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सुबह सबके जाने के बाद धरा रोली का ध्यान रखती और रात को घर जाती। माँ भी रात का खाना धरा के परिवार के लिए बना देती जिससे उसे घर में ना बनाना पड़े।
आज धरा और वसुधा दोनों मायके आईं। रक्षाबंधन जो था। पास में ही था दोनों का। तो मायके आना जाना लगा रहता। धरा सौम्य स्वभाव की थी और वसुधा थोड़ी चंचल स्वभाव की थी। उसकी अमीरी का पैसा बोलता, ‘मैं किसी से कम नहीं’ वाली कहावत सही थी उस पर। वह शायद इसलिए कि धरा से अच्छे अमीर परिवार में उसकी शादी हुई। हर चीज हर चीज की तुलना वह धरा की चीजों से करा करती थी। उसके व्यवहार को सब जानते थे पर धरा अपने स्वभाव के अनुसार, छोटी बहन समझ कर उसको नजरअंदाज कर देती थी।
रक्षाबंधन पर दोनों घर आई। वसुधा जल्दी-जल्दी से राखी मिठाई थाली में रखे जा रही थी। और धरा को देखा, “देखो धरा दीदी, मैंने शहर की सबसे बड़े सुनार की दुकान से चांदी की राखी लाई हूँ। अपने भाई के लिए पूरा बाज़ार देखा। मुझे कोई पसंद नहीं आई।”
धरा मुस्कुराई, “हाँ वसुधा तुम्हारी राखी बहुत सुंदर है।”
“दीदी आप भी उसी दुकान से ले लेतीं। नहीं?”
धरा मुस्कुराई और बोली, “मेरे घर के पास ही बाज़ार था, तो सोचा वहीं से ही ले लूँ।”
“देखा भाई! तेरे हाथ की चाँदी वाली राखी देखकर सब पूछेंगे, किसने बाँधी?”
मनु मुस्कुरा दिया। उसको अपनी दीदी की आदत पता थी। “राखी तो दोनों की सुंदर है दीदी। आप इसकी तुलना नहीं कर सकती। धरा दीदी की भी राखी भगवान गणेश की तस्वीर वाली बहुत सुंदर है। और, आप दोनों तो मेरी सबसे अच्छी बहिनें हो, तो दोनों की ही सुंदर होगी राखी। दोनों की ही सज रही है मेरे हाथ में।”
वसुधा कुछ महीने बाद दिवाली पर आई। भारी साड़ी, जेवर पहने, बहुत ही खूबसूरत लग रही थी। बहुत उपहार के साथ आई। वसुधा साधारण साड़ी में थी, पर ख़ूबसूरत लग रही थी सादगी में। वह आते ही गले मिली माँ के। कुछ मिठाई और एक उपहार लाई। माँ को लेकर रसोई के काम में लग गयी।
वसुधा बोली, “माँ, मैं काम नहीं करा सकती, बहुत भारी साड़ी है। हल्दी का रंग लग गया तो जायेगा नहीं।”
“हाँ हाँ, तू आराम कर। मैं और धरा कर देगें।” माँ ने मुस्करा कर धरा को देखा। दोनों जानतीं थी आदत। धरा का बनावटीपन सबको पता था। माँ के समझाने पर भी नहीं समझती, कहती, “अरे माँ, जब है मेरे पास तो क्यों नहीं दिखाऊं? धरा दीदी की ससुराल ऐसी होती तो वो भी करती।”
कुछ महिनों बाद भाई मनु की शादी हो गई। रोली बहु बनकर आई तो वसुधा ने महँगे उपहार दिये। रोली का झुकाव वसुधा की तरफ हो गया। धरा ना तो बड़ी-बड़ी बातें कर पाती, ना महँगे उपहार दे पाती। पहले माँ-पिता जी, भाई थे, तब कुछ ज़्यादा बुरा नहीं लगता था। पर भाभी के आने पर धरा कम समझने लगी अपने को। वसुधा की शान-शौकत सादगी पर हावी होने लगी।
धरा ने मायके आना कम कर दिया। वो देने में अपने को वसुधा से कम समझती। माँ और पिता जी को ना आने का बहाना बनाने लगी। रोली भी वसुधा की तारीफ़ों के फूल बाँधे रहती। मनु समझाया करता, “धरा दीदी कुछ अलग परिस्थितियों के साथ है। उनकी देने लेने की तुलना करना ठीक नहीं।” पर रोली को वसुधा के महँगे उपहार, उसके साथ बाज़ार घूमना, होटल में खाना खाना बहुत अच्छा लगता।
रोली को डेंगू बुखार हो गया। बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। हास्पिटल में एडमिट हो गई थी। घर से हास्पिटल में आना-जाना लगा था। माँ ने एक दिन वसुधा से कहा, “वसुधा, तू मदद के लिए आयेगी क्या? घर और बाहर दोनों सँभालने मुश्किल हो रहे हैं। मनु और तेरे पिताजी पंद्रह दिनों से नौकरी से छुट्टी पर थे, अब और नहीं ले सकते। तेरे घर तो खाना बनाने वाला, घर का काम करने वाले दोनों हैं। तू रह जा थोड़े दिन यहाँ। धरा को बुला लेती पर उसको पूरे घर की ज़िम्मेदारी है। कोई काम करने वाला भी नहीं है उसके यहाँ।”
वसुधा मना नहीं कर पाई। घर आ गयी। माँ रसोई संभालती। वसुधा रोली को नहलाना, दवाई सब करती। दो-तीन दिन में थक गयी। बहाना बना कर घर चली गई और कहा कि दीदी को बुला लो।
धरा ने जब सुना वसुधा चली गई, तो उसने माँ से कहा, “माँ, मैं रहने तो नहीं आ सकती। रोहित और बच्चों का खाना, उन्हें स्कूल, ऑफिस जाना है, पर मैं सुबह उन्हें भेज के आ जाया करुँगी रात तक।” सुबह खाना बनाकर, उन्हें स्कूल, ऑफिस भेज कर रोली का ध्यान रखती और रात को घर जाती। माँ भी रात का खाना धरा के परिवार के लिए बना देती जिससे उसे घर में ना बनाना पड़े।
रोली भी धरा को अपना ध्यान रखते देख रही थी। धरा दीदी को पकड़ कर गले लग गई, “बोली, अब मैं बिल्कुल सही हो गई हूँ दीदी। आपने इतने प्यार से संभाला।” हाथ जोड़कर बहुत शर्मिंदा थी, “दीदी मुझे माफ़ कर दो। मैंने अच्छा नहीं सोचा। वसुधा दीदी की अमीरी देखी पर आपकी दिल की अमीरी नहीं देख पाई। और आप ही काम आई मेरे। वसुधा दीदी की आप से तुलना कर बैठी।”
मैंने कभी भी ऐसा नहीं सोचा रोली। तुम मेरे लिए बहुत खास हो, जैसे मनु। ये बंधन तो प्यार का बंधन है, रिश्तों की मजबूत डोर है टूटेगी नहीं”, कहकर रोली को गले लगा लिया।
वसुधा आ गयी और बोली, “अरे वाह! माँ ने बताया रोली तुम बिल्कुल सही हो गई। मैं आ ही नहीं पाई। घर के काम ही कुछ ऐसे थे। बड़े-बड़े लोगों का आना-जाना है। तो मेरा वहाँ रहना भी ज़रूरी था।” वसुधा की आदत वही की वही थी।
सब बोले, “कोई बात नहीं। आने-जाने से नहीं जुड़े ये रिश्ते। ये तो रिश्तों की वो डोर है जो कभी नहीं टूटती। रोली ने धरा और वसुधा के गले लग कर कहा, “ये बंधन तो प्यार का बंधन है।”
दोस्तों, दिल की सुनें, दिमाग की नहीं। प्यार और पैसे की तुलना नहीं करें क्योंकि प्यार का कोई मोल नहीं।
मूल चित्र : Unsplash
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