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हम बच्चों की ज़िंदगी की तुलना अपनी ज़िंदगी से कभी नहीं कर सकते और न ही अपेक्षा कर सकते हैं। इस नए परिवेश में जीना आज उनकी आवश्यकता हो गई है।
“अमर, सुनो बेटा! तुम्हें बहु सीमा को लेकर जाना है अमेरिका तो जाओ, मैं रोकूँगी नहीं। पर हाँ, तेरे बाबूजी की तबियत नासाज रहने लगी है, और रिटायरमेंट भी नज़दीक ही है। तब तक, बीच-बीच में मिलने आ जाया करना बेटा।”
“हाँ माँ, वर्ष में एक बार ही तो अवकाश मिलता है हमें, तो हम ज़रूर आएँगे। क्या करें माँ, पढ़ाई-लिखाई आपने कराई, अब योग्यतानुसार हम दोनों भाईयों को अमेरिका में जॉब मिली है, तो करनी तो पड़ेगी ही न?”
सोमा और राजेश हमेशा यूँ ही आपस में परामर्श किया करते। ज़िंदगी की इन राहों में समय बहते पानी के प्रवाह की तरह कैसे गुजर गया, कुछ पता नहीं चला। दोनों बेटे भी देखते ही देखते बड़े हो गए, उनकी उच्च शिक्षा पूर्ण हुई और नौकरी भी मिल गई और एक बेटे अमर की शादी भी हो गई। दूसरे बेटे अजय की भी हो ही जाएगी। “बस इस सफर में समस्त ज़िम्मेदारियों को पूर्ण करते हुए रह गए तो सिर्फ हम अकेले, परंतु ऐसा सोचना नहीं,” सोमा ने राजेश से कहा।
“अरे राजेश, वैसे भी बच्चे आजकल की व्यस्ततम ज़िंदगी में व्यस्त ही रहेंगे, तो हमें तो अपनी ज़िंदगी अब अपनी मर्ज़ी से जीनी है न? मैंने तो हिंदी साहित्य-लेखन का अच्छा क्षेत्र चुन लिया है पहले से ही अपने लिए”, अब आप भी रिटायरमेंट पर कोई ज़रिया ज़रूर ढूंढ लीजिये अपने लिए।”
“हॉं सोमा, जानता हूँ। रिटायरमेंट के बाद का मैंने पहले ही सोच लिया है। मैं बागवानी करूँगा, जिससे सकारात्मकता तो आएगी ही और समय भी व्यतीत हो जाएगा। इसके अलावा मुझे किताबें, उपन्यास पढ़ने का भी काफी शौक रहा है शुरू से। खेल में तो रूचि थी ही, पर नौकरी करते हुए वह शौक पूरे नहीं हो पाए, जो अब मैं पूरे कर सकता हूँ और ऐसे कई शौक जो अधुरे रह गए हैं। चाहे वे तुम्हारे हों या मेरे, उन्हें पूरा करने का अवसर अब आया है हमारे लिए, जिनसे हम दोनों को नवीन ज़िंदगी का आरंभ करना है।”
इतने में अमर का फोन आया, वह माता-पिता से कहने लगा, “गुड न्यूज़ है! आप लोग दादा-दादी बनने वाले हैं!” यह सुनते ही राजेश और सोमा का खुशी का ठिकाना नहीं रहा, वह तो अच्छा हुआ कि पहले से ही विदेश जाने के लिए पास-पोर्ट बना ही हुआ था, बस अब वीज़ा लेकर सीमा के पास जाने की तैयारी करने लगे।
अमर ने बताया, “सीमा के माता-पिता भी वहीं आने वाले हैं।”
बस फिर क्या था, वैसे तो नए मेहमान को आने में अभी तीन माह का समय था, परंतु दादा-दादी बनने की खुशी चरम सीमा पर थी। सब कुछ भूलकर अब सिर्फ नए मेहमान का इंतजार और आतुरता के साथ जाने की तैयारी जारी थी।
इसी दौरान राजेश का रिटायरमेंट भी निश्चित था, सो छोटी सी पार्टी रखी, जिसमें खास-खास रिश्तेदारों को ही बुलाया था। अमर आया सिर्फ, उसे माता-पिता को साथ में भी तो ले जाना था। अजय को अवकाश नहीं मिलने के कारण वह नहीं आ पाया। बहरहाल रिटायरमेंट पार्टी की खुशी को बरकरार रखते हुए सभी अमेरिका के लिए रवाना हो गए।
वहॉं पहुँचते ही दस दिनों में ही अमर और सीमा को पुत्र रत्न की प्राप्ति लेकर आई परिवार में खुशियों की बहार, दादा-दादी और नाना-नानी जो मौजूद थे। इनकी खुशियों में बराबरी के साथ, मानों जैसे इनका बचपन लौटकर आया हो।
दादी और नानी तो लग गईं, जच्चा-बच्चा की लगातार सेवा में। दो माह बाद नामकरण संस्कार जो होना था। समय व्यतीत होते देर नहीं लगती, वह एक पल में आगे निकल जाता है। और इसी तरह से नामकरण संस्कार की विधि भी पूर्ण हो गई। अमर और सीमा यही सोचकर खुश हैं कि विदेश में बसने के बाद भी दोनों के माता-पिता हमारी इस खुशी में आनंदपूर्वक शामिल हुए।
फिर दोनों के माता-पिता का भारत लौटने का समय आता है, तब अमर और सीमा उनको बताते हैं, “अजय ने भी शादी के लिए यहीं की लड़की पसंद कर ली है, बस विवाह के लिए आपके ही आशीर्वाद की ज़रुरत है।”
राजेश और सीमा मन ही मन खुश होते हुए इस शादी के लिए राज़ी हो जाते हैं और कहते हैं, “हमारी सिर्फ़ एक ही शर्त रहेगी कि अजय की शादी हम भारत में ही करेंगे।”
दोनों समधी और समधनें साथ में ही खुशी-खुशी अपने घर लौट आते हैं। राजेश और सीमा आपस में बोलते हैं, “वर्तमान की इस व्यस्ततम ज़िंदगी के दौर में अपने बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी है। हम इनकी ज़िंदगी की तुलना अपनी ज़िंदगी से कभी नहीं कर सकते और न ही अपेक्षा कर सकते हैं, क्योंकि समय का दौर एक जैसा नहीं रहता, वह भी परिवर्तित होता रहता है। इस नई पीढ़ी को इस नए परिवेश में जीना आज की आवश्यकता हो गई है। साथ ही हमें भी इनकी खुशियों को अपनाते हुए नवीन ज़िंदगी का आरंभ करना होगा। हमें अधुरे शौक पूरे जो करना है।”
मूल चित्र : Unsplash
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