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आज तो हमारे संविधान में कई तरह की आज़ादी और लोगों के अधिकारों का ज़िक्र है मगर मैं पूछना चाहती हूँ, क्या उन अधिकारों को लोग आसानी से पा लेते हैं?
आज़ादी, यूं तो यह बेहद ही छोटा शब्द है लेकिन इसे ही पाने के लिए हमने ना जाने कितनी मशक्कत की है। लाखों जवानों ने अपना रक्त बहाया है, कई महिलाओं ने अपना सिंदूर मिटाया है और कई माओं ने अपने अश्रुओं को आंचल में समेटा है। इस आज़ादी को पाने के लिए कई रिश्तों ने परिस्थिति से समझौता किया है।
शायद आज़ादी की नियति में ही यह लिखा है कि जब भी यह किसी को मिलेगी, उसका कुछ-ना-कुछ वह ज़रूर लेगी।
हर किसी के लिए आज़ादी के मायने अलग-अलग होते हैं। किसी को करियर चुनने की आज़ादी चाहिए,किसी को मनपसंद कपड़े पहनने की आज़ादी चाहिए, किसी को समलैंगिक विवाह या अपना लाइफ पार्टनर चुनने की आज़ादी चाहिए तो किसी को सड़क हादसों से आज़ादी चाहिए। हमारे समाज में आए दिन लड़कियों के साथ बलात्कार और रेप की घटना होती है, तो क्या हम असल में आज़ाद हैं?
मुझे समाज की रुढ़िवादी सोच और परंपरागत तरीके से चली आ रही पाबंदियों से आज़ादी चाहिए क्योंकि मेरे लिए आज़ादी का मतलब ना केवल अपने अधिकारों की रक्षा करना है बल्कि अपने हक की लड़ाई में दूसरों को शामिल करके उनकी आवाज़ बनने का है।
कभी-कभी जब लोग आज़ादी के नाम पर केवल स्वयं का स्वार्थ देखने लगते हैं तो वह आज़ादी असल में खोखली आज़ादी होती है। जिसके मेरी नज़र में कोई मायने नहीं हैं।
हम आज भले ही यह कहें कि हम आज़ाद भारत के बाशिंदें हैं मगर फिर भी हम बंदिशों में कैद हैं। कोई अपने माता-पिता से अपने शौक के लिए लड़ रहा है तो कोई अपना जीवनसाथी चुनने के लिए लड़ रहा है। आज भी भारत के हर कोने में आज़ादी की लड़ाई चल रही है और यह लड़ाई चलनी भी चाहिए क्योंकि यह समाज के तथा-कथित ढांचे के विरुद्ध एक लड़ाई है, जो हर किसी को लड़नी ही चाहिए।
हमारे समाज में आज भी लोगों को अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की आज़ादी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही समलैंगिकता को मान्यता दे दी हो, लेकिन जहां आज भी लोग अंतरजातिय विवाह को अपराध मानते हो और ‘ऑनर किलिंग’ जैसी वारदातें होती हो, वहां हम किस तरह से आज़ाद हो सकते हैं?
मेरी दोस्त भी प्रेम-विवाह करना चाहती थी और संविधान भी दो वयस्कों को अपने हितों की रक्षा करने का अधिकार देता है। संविधान में यह वर्णित है कि आप किसी की मर्ज़ी के विरुद्ध उस पर शादी या अन्य निर्णयों के लिए दबाब नहीं बना सकते।
वह अपनी इच्छा से अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है लेकिन तर्कों की हार उस वक्त हो जाती है, जब लड़ने की हिम्मत ही ज़वाब देने लग जाती है।
उसने मुझे बताया था कि किस तरह उसने प्रेम-विवाह को लेकर अपनी लड़ाई लड़ी थी मगर अंततः उसके परिवार वालों की दलीलों के आगे संविधान भी फीका पड़ गया।
ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हमारे समाज में प्रेम-विवाह नहीं होते या वह हमेशा से अस्वीकार्य ही होते रहे हैं।अपवादों की जो संख्या हमारे समाज में चल रही है, वह यही दर्शाती है कि हक की लड़ाई लड़नी पड़ती है। अगर दो व्यस्क लोग कानूनी तरीके से विवाह करने में समर्थ हैं तो समाज उन्हें रोक नहीं सकता।
भले ही समाज इस बात को स्वीकार ना करे या हो सकता है सामाजिकता और परिवार का दावा देकर लोग आपको कमज़ोर करने की कोशिश करें लेकिन अपने ज़िद पर खड़े रहना और समाज के लिए अपवाद बनना उन लोगों के लिए ज़रूरी हो जाता है, जो सचमुच आज़ादी चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने भले ही हदिया प्रकरण पर आर्टिकल 21 के तहत फैसला सुनाया हो लेकिन समाज इसे कब अपनाएगा यह सवाल शायद वक्त पर ही छोड़ना सही होगा।
मेरा मानना है, इस तरह की मुश्किलें इसलिए आती हैं क्योंकि संविधान का बनना और उसका सामाजिक स्तर पर पालन होना, यह दो अलग-अलग बातें हैं।
आज तो हमारे संविधान में कई तरह की आज़ादी और लोगों के अधिकारों का ज़िक्र है मगर मैं पूछना चाहती हूँ, क्या उन अधिकारों को लोग आसानी से पा लेते हैं? या उन्हें अपने अधिकारों के लिए एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है?
अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट के आए कई फैसलों से यह साबित हुआ है कि आज़ादी और हक की लड़ाई के द्वार खुले हैं। देर भले ही लगती है लेकिन अपने अधिकारों के लिए लड़ना और अपने हिस्से की आज़ादी लेकर दूसरों को प्रोत्साहित करना ही असल आज़ादी है।
मूल चित्र : Unsplash
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