शांति जी बोलीं। वे दिव्या को गर्म-गर्म चाय-नाश्ता लगाने को कह कर प्रिया को रसोईघर के पास लगे डाइनिंग टेबल की चेयर पर ले जाकर बैठ गई।
जल्दी से दिव्या चाय-नाश्ता तैयार कर ले आयी और डाइनिंग टेबल पर लगाना शुरू ही किया कि अचानक से प्रिया उठी और रसोईघर के पास रखी लकड़ी की चौकी और आसन को ज़मीन पर लगा कर बैठ गई।
‘अरे! अरे! ये क्या कर रही हो? प्रिया उठो वहाँ से। जमीन पर क्यों बैठ गयीं? दिव्या और शांति जी एक साथ प्रिया को गुस्सा करते हुए बोलने लगीं।
प्रिया ने दोनों को चुप कराया और कहने लगी, ‘अरे माँ, महीना आया हुआ है। यूँ ऊपर बैठ कर खाऊँगी तो हर जगह अपवित्र हो जाएगी। और कहीं गलती से रसोई में कदम पड़ गए, तो सब दोबारा से साफ करना पड़ जायेगा आप दोनों को। इसीलिए नीचे बैठी हूँ ताकि मुझे याद रहे कि इस समय मैं अपवित्र हूँ।’
प्रिया की यह सब बातें सुनकर शांति जी तपाक से बोल पड़ीं, ‘हाय राम! मेरी बच्ची एक तो इतने दिनों बाद घर आई, ऊपर से ज़मीन पर बैठ कर खाना खाएगी? हरगिज़ नहीं। ये सब अपने ससुराल में करना, यह तेरा मायका है। ज़माना इतना बदल गया है। अब यह बातें कौन मानता है? वैसे भी महीना ही तो आया हुआ है, तो क्या हुआ? ये तो हम सब औरतों की समस्या है। इसका मतलब यह तो नहीं कि वह अपवित्र हो गयी और ऐसे समय में ज़मीन पर बैठने से तो और ठंड चढ़ेगी व दर्द होगा। बस तू ज़मीन पर नहीं बैठेगी। मेरी बिटियां रानी!’ यह सब कहते हुए शांति जी ने एक मिनट ना लगाया ज़मीन पर बैठी प्रिया को हाथ पकड़ कर उठाकर चेयर पर बिठाने में।
माँ की सारी बातें सुनकर प्रिया हँस पड़ी और बोली, ‘माँ, दिव्या भाभी भी तो किसी की बिटिया रानी है, और आप तो कहती हैं कि आपके लिए जैसी मैं, वैसी ही वो! तो पिछली बार जब मैं आयी हुई थी और दिव्या भाभी को महीना आया हुआ था, तब आपने भी तो उन्हें एक थाली में खाना देकर इसी लकड़ी की चौकी पर बिठाया था, वो भी यह कहकर कि अगर ग़लती से किसी चीज़ को हाथ लग गया, तो सब अपवित्र हो जाएगा। और तो और, तब तो था भी दिसंबर की कड़ाकेदार ठंड का महीना।’
प्रिया की यह बातें सुनकर शांति जी ने चुपचाप सी खड़ी दिव्या की तरफ पश्चाताप भरी निग़ाहों से देखा और खड़ी होकर ज़मीन पर पड़ी लकड़ी की चौकी उठायी व कूड़ेदान के पास रख दी और खुशी-खुशी बैठ गयीं डाइनिंग टेबल पर अपनी दोनों बेटियों के साथ गर्मा-गर्म चाय-नाश्ता करते हुए गप-शप मारने।
मूलचित्र : Pixabay
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