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दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध है महिलाओं और लड़कियों पर होने वाली हिंसा। हमारे समाज में घर में होनी वाली हिंसा सामने नहीं आती, कहती हैं कमला भसीन।
100 करोड़ से ज़्यादा लड़कियों और महिलाओं पर हिंसा हो रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार दुनिया में हर तीन में से एक औरत पर हिंसा होती है।दुनिया में 700 करोड़ से ज़्यादा लोग हैं। इनमें से आधे यानि 300 करोड़ औरतें हैं।
हर तीन में से एक औरत पर हिंसा होने का मतलब है 100 करोड़ से ज़्यादा लड़कियों और औरतों पर हिंसा हो रही है, और यह हिंसा दुनिया के हर देश में हो रही है, कहीं ज़्यादा, कहीं कम। दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध है यह।
यह हिंसा अमीर भी करते हैं, ग़रीब भी, पढ़े-लिखे भी करते हैं, अनपढ़ भी, शराब के नशे में भी करते हैं, बिन पिए भी। औरतों पर हर तरह की हिंसा होती है- मानसिक, भावनात्मक, शारीरिक, यौनिक, आर्थिक।
यह हिंसा हर उम्र की लड़कियों और औरतों पर होती है।हिंसा लड़की के पैदा होने से पहले भी हो सकती है, जैसा भारत में होता है। भारत में साढ़े तीन से चार करोड़ बेटियों को भ्रूण में ही मार दिया गया है।
1911 में भारत में 1000 पुरुषों पर 975 स्त्रियाँ थीं।1951 में यह संख्या घट कर 952 हो गयी थी और 2011 में सिर्फ़ 932 स्त्रियाँ रह गयी थीं 1000 पुरुषों पर। यानि जैसे-जैसे देश का विकास हुआ, शिक्षा का स्तर बढ़ा वैसे-वैसे स्त्रियों पर हिंसा बढ़ी और उन की संख्या घटी।
यह अनुपात आर्थिक रूप से अमीर राज्यों, शहरों और परिवारों में ज़्यादा ख़राब है। देश के उन ज़िलों में जहाँ ज़्यादा आदिवासी रहते हैं, वहाँ यह अनुपात बेहतर है। यानि ‘अनपढ़’ आदिवासी अपनी बेटियों को नहीं मारते। यानि, सिर्फ़ डिग्री ले लेने से लोग इंसानियत, बराबरी और न्याय नहीं सीख लेते।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर 22 मिनट में एक बलात्कार होता है और लगभग 40% विवाहित महिलायों पर उनके ‘पति परमेश्वर’ या ससुराल वाले हिंसा करते हैं।
International Centre for Research on Women के अनुसार भारत में 50% से अधिक विवाहित महिलायों पर हिंसा होती है। चूँकि कानून की नज़र में घरेलु हिंसा एक अपराध है, 40 से 50 प्रतिशत ‘पति परमेश्वर’ कानूनन अपराधी हैं।
भारत में किसानों की आत्महत्याओं के बहुत चर्चे हुए हैं।BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार 2014 में भारत में विवाहित महिलायों द्वारा की गयी अत्महत्यायों की संख्या 20000 थी। एक दिन में 50 से ज़्यादा पत्नियाँ आत्महत्या कर रही हैं। इस के पीछे कई कारण हो सकते हैं, मगर महिलायों पर होने वाली हिंसा एक बड़ा कारण है।
ये आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं और ये हमें बताते हैं कि हमारे समाज, परिवार और देश कितने हिंसात्मक हैं। सच्चाईयों से मुंह फेरने वाले भारतीय इन आंकड़ों के बावजूद यह दोहराते रहते हैं कि भारत में नारी की पूजा होती है। देवियों की पूजा यहाँ ज़रूर होती है पर नारियों की हालत आज भी ख़राब है।
यह हिंसा सिर्फ़ भारत का नहीं पूरी दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध है। ऐसा कोई और युद्ध नहीं है जिसमें 100 करोड़ से ज़्यादा लोगों पर हिंसा हो।
इन आंकड़ों और इनके पीछे छुपी सच्चाईयों को देख कर पता लगता है कि लड़कियों और औरतों के लिए हर समय युद्ध काल है, शान्ति काल होता ही नहीं है। और हर स्थान युद्ध का मैदान हो सकता है- परिवार, गली, बस, रेलगाड़ी, दफ़्तर, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, खेत-खलियान या फैक्ट्री। वे अपने ही देश और समाज में कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं।
सबसे ज़्यादा दुखदायी और हैरान करने वाली बात यह है कि यह युद्ध और हिंसा सबसे ज़्यादा हमारे परिवारों के अन्दर हो रही है। कोई भी और युद्ध परिवारों के अन्दर नहीं होता। दूसरे युद्ध परिवारों, जातियों, समुदायों, देशों के बीच होते हैं, मगर परिवारों के अन्दर नहीं।
इस पुरुषसत्तात्मक जंग के चलते बेटियों की भ्रूण हत्या की योजनायें परिवारों के अन्दर बनती हैं और यही परिवार शायद नवरात्री में कुमारी कन्या की पूजा भी करते हों। परिवारों के अन्दर ही लाखों बहुओं को सताया और जलाया जाता है।
30 से 50 प्रतिशत विवाहित महिलाओं पर घर के अन्दर हिंसा होती है। कई बार पिता, सौतेले पिता, अपना भाई, सौतेला भाई, चाचा, मामा, देवर, जेठ, ससुर, घर की बच्चियों और युवतियों का यौनिक शोषण या बलात्कार करते हैं। अंतहीन हिंसा।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 80 से 90 प्रतिशत बलात्कारी जाने पहचाने पुरुष होते हैं, अनजान पुरुष नहीं। इसलिए इनके ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट करवाना और कठिन हो जाता है। हिंसा से बचने के लिए सब लोग लड़कियों को घर के बाहर न जाने की हिदायत देते हैं और कहते हैं बाहर मत जाओ, वहां ख़तरा है। मगर सच तो यह है कि लड़कियों और औरतों के लिए सबसे ज़्यादा खतरनाक जगह उनका परिवार ही है।
हिंसा के अलावा बहुत से परिवारों के अन्दर लड़कियों को दोयम दर्जे का इंसान माना और बनाया जाता है। यहीं पर उनमें हीनभावना पैदा की जाती है। यहीं पर उनके साथ खाने-पीने में, शिक्षा और स्वास्थय में, उनसे घर के काम करवाने में, खेल-कूद में और हर तरह की आज़ादी देने में भेद-भाव किया जाता है। यहीं पर उन्हें घूंघट और पर्दों में छुपाया जाता है, उन्हें पराया धन कहा जाता है।
माहवारी के समय उन्हें अछूत कहा जाता है, उनका पति मर जाए तो उन्हें मनहूस औरत कहा जाता है। उसका मियां चाहे शराब पी कर मरा हो, कुसूर औरत का ही है। वही खा गयी उसे। हर परिवार में औरत का दर्जा दलितों वाला है। वह कहीं भी ‘सवर्ण’ नहीं है।
जिन परिवारों में एक दो पीढ़ियों से औरतें पढ़-लिख रही हैं और नौकरी कर के आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, वहाँ हालात ज़रूर बदले हैं, मगर आज भी करोड़ों परिवारों में यही दशा है। आज भी घूंघट और बुर्क़ा है, आज भी लगभग 40 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष से पहले कर दी जाती है।
आज भी ज़्यादा लड़कियाँ स्कूली शिक्षा भी ख़त्म नहीं कर पातीं। आज भी बचपन से उन पर घर के कामों का बोझ है, सो उनका बचपन ही नहीं है। मोहल्लों में सिर्फ़ लड़के ही खेलते दिखते हैं लड़कियां नहीं।
इन्हीं हालात को देख कर मैंने एक कविता में लड़कियों और औरतों की नज़र से परिवारों के बारे में लिखा था-
कौन कहता है जन्नत इसे हमसे पूछो जो घर में फंसे। न हिफ़ाज़त न इज्ज़त मिली कर कर क़ुर्बानी हम मर गए। दुश्मनों की ज़रुरत किसे ज़ुल्म अपनों ने हम पर किये।
हमारे समाज में घर की किसी भी बुरी बात के बारे में बाहर बात करना बुरा माना जाता है। लोग मानते हैं कि घर की बात घर के अन्दर ही रहनी चाहिए। मगर बहुत से समाज सुधारक और नारीवादी स्त्री व पुरुष घरेलु हिंसा पर छाई ख़ामोशी को तोड़ते रहे हैं, क्योंकि वे समझते हैं की किसी भी ज़ुल्म पर ख़ामोश रहना उस ज़ुल्म को बढ़ावा देना है।
हम नारीवादियों का मानना है कि अगर 30 से 60 प्रतिशत परिवारों में हिंसा हो रही है तो यह कोई “निजी” मामला नहीं हो सकता। यह एक सामाजिक दोष और अन्याय है, यह एक पुरुषतान्त्रिक ढाँचे और मानसिकता का हिस्सा है जो बहुत व्यापक है। इस पर छाई ख़ामोशी को तोड़ना ज़रूरी है।
चूंकि महिला आन्दोलन और नारीवादियों ने इस ख़ामोशी को तोड़ा और पारिवारिक हिंसा पर खुल कर बातचीत शुरू की, हमें ‘परिवार विरोधी’ और परिवार तोड़ने वाली कह कर बदनाम किया गया।
इस के बावजूद हम खामोश नहीं हुए और इसका नतीजा है कि अब बहुत सारे लोग इस पर बातचीत कर रहे हैं, लिख रहे हैं, फ़िल्में बना रहे हैं, आदि। अब लड़कियां और औरतें अपमान, दुर्व्यवहार और हिंसा को अपनी क़िस्मत मान कर इन्हें सहने से इनकार कर रही हैं। वे हिंसा की पुलिस में रिपोर्ट कर रही हैं, न्याय मांग रही हैं। इस सब के फलस्वरूप नए और बेहतर कानून बनते रहे हैं, पुलिस अफ़सर, वकील, जज अधिक संवेदनशील बन रहे हैं।
इस हिंसा से सिर्फ़ औरतों को नुक्सान नहीं होता, बच्चों पर भी इसका बहुत बुरा असर पड़ता है। उनका ठीक से विकास नहीं हो पता, वे कुंठित हो जाते हैं, ठीक से पढाई नहीं कर पाते। बच्चों का भविष्य बिगड़ जाता है। कुछ सर्वेक्षणों के अनुसार जिन बच्चों ने हिंसा देखी और सही है, वे औरों के मुक़ाबले में अधिक बीमार पड़ते हैं, अधिक हिंसक बनते हैं और शराबखोरी और नशाखोरी में अधिक पड़ते हैं।
पारिवारिक हिंसा के कारण परिवारों का सुख चैन ख़त्म हो जाता है। हर वक़्त एक डर का माहौल बना रहता है। इस माहौल में कोई भी खुश नहीं रह सकता, हिंसा करने वाले भी नहीं। हमारे परिवार पुरुषसत्ता के स्कूल बने हुए हैं। यहीं पर पुरुषसत्ता सिखाई और पनपाई जाती है।
बहुत से परिवारों में बराबरी, प्रजातंत्र नाम की चीज़ नहीं होती। चूंकि परिवारों में लड़कियों और औरतों की इज्ज़त, समानता, न्याय, प्रजातंत्र नहीं है इसलिए समाज में भी ये मूल्य नहीं पनपते। तमाम बलात्कारी और लड़कियों को छेड़ने वाले आसमान से नहीं टपकते, वे हमारे घरों से ही आते हैं।
लड़कियों और औरतों पर उन पर होने वाली हिंसा के कारण कई तरह के बुरे असर पड़ते हैं। वे शारीरिक और मानसिक बीमारियों से घिर जाती हैं, शिक्षा में पिछड़ जाती हैं। खुले मन और तंदरुस्त तन से घर के काम और नौकरी नहीं कर पातीं। इसी के फलस्वरूप हमारे देश में हर साल 20000 विवाहित औरतें आत्मा हत्या कर लेती हैं। हर दिन 58 औरतें आत्महत्या करती हैं, देवियों के इस देश में!
अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया की सरकारों ने अपने देशों में व विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्य कई देशों में इस हिंसा से होने वाली आर्थिक हानि का अंदाज़ा लगाने की कोशिश की। अमरीका का अंदाज़ है कि इस हिंसा के कारण सिर्फ़ स्वास्थय सेवाओं का खर्च 500 करोड़ डालर है।
हिंसा से होने वाले बच्चों की शिक्षा, औरतों के कामकाज के नुक्सान, कोर्ट कचहरियों, पुलिस के खर्च भी अगर जोड़ें तो सिर्फ़ अमरीका में सालाना 50 हज़ार करोड़ डालर का नुकसान होता है।
इस सब से साबित होता है की महिलायों और लड़किओं पर होने वाली हिंसा केवल महिलाओं और परिवारों का मुद्दा नहीं है और केवल उनका नुक्सान नहीं होता। यह देशों के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दा है, यह देश के स्वास्थय और शिक्षा का मुद्दा है। यह बच्चों के भविष्य का मुद्दा है। यह विकास का मुद्दा है। इस विषय को निजी कह कर अब और नकारा नहीं जा सकता।
अब यह साफ़ है कि महिलाओं पर होने वाली हिंसा के खिलाफ सिर्फ़ महिला आन्दोलन खड़े न हों। पूरे समाज, सब सरकारों, नेताओं, मजदूर किसान, दलित, आदिवासी, छात्र आंदोलनों को एक-जुट हो कर इस सामाजिक बुराई और अन्याय को जड़ से मिटाना है। महिला आन्दोलनों ने अपनी भूमिका बखूबी निभायी है, अब और लोगों को भी सामने आना चाहिए।
चुपचाप क्यों हैं आप जब ये देश जल रहा, आईये हमारे काँधे से कांधा मिलाईये।
कमला भसीन : एक संक्षिप्त परिचय
कमला भसीन महिला आन्दोलन से जुड़ी एक नारीवादी और विकास कर्मी हैं। १९७० से आज तक वे नारीवादी समूहों व संजालों और संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से नारी-पुरुष समानता, मानव अधिकार, शान्ति और सतत विकास पर काम कर रही हैं। कमला का कार्यक्षेत्र एशिया रहा है।
जिन सँस्थाओं और संजालों से उनका जुड़ाव रहा है, वे हैं सेवा मंदिर उदयपुर, FAO/UN, जागोरी दिल्ली, जागोरी हिमाचल, Sangat A Feminist Network, Peace Women across the Globe, One Billion Rising, People’s SAARC, South Asians for Human Rights, आदि।
कमला भसीन ने अपने काम से जुड़े तमाम मुद्दों पर हिन्दी व इंग्लिश में किताबें, लेख, गाने, कविताएँ लिखी हैं व पोस्टर और बैनर बनाये हैं। बच्चों के लिये भी इन्होंने किताबें, गाने व कवितायें लिखी हैं।
कमला अपने पुत्र जीतकमल के साथ दिल्ली, जयपुर व हिमाचल में रहती हैं।
मूलचित्र : Pixabay/Canva
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