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‘श्रीदेवी – रूप की रानी’, ललिता अय्यर की किताब हर आधुनिक औरत के लिए स्मरणीय रहेगी

ललिता अय्यर शुरू में ही श्रीदेवी जी से एक भावनात्मक सा रिश्ता बाँध देती हैं। वे कहती हैं - 'श्रीदेवी से मैंने सीखा कि औरत होने का कोई एक तरीका नहीं होता।'

ललिता अय्यर शुरू में ही श्रीदेवी जी से एक भावनात्मक सा रिश्ता बाँध देती हैं। वे कहती हैं – ‘श्रीदेवी से मैंने सीखा कि औरत होने का कोई एक तरीका नहीं होता।’

ललिता अय्यर की अंग्रेजी किताब श्रीदेवी क्वीन ऑफ हार्ट्स का हिंदी अनुवाद श्रीदेवी – रूप की रानी के रूप में अनुवादक अनु सिंह चौधरी द्वारा किया गया है। श्रीदेवी की आख़िरी बहुचर्चित फिल्म इंग्लिश विंग्लिश के उनके सह-कलाकार आदिल हुसैन का प्राक्कथन श्रीदेवी की मृत्यु के बाद लिखा गया है लेकिन निश्चित ही वो इस किताब की टोन को पाठक के मन में स्थापित कर देता है।

अनुवादक अनु चौधरी ने भाषा की सहजता, संवेदनशीलता और बहाव को बनाये रखा है।

‘अनऑफिशिअल बायोग्राफी’ अक्सर भावनाओं से रिक्त होती हैं, लेकिन यहाँ लेखिका शुरू में ही श्रीदेवी जी से एक भावनात्मक सा रिश्ता बाँध देती हैं। किताब उनकी मृत्य के बाद लिखी गयी है, इसलिए ये सम्बन्ध और भी मार्मिक जान पड़ता है। लेखिका स्वयं कहती हैं – ‘ये किताब एक फैन की श्रद्धांजलि है, श्रीदेवी से मैंने सीखा कि औरत होने का कोई एक तरीका नहीं होता।’

सबसे पहले बचपन की बात होती है, श्रीदेवी के नहीं, बल्कि खुद लेखिका के बचपन की और कैसे श्रीदेवी की फिल्म सदमा से न केवल उन्होंने पर उनकी हिंदी फिल्मों को हय मानने वाली उनकी अम्मा ने भी जुड़ाव महसूस किया था।

श्री अम्मा यंगर अयप्पन से श्रीदेवी तक के सफर में मेहनत और सफ़लता की कहानी तो है ही, लेकिन ये किताब पढ़ने पर महसूस होता है कि ये एक छोटी बच्ची की महत्वकांक्षी माँ के सपनों की कहानी भी है जिसकी कीमत उसका पूरा बचपन बन जाता है। लेखिका अनेक साक्षात्कारों के ज़रिये श्रीदेवी के जीवन के इस काल को पाठक के लिए घड़ती हैं। वे कहती हैं दक्षिण भारतीय हीरोइनों के उस दौर में सबसे अधिक कहा जाना वाला वाक्य था – ‘अम्मा से पूछिए!’

यहाँ श्रीदेवी की कहानी उनके ही जैसे अनेक बच्चों के शोषण की कहानी भी लगती है और दुःखी करती है। इनके एक तरफ लालची माता-पिता या परिवार हैं, और दूसरी तरफ फिल्म इंडस्ट्री, जिसके लिए औरतें सिर्फ नुमाइश करने के लिए जिस्म।

श्रीदेवी के हिंदी फिल्मों के लिए खुद को शारीरिक रूप से बदलने की बात हो या उनके दक्षिण भारतीय लहज़े में हिंदी बोलने की, सारे आंकलन भावनाओं को परे रख कर किये गए हैं और संतुलित हैं। यहाँ लेखिका महज़ फैन न बन कर, एक अच्छी समीक्षक बन जाती हैं। उनके सह-कलाकारों के साक्षात्कारों से उनके बारे में कही गयी बातें, उनके अपने पुराने साक्षात्कार और उनकी हिंदी की बहुचर्चित और सफल फिल्मों की सेट और सेट के बाहर की बातों से श्रीदेवी का जो एक किरदार बन पड़ता है वो बहुत ही जीवंत और हक़ीक़ी है।

इनके एक तरफ लालची माता-पिता या परिवार हैं, और दूसरी तरफ फिल्म इंडस्ट्री, जिसके लिए औरतें सिर्फ नुमाइश करने के लिए जिस्म।

लेखिका कहती हैं – ‘श्रीदेवी का पूरा वजूद बोलता था,’ और इसमें वाकई कोई दो राय हो ही नहीं सकती। श्रीदेवी भारतीय फिल्मों की पहली बड़ी और सफल क्रॉसओवर स्टार ही नहीं बल्कि अपने युग की सफलतम अभिनेत्री इन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण बनीं। श्रीदेवी की फिल्मोग्राफी को पुस्तक में कुछ सजीव चित्रों के साथ डाला गया है जिन में उनकी यात्रा और भी जीवंत हो उठती है और हमें इस बच्ची के एक ब्रांड नेम बन जाने तक का सफर साफ़ दिखाई देता है।

श्रीदेवी के नृत्य और गानों के सम्बन्ध में भी लेखिका ने अनेक दिलचस्प उदहारण प्रस्तुत किये हैं जो इस किताब के लिए किये गए गहन शोध को दर्शाते हैं। बॉलीवुड की ‘लेडी अमिताभ बच्चन’ कहलाये जानी वाली श्रीदेवी के करियर का अगर कोई ग्राफ हो तो उसमें अनेक शिखर निश्चित ही दिखाई देंगे, लेकिन उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी अलग शख़्सियत के अनेक रंगों का निखर कर सामने आना। मिस्टर इंडिया की चुलबुली हवा-हवाई से इंग्लिश विंग्लिश की शशि तक के हरेक किरदार पर अपनी छाप छोड़ने के पूरे सफर को ये किताब बखूबी पेश करती है।

श्रीदेवी के फिल्मों और सार्वजनिक जीवन में लौटने के कुछ सालों को दर्शाते हुए लेखिका साफ़-साफ़ कहती हैं – ‘श्रीदेवी ने अपने शरीर को फिट और तराशा हुआ रखने के लिए वाकई बहुत मेहनत की थी, हालाँकि नए फिगर का ये पैमाना उनका खुद का चुना हुआ था या उन पर थोपा गया था, ये बताना मुश्किल है।’

ये किताब एक सुपरस्टार के संघर्षों की कहानी ही नहीं बल्कि एक स्वनिर्मित प्रभावशाली महिला के रूप में श्रीदेवी को दी गई श्रद्धांजलि है। अंत में जो लेखिका लिखती हैं, उससे अधिकतर पाठक सहमत होंगे – ‘श्रीदेवी, आप जहाँ कहीं भी हैं…आपने मुझे हँसाया भी और रुलाया भी। आप हमेशा मेरी हीरो रहेंगी।’

अनुवादक अनु चौधरी ने भाषा की सहजता, संवेदनशीलता और बहाव को बनाये रखा है। ललिता अय्यर की ये किताब श्रीदेवी को चाहने वालों तथा बॉलीवुड के प्रशंसकों को ज़रूर पढ़नी चाहिए।

मैंने निजि तौर पर श्रीदेवी को एक अभिनेत्री के रूप में कभी भी बहुत ज़्यादा पसंद नहीं किया, लेकिन सदमा और लम्हे जैसी उनकी कई फिल्में मेरी पसंदीदा रही हैं। मुझे इस किताब ने काफी प्रभावित किया क्यूंकि ये सिर्फ कुछ तथ्य या घटनायें ही नहीं बताती पर सवाल भी पूछती है, पितृसत्ता में ‘सफल स्त्री’ होने के सफर के अनेक सवाल, जो श्रीदेवी के लिए ही नहीं पर हरेक आधुनिक औरत के लिए हैं, और इसलिए ये किताब मेरे लिए स्मरणीय ज़रूर रहेगी।  

किताब Amazon पर यहाँ उपलब्ध है

मूलचित्र : YouTube

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Pooja Priyamvada

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