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डॉक्टर के साथ की गयी हिंसा का ये सिलसिला नहीं रुका तो नतीजे गंभीर होंगे। भविष्य में न तो समाज को अच्छे डॉक्टर मिलेंगे और न ही मरीज़ों को समय पर इलाज मिलेगा।
“नेहा, कुछ सुना तुमने? तुम्हारी सहेली के बेटे का क्या हाल हुआ? बड़ी आयी थी, बेटे को डॉक्टर बनाने वाली”, मेरी पड़ोसन ने मुझ से कहा।
“कौन? वो अनु का बेटा?”
“हाँ हाँ वही!”
“उसे क्या हुआ?”
“तू खुद ही जाकर पूछ ले”, और मुँह बनाते हुए निकल गयी।
क्या बात है? आज ही अनु से मिलती हूँ। चिंता होने लगी थी, आखिर क्या हुआ होगा?
अनु मेरी कॉलेज की सहेली थी, बहुत प्यारी। अभी दो साल पहले ही यहाँ रहने आयी थी। हम दोनों में बहुत अच्छा संबंध था। तब भी और आज भी। दोनों एक दुसरे से हर बात पूछ कर करते। कोई बात छुपी नहीं थी। अनु और उसके पति दोनों ही स्कूल में टीचर थे। एक ही बेटा था, वैभव। हमेशा पढ़ाई मे अव्वल आता था। दोनों उसे डॉक्टर बनाने का सपना देख रहे थे।
उस दिन जब अनु मिठाई लेकर आयी थी, “नेहा ले मुँह मीठा कर, मेरे बेटे के दसवीं में छयानवे परसेन्ट आए हैं। अब उसे डॉक्टर बनाने का मेरा सपना ज़रूर पूरा होगा, तू देखना।”
“लेकिन अनु, मेडिकल एंट्रेंस का एग्ज़ाम और हम तो ‘ओपन केटेगरी वाले हैं। फिर कैसे होगा? प्राइवेट कॉलेज की फ़ीस, कैसे मॅनेज करेगी ये सब?” मैंने चिंतीत स्वर मे अनु से पूछा।
“हाँ, तभी तो हम दोनों वैभव को कोटा के बेस्ट कोचिंग करवा रहे हैं, नीट एग्ज़ाम के लिये। कल ही जाना है। ओके, चल बाय!” कहकर अनु चली गयी।
उसे देखकर मैंने भी सोचा कि मैं भी मेरे आयुष को एम. बी. बी. एस. करवाऊँ, लेकिन आयुष इतना पढ़ नहीं पाएगा, ये भी जानती थी।
जब वैभव का नीट का परिणाम आया तो दोनों माँ-बाप के पैर ज़मीन पर नहीं थे। कड़ी मेहनत करके वैभव के बहुत अच्छे नंबर आए थे। उस का गवर्नमेंट(सरकारी) कॉलेज में एडमिशन हो गया।
जैसे अनु और उसके पती ने सोचा था, वैसे ही हो रहा था। वक्त कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला। देखते-देखते वैभव डॉक्टर बन गया। पिछले साल उसे डॉक्टरी की डिग्री मिली थी और अनु बता रही थी कि अभी उसे साल भर कॉलेज के हॉस्पिटल में काम करना था, जिसे इंटर्नशिप कहते हैं। सब कुछ तो ठीक था, फिर आज अचानक क्या हुआ?
अनु के घर पहुँची तो उसे रोते देख दिल बैठा जा रहा था। कुछ ऐसा-वैसा तो नहीं हुआ ना?
मुझे देखते ही लिपट गयी और ज़ोर से रोने लगी। “नेहा, देखो ना। वो वैभव …”
मेरी धड़कन तेज़ हो रही थी। हे भगवान! इसे क्या बोलूँ? क्या पूछूँ?
आधे घंटे बाद अनु थोड़ा शांत हुई।
“अनु ले पानी पी। अब बता क्या हुआ?”
“नेहा वो वैभव को…”
“हाँ हाँ बता ना, क्या हुआ वैभव को?”
“वो कोमा में है। कुछ लोगों ने उसे इतना मारा कि सिर फूट गया…”
“लेकिन क्यों?” मैं एकदम से चिल्लाई।
“कोई मरीज़ आया था। उसकी अस्पताल में मौत हो गयी। उस मरीज़ के घरवालों ने मेरे बेटे को मारा, जबकि उसे पहले से ही बहुत बीमारियाँ थीं, और उमर भी अस्सी के करीब थी। वो मरीज़ मर गया तो मेरे वैभव का क्या कसूर? उसके सिर पर ऐसा घाव दिया कि अपना होश खो बैठा। जिस दिमाग से सबको तंदुरूस्त बनाना चाहता था, उसी पर वार किया दरिंदों ने। वो मारने वालों से पूछो क्या मेरे बेटे को मारने से उनके घर का मरीज़ वापिस जिंदा हो गया? बोलो? मेरा पहले वाला वैभव लौटा दो प्लीज़। बोल ना। बता। इतनी बेरहमी से क्यों मारा? उसे कोई बचाने नहीं आया। ना कानून ना देश।”
जिसने सारी-सारी रात पढ़कर, मेहनत करके खुद को बनाया, क्यों? जो बड़ी से बड़ी बिमारियों से लड़ना चाहता था, आज उसे ही बेहाल कर दिया? इसके लिये लड़ने वाला कोई नहीं? कोई कानून नहीं? मेरा बच्चा इंसान था कोई भगवान नहीं जो हर मरने वाले को बचा सके। मेरा बेटा जीवन के लिये संघर्ष कर रहा है। अच्छा हुआ नेहा, तूने आयुष को डॉक्टर नहीं बनाया।”
अनु की बातें कानों मे गरम लावा जैसी जा रही थीं। ये क्या है? आज मन सुन्न हो गया। जो डॉक्टर्स मेहनत से डिग्री हासिल करते हैं, बिमारियों से सुरक्षा करने की ज़िम्मेदारी लेते हैं, उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी किसकी है?
अब मुझे वैभव की बात याद आ रही थी, “अच्छा हुआ आंटी, आपने आयुष को मेडिकल में नहीं भेजा। बहुत पढ़ना होता है। ये मोटी-मोटी किताबें। पंद्रह साल अपनी नींद, भूख-प्यास को भूल कर, अपने घरवालों से दूर रहकर, तीज-त्योहारों का त्याग कर के, लाखों रुपये की फीस भर के, दो सौ रुपये की ओ.पी.डी कमाने वाला डॉक्टर बनता है।”
“अरे वैभव, पढ़ाई के डर से गया नहीं ये, आलसी!” मैंने हंसकर कहा था।
आज मुझे सुकून है कि मेरा बेटा डॉक्टर नहीं है। मैंने उसे बचा लिया। लेकिन क्या मैं सही सोच रही हूँ।
जो माँ-बाप अपने बेटे-बेटी को डॉक्टर बनाने का सपना देख रहे हैं, फिर सोचो। क्या आप सब सही सपना देख रहे हो? आज मेरी सहेली का बेटा था, कल शायद आपका…
फैसला हमारा, स्वास्थ हमारा।
मूल चित्र : Pixabay
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