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है रंग बदलती ज़िंदगी – जो सबके लिये हो सही, ऐसे फैसले लेने में क्या बुराई?

आज पता चला कि किसी भी बात को गम्भीर ना लेने वाली ताई जी, अंदर ही अंदर कितनी परिपक्व हैं। ताई जी का एक नया रूप देखने को मिल रहा था।

आज पता चला कि किसी भी बात को गम्भीर ना लेने वाली ताई जी, अंदर ही अंदर कितनी परिपक्व हैं। ताई जी का एक नया रूप देखने को मिल रहा था।

आज कुम्मी की माँ का फोन आया, ‘जल्दी घर आ जा, घर आकर बताऊँगी क्या हुआ? तेरी ही सुनेगी जीजी।’ और फोन रख दिया।

ऐसा भी क्या हुआ होगा? सोच कर दिल उछलने लगा। जल्दी काम समेटा। बच्चों की कल से सर्दियों की छुट्टियाँ भी हो रही थीं।

‘अच्छा सुनो विभोर, घर से फोन आया है। माँ परेशान हैं, घरवाले भी’, कुम्मी ने परेशानी भरी आवाज़ में कहा।

‘क्या हुआ सब ठीक तो है?’

‘पता नहीं! माँ कह रही थीं सुरेखा ताई जी की बात है।’

‘अच्छा हो आओ। कल से बच्चों की भी छुट्टियाँ हैं। छः घंटे का रास्ता है ट्रेन से।’

कुम्मी ने भी हाँ कर दी। कुम्मी सब काम जल्दी से करके बच्चों के साथ निकल गयी। ट्रेन भी समय पर थी। बच्चे तो खुब-खुश थे। ट्रेन में खेलने लगे और कुमी सोच में ड़ुब गयी।

संयुक्त परिवार है उसका घर और जिसे वो उस घर में सबसे ज़्यादा प्यार करती है, वो है सुरेखा ताई जी, चुलबुली ताई जी। उसका बचपन उन्हीं की गोद में बीता। उनके एक बेटा था पर कुमि को कभी ये नहीं लगा कि वो तहेरा भाई है।

बड़ा परिवार है तो कुछ ना कुछ बुरा-भला लगता ही है। माँ को तो कुछ बुरा लगता तो उनका मुँह फूल जाता गुस्से से। फिर ताई जी के समझाने से ही माँ समझतीं।

शादियों में उनका हँसी मजाक ना हो, तो शादी में मज़ा ही नहीं आता। जब रात को संगीत होता तो पहले ही हमें समझा देतीं, ‘देखो कुमी और साहिल जब संगीत होगा, तब सब मुझे कहेंगे नाचने को, पर मैं दो-तीन बार मना करूगीं। पर, तुम दोनों मेरा हाथ पकड़ कर खींच लेना कि करना ही होगा। एकदम करूगीं तो सब कहेगें की बेशर्म है, मना भी ना किया, खड़ी हो गयी नाचने उनकी बड़ी बहु।’ और हम उन्हें खुब खींचते, और वो मस्त हो कर नाचतीं। बहुत अच्छा नाचती थीं।

सब कहते परिवार की रौनक है सुरेखा। बच्चों के साथ पाँव-टिप्पा, पकड़म-पकड़ाई खेलतीं। हँसती रहतीं। घर के कामों में माहिर, नये-नये पकवान बनातीं। सब खुश हो जाते। तभी बच्चों का ध्यान आया। पूरी-आलू दिये और  दोनों खुशी से खाने लगे। फिर ताईजी के ख्याल में खो गयी।

अगर बुआ कहीं बाहर खड़ी होतीं तो आसपास की औरतें लाचारी भरे प्रश्नों की छड़ियाँ लगा डालतीं, ‘आगे कैसे बिताओगी समय?’

मैं बड़ी हुई तो पूछ भी लेती, ‘ताई जी, माँ की तरह बुरा नहीं लगा इस बात का?’

तो कहतीं,  ‘अरे! क्या बुरा मानना, अपने ही तो हैं। यहाँ बुरा मान कर अपना ही मन खराब होगा। और मेरे चेहरे पर झुरियाँ भी हो जायेंगी।’ गुस्से से और हँस देतीं।

कभी ताऊ जी नाराज़ हो जाते उनके बचपने से, ‘क्या बचपना लगा रखा है? क्या ज़रुरत थी वहाँ बच्चों के साथ खेलने की? तो हँस कर कहतीं, ‘दिल तो बच्चा है जी!’ और कमरे में चली जातीं।

मैं पूछती, ‘बुरा नहीं लगा ताऊ जी का?’ तो कहतीं, ‘हट पगली। इनका क्या बुरा मानना। पल में तोला, पल में माशा। पति -पत्नी कभी भी ज़्यादा समय तक नाराज़ नहीं रह सकते। बोलना ही है, तो पहले ही क्यों ना बोल लें। अहम का कोई हिस्सा नहीं पति-पत्नी में।’

सकारात्मकता से भरी हैं मेरी ताई जी। कभी दादी सुना देतीं, ‘एक बच्चे की माँ है, पर खुद बच्ची बनी रहती है।’ तो हँस कर कहतीं,  ‘क्या माँजी मैं कभी बुढी़ नहीं होने वाली। ऐसे ही रहुँगी आपकी बच्ची बनकर।’ दादी बड़बड़ाती रह जातीं, फिर हँस देतीं, ‘ये सच में बच्ची ही रहेगी।’

कभी कोई फरमाइश कर देतीं कि जलेबी ही खानी है। पिता जी को कहतीं, ‘देवर जी ले आओ, बड़ा मन है गर्म-गर्म जलेबी का।’ सबसे अपनी बात मनवा कर छोड़तीं। दादी कहतीं, ‘अब मानेगी थोड़े ही। जा ले आ, नहीं तो खुद ही बनाने लग जायेगी।’

ताई जी के आसपास ही हम सब बच्चे घुमते। कभी नये-नये पकवान के लिये, कभी कहानियाँ सुनने के लिये, कभी स्कुल में कोई गाने या देशभक्ति का कुछ करना होता। जल्दी माँ के साथ खाना बनाकर, हमें सिखाने लगतीं।

मेहमानों के आने पर पूरी-कचौड़ी, सब्जी माँ के साथ बनातीं। और उससे पहले रात को ही बेसन का लेप मुँह पर लगा लेतीं। माँ को भी कहतीं, पर माँ को ये सब नहीं पसंद था। पिता जी माँ को हमेशा कहते, ‘भाभी को देखो, कितना बन-संवर के रहती हैं, बड़ी भी हैं तुमसे।’ तो माँ कहतीं, ‘हाँ हाँ भाभी को शौक हैं ये सब। मुझसे ये सब नहीं होगा। घंटो मुँह पर लगा कर सुखाते रहो।’ और सब खुब हँसते।

कभी नहीं सुधरेगी। मेरी शादी में सबसे ज़्यादा वो ही रोई थीं। माँ से भी ज़्यादा। पर आज क्या हुआ होगा?
ट्रेन रूकी और बच्चे ज़ोर-ज़ोर से कहने लगे, नानी का घर आ गया। सामान उतारा और देखा तो साहिल भैय्या लेने आ गये थे। अपने भाई के कुम्मी गले लगी, बच्चे भी मामा कहकर चिपक गये।

फिर पूछने लगी, ‘क्या हुआ भैय्या?’

‘तू ही देख ले, घर में सब नाराज़ हैं माँ से।’

घर पहुँचते ही माँ-पिता जी दादा-दादी सब आ गये। मेरी निगाह ताई जी को ढुँढ रही थी।

ताई जी आ गयीं, ‘कुम्मी मेरी’ कहकर गले लगा लिया।

‘क्या हुआ ताई जी?’

‘अरे कुछ नहीं। सब नाराज हैं। अब मैंने क्या गलत फरमाइश कर दी?’

माँ चाय बना लाईं, बच्चों को दुध दिया।

‘सही से बताओ क्या हुआ?’

मेरी बुआ की ओर इशारा कर के बोलीं, ‘देखो, तुम्हारी बुआ सीता की उम्र कम है। पिछले साल तुम्हारे फूफा जी चल बसे। अभी कितनी लंबी ज़िंदगी है, अकेले ज़िंदगी कैसे कटेगी? हम तो जैसे सारी उम्र उनके साथ में बैठे होंगे। मैंने क्या गलत कह दिया कि दूसरी शादी कर दी जाए।’

दादी ज़ोर से बोलीं, ‘अब तेरी भी उम्र हो गई है, बचपना नहीं रहा। छोड़ दे बेकार की बातें। समाज यह स्वीकार नहीं करता कि इस उम्र में किसी की दूसरी शादी की जाए। लोग क्या कहेंगे?’

‘कोई बात नहीं है, तो समाज इतनी बात बना रहा है। हम कब तक सहारा देगें? बातें तो अब भी कर रहे हैं और आगे भी करेंगे।’

माँ भी इस पक्ष में नहीं थीं। उन्हें डर था कि गाँव में थू-थू होगी। दुसरी शादी गांव का ये माहौल कभी स्वीकार नहीं कर पाएगा।

पिताजी और ताऊ जी नाराज़ थे, ‘ऐसे बात उठाई कैसे? यह कोई उम्र है दूसरी शादी की?’

मैं सबकी बातें ध्यान से सुन रही थी। केवल मुझे ताई जी कहीं भी गलत नज़र नहीं आ रही थीं।

‘कुम्मी तू ही बता’, माँ ने मेरा हाथ पकड़ा।

‘माँ ताई जी सही तो कह रही हैं। बुआ की उम्र ही क्या है? बहुत लंबी उम्र पड़ी है। सारी ज़िंदगी कैसे कटेगी?’

‘कुम्मी फिज़ूल की बातों में साथ मत दे भाभी का’, पिता जी ने कहा।

‘अच्छा बुआ से ही पूछ लो?’

सीता बुआ की नज़रें नीचे ही थीं उनके बस आँसू गिरते जा रहे थे। उनकी चुप्पी में मुझे और ताई जी को हाँ नज़र आ रही थी। और सब को कुछ समझ आ भी रहा था पर समझना नहीं चाह रहे थे। बस उन्हें समाज की चिंता थी। उस दिन सब बात को खत्म करके खाने-पीने में लग गए और मैंने भी विभोर को फोन करके घर बुलवा लिया। मुझे पता था कि वो मेरा साथ ज़रूर देंगे।

ताई जी ने अपने दूर के भाई का रिश्ता बताया था, जो स्कूल में अध्यापक था। उनकी पत्नी तीन साल पहले ही किसी बीमारी में चल बसी थीं। लेकिन दूसरी शादी की बात स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। ये ही वजह थी कि वह लोग कुम्मी और सुरेखा से नाराज थे। यह सबको पता था कि कुम्मी, सुरेखा का ही साथ देगी, पर इस बात में भी देगी यह किसी ने नहीं सोचा था।

ताई जी बुआ के लिये पूरे परिवार के खिलाफ खड़ी थीं। बुआ के कोई बच्चा नहीं था। आज पता चला कि किसी भी बात को गम्भीर ना लेने वाली ताई जी, अंदर ही अंदर कितनी परिपक्व हैं। ताई जी का एक नया रूप देखने को मिल रहा था। उन्होंने बुआ को काफी हद तक जाना था। आज उनका अकेलापन वह महसूस कर सकती थीं।

बुआ ने बहुत समझाने की कोशिश कि उनको उनके हाल पर छोड़ दीजिए। पूरे परिवार के खिलाफ जाना ठीक नहीं है। ताई जी को मेरा साथ मिलने की वजह से और हिम्मत आ गई थी। विभोर भी हमारे साथ थे और हम तीनों ने मिलकर यह समझाने की कोशिश की कि हर किसी को एक दूसरे की ज़रुरत पड़ती है। जिसका हम-सफर छोड़ गया, उसे भी किसी के साथ की ज़रुरत है। बुआ के बच्चे भी नहीं थे तो उनके साथ और ज़्यादा परेशानी थी। बुआ ने पूरे घर का वातावरण खराब होने की वजह से, घर छोड़ने का निश्चय कर लिया और घर से निकल पड़ीं।

साहिल को रास्ते में बुआ मिलीं और वह उन्हें पकड़ कर घर ले आया। सब लोगों को बहुत गुस्सा था कि बुआ ने ऐसा क्यों किया? आखिर ताई जी ने भी अपना फैसला सुना दिया कि वह बुआ की शादी करा कर ही मानेंगी।

विभोर भी कितने दिन कि छुट्टी लेते? बच्चों के भी स्कुल खुल गये थे तो कुम्मी और विभोर घर आ गये। पर ताई जी को अकेले छोड़ आई थी तो कुम्मी का मन घर में ही था। कैसे लड़ेंगी सबसे ताई जी?

बुआ के घर होने से लोग बातें करते ही थे। पर अब समय बीत रहा था। अगर बुआ कहीं बाहर खड़ी होतीं तो आसपास की औरतें लाचारी भरे प्रश्नों की छड़ियाँ लगा डालतीं, ‘आगे कैसे बिताओगी समय?’

बहुत बार बुआ जवाब देतीं, पर बार-बार एक ही बात समझाते थक चुकी थीं, तो अब बिना कहे घर आ जातीं। अब धीरे-धीरे निकलना बंद कर दिया। घर में ही रहतीं। एक दिन बुआ को बाहर दर्ज़ी के काम से जाना पड़ा। वहाँ पर उन्होंने किसी पड़ोसी से बात कर ली। बस बात आग की तरह फैल गयी।

ताई जी सुना आई थीं काफी कुछ, और घरवाले भी बुरा-भला कह आये उन लोगों को, जिन्होंने एक की चार की। ताई जी ने घर आकर सबको कहा, ‘कोई बात नहीं है, तो समाज इतनी बात बना रहा है। हम कब तक सहारा देगें? बातें तो अब भी कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। जब एक उनका हाथ थामने के लिये तैयार है तो क्यों न उनका हाथ ऐसे को दें जो जीवन भर उनका साथ दे पाये।’

सब घरवाले समझ चुके थे। सीता बुआ ने भी हाँ कर दी थी और रिश्ता उनके शहर जाकर पक्का कर दिया गया। कुम्मी, विभोर भी आ गये थे। शादी भी बहुत अच्छे से हुई।

आज सब सुरेखा ताई जी कि तारीफ करते नहीं थक रहे थे। जो गाँव वाले इस घर की कमी निकाल रहे थे। आज वो ही शादी में तारीफ कर रहे थे। और सीता बुआ की ज़िंदगी भी संवर गयी थी। सुरेखा ताई जी ने बुआ की साड़ी और ज़िंदगी, दोनों को रंगीन करा दिया।

किसी ना किसी को अच्छे काम के लिये आगे आना ही होता है। समाज का क्या है? वो तो किसी ना किसी बात पर कमी निकालता ही है, चाहे उस बात के करने या ना करने से कोई फर्क नहीं पड़ता हो। जो सबके लिये सही हो ऐसे फैसले लेने में कोई बुराई नहीं।

मूलचित्र : Unsplash

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