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कभी आओ बैठो इन सरगोशियों में, बातें ढेर सारी करनी हैं तुमसे, छोड़ आओ अपना ये फ़हम कहीं दूर, कि अब कुछ पल तुम्हारा साथ ये दिल पाना चाहता है।
कभी-कभी तुम्हारी ये समझदारी
मुझे अन्दर तक कचोट जाती है
तुम्हारा मुझे खुद से समझदार साबित कर जाना
मुझे भीतर कहीं छलनी कर जाता है।
जो तुम यूँ ही मेरी किसी परेशानी को
अपनी टेढ़ी मुस्कान में उछाल
उसे वापस मेरी ही तरफ फेंक देते हो
“कभी संभालो मुझे”, मन यूँ कुछ चीख जाता है।
नादानियों के किस्से मैं कब के पीछे छोड़ आई हूँ
लेकिन वो बनावटी लड़कपन तुम्हारा ध्यान खींचने चला आता है
आता है मुझे मेरी शिकायतें सुनना
पर कभी तुम मुझे गलत साबित करो यूँ ख्याल मन में आ जाता है।
हर लम्हा रफ़ीक की तलाश में ये दिल
एक बारीक नपा-तुला हमनवा पा जाता है
और फिर ये अल्हड़ नादाँ मस्ताना
रवाना वहीं अपने पुराने ठिकाने पर हो जाता है।
कभी आओ बैठो इन सरगोशियों में
बातें ढेर सारी करनी हैं तुमसे
छोड़ आओ अपना ये फ़हम कहीं दूर
कि अब कुछ पल तुम्हारा साथ ये दिल पाना चाहता है।
कुछ देर के लिए ही सही
बंदिशों से खुद को आज़ाद करके तो देखो
देखो कैसे कागज़ की इन कश्तियों में भी
ज़िंदगी का बेहतरीन सफ़र काटा जाता है।
मूलचित्र : Pixabay
Now a days ..Vihaan's Mum...Wanderer at heart,extremely unstable in thoughts,readholic; which has cure only in blogs and books...my pen have words about parenting,women empowerment and wellness..love to delve read more...
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