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समय आ गया है कि भारतीय समाज अब औरतों के प्रति अपनी सोच बदले

यह नए भारत की औरतें हैं, जो ज़रुरत पड़ने पर पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकती हैं और  अपने साथ हो रहे अन्याय का जवाब देने का भी सामर्थ्य रखतीं हैं।

यह नए भारत की औरतें हैं, जो ज़रुरत पड़ने पर पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकती हैं और  अपने साथ हो रहे अन्याय का जवाब देने का भी सामर्थ्य रखतीं हैं।

भारत देश में नारी को देवी के समान पूजा जाता है पर फिर भी देश में नारी की स्थिति बहुत ही दयनीय और भयावह है। २१वीं शताब्दी में भी सोच इतनी संकीर्ण है। आज भी नारी को अशिक्षा, भेदभाव, घृणा, अपमान, घरेलू हिंसा व रेप जैसी घटनाओं का सामना करना पड़ता है। वह मां, बेटी, बहू, बहन, पत्नी के रूप में अपनी सभी जिम्मेदारियों को निभाती है पर फिर भी क्यों स्त्रियों का अपमान होता है, उनका शोषण होता है?

जन्म लेते ही बेटे और बेटी में फर्क किया जाता है

जन्म लेते ही बेटे और बेटी में फर्क किया जाता है। कई घरों में बेटे के पैदा होने पर खुशियां मनाई जाती हैं और बेटी के पैदा होने पर माथे पर हाथ रखकर शोक मनाया जाता है। बेटा घर का वंशज होता है, पर बेटी को महत्व नहीं दिया जाता। बेटे को ऊंची शिक्षा पाने का अधिकार होता है, सारी मूलभूत सुविधाएं दी जाती हैं, पर बेटी को अनपढ़ रखा जाता है या उसकी पढ़ाई अधूरी रह जाती है।

बेटी तो पराया धन है, उन्हें पढ़ा-लिखा कर क्या करना

बेटी तो पराया धन है, उन्हें पढ़ा-लिखा कर क्या करना? इसे तो दूसरे घर जाना है।’ अब यह क्यों भूल जाते हैं कि एक लड़की होने से पहले वह एक इंसान है, और उसे भी वह सभी हक और अधिकार मिलने चाहिए जो एक बेटे या पति को मिले हों।

शुरू से ही न तो उसे अपनी बात रखने की आजा़दी होती है, न ही वह अपने घर के किसी निर्णय में अपना कोई योगदान दे सकती है। उसे जीवनभर के लिए घर के आदमियों पर निर्भर रहने के लिए छोड़ दिया जाता है। उसे शुरू से सिखाया जाता है कि शादी के बाद तुम्हें सब के लिए खाना पकाना है, उनकी सेवा करनी है, बड़ों के आगे नहीं बोलना है, पति की हर बात माननी है, फिर चाहे वह कितनी ही तकलीफें झेल रही हो।

त्याग की मूर्ति की उपाधि दी जाती है

त्याग की मूर्ति की उपाधि दी जाती है, पर बदले में उसे क्या मिलता है – अपमान, तिरस्कार तथा घृणा! वह भूखी होती है प्यार और सम्मान की। ‘घर का काम करती है, तो इसमें एहसान कैसा?’ यह कहा जाता है, पर वह एहसान नहीं करती। क्या घर का काम केवल उसका है? क्या घर के बाकी सदस्यों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती? वह पूरी तन्मयता से अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभाती है और बदले में अगर उसे मुस्कान मिल जाए, तारीफ के दो शब्द मिल जाएँ, सम्मान मिल जाए, उसे अपने मन की बात रखने का हक या अपने लिए थोड़ा सा समय मिल जाए, तो इसमें क्या बुरा है?

उस पर कई तरह की बंदिशें लगा दी जाती हैं

औरत अगर घर से बाहर जाती है, तो भी उस पर कई तरह की बंदिशें लगा दी जाती हैं। ऐसे नहीं बैठना, वैसे नहीं बोलना, ये नहीं पहनना! वह औरत है कोई कठपुतली नहीं, जो दूसरों के इशारों पर चलती रहे और अपना मन मार कर बैठी रहे। उसे भी अच्छी शिक्षा का अधिकार है, अपनी मन की बात कहने और करने का अधिकार है। अगर एक औरत की इज्जत नहीं कर सकते तो कंजकों में माता के रुप में कन्याओं को पूजना छोड़ दीजिए, यह सिर्फ एक ढोंग है।

उसे बेटी के रूप में नहीं बल्कि बहू के रूप में ही उसके अधिकार दीजिए

घर की एक ही छत के नीचे सास और बहू के झगड़ों होते हैं। क्यों वह दोनों अपने रिश्तो में सामंजस्य नहीं बिठा पातीं? अगर बहू मन से अपने नए घर को अपनाती है, अपना सारा घर-परिवार, सगे-संबंधी छोड़कर आती है, तो बदले में उसकी सिर्फ इतनी इच्छा होती है कि यहाँ भी उसे वह प्यार और सम्मान मिले। उसे बेटी के रूप में नहीं बल्कि बहू के रूप में ही उसके अधिकार दीजिए। घर के सभी निर्णयों में अपनी राय रखने का हक दें। घर की ज़िम्मेदारियों में उसके साथ साझेदार बने, उसकी इच्छाओं का ख्याल रखें। एक सास भूल जाती है कि वह भी कभी इस घर में बहू बनकर आई थी, कुछ उनकी भी इच्छाएं अधूरी रह गई होंगी, क्यों न बहू की इच्छाएं पूरी कर लें!

बहुत सी बहुएं भी भूल जाती हैं कि उनकी सास एक माँ भी है। जैसा व्यवहार आप अपनी माँ के लिए चाहती हैं, वैसा ही व्यवहार अपनी सास के साथ रखें। एक औरत ही दूसरी औरत को अपना समर्थन व प्रेरणा देकर सहयोग कर सकतीं हैं।

कहीं पर जन्म लेते ही छोटी बच्चियों को फेंक दिया दिया जाता है, शादी के पश्चात दहेज के लालच में औरत को जला दिया जाता है, कहीं एसिड फेंक कर उसे जीवन भर के लिए कभी न मिटने वाला घाव दे दिया जाता है।शारीरिक शोषण, रेप और छेड़खानी की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। यहां तक कि वहशी लोग छोटी बच्चियों को भी नहीं छोड़ते, ये कैसी मानसिकता है?

आजकल के ज़माने की औरतें बदल गई हैं

कई बार पढ़ती और सुनती हूं कि ‘आजकल के ज़माने की औरतें बदल गई हैं’, तो क्या उन पुरानी, दकियानूसी व निरर्थक प्रथाओं को अपनाकर अपना जीवन नर्क करती रहें? अपने साथ हो रहे अन्याय व अपने अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ भी न उठाएं? समय के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे न बढ़ें?

औरतें नहीं बदली, उनकी सोच बदल गई है और बेहतर होगा कि समाज तथा समाज के सभी वर्ग के लोग भी औरतों के प्रति अपनी सोच बदल लें। उन रूढ़ीवादी और पुरानी सोच से बाहर निकलें जिनके घुटन से देश का विकास  ठीक प्रकार से नहीं हो पा रहा। यह नए भारत की औरतें हैं, जो ज़रुरत पड़ने पर पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकती हैं और  अपने साथ हो रहे अन्याय का जवाब देने का भी सामर्थ्य रखतीं हैं। अगर औरतें शिक्षित होंगी तो समाज शिक्षित होगा, समाज शिक्षित होगा तो राष्ट्र शिक्षित होगा और जो राष्ट्र शिक्षित होता है वही विकसित होता है।

आशा करती हूं कि आपको मेरा यह लेख पसंद आया होगा। आप चाहे तो अपने विचार भी साझा कर सकते हैं।

मूलचित्र : Unsplash 

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Sonia Madaan

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