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क्यूँ वो दो दो घर होने के बावजूद किसी एक का भी अभिन्न हिस्सा नहीं है? क्यूँ उसे परिभाषित किया जाता है अलग अलग उपमाओं में?
दिल भर सा आता है अगर नज़र डालती हूँ औरतों की जिंदगानी पर।
क्या खूब क़िस्मत बनाई है रब ने उनकी, अक्सर कसी जाती है दूसरों की बनाई कसौटियों पर।
सबको खुश करने के चक्कर में उसकी अरमानों की पोटली कहीं पीछे छूट जाती है।
अलग अलग वज़हों से ही सही, न जाने कितनी बेड़ियों में बाँधी जाती है।
आज भी हम उठ नहीं पाए है, ‘ओह! आपके घर बेटी हुई है’ की मानसिकता से।
लड़कों के लिए अलग और लड़कियों के लिए बनाई गयी अलग परिभाषाओं से।
क्यूँ इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं का वो दर्ज़ा नहीं है?
क्यूँ वो दो दो घर होने के बावजूद किसी एक का भी अभिन्न हिस्सा नहीं है?
क्यूँ उसे परिभाषित किया जाता है अलग अलग उपमाओं में?
क्यूँ वजूद तलाशना पड़ता है अपना उसे अतीत की परछाइयों में?
जहाँ जन्म लिया, ‘ये तो पराया धन है’ कहकर विदा कर दिया जाता है।
और दूसरी ओर, ‘ये तो दूसरे घर से आई है’ कहकर सच में पराया कर दिया जाता है।
पूरी ज़िंदगी लगाने के बाद भी क्यूँ एक जगह उसकी अपनी नहीं बन पाती है?
कभी पिता तो कभी पति के नाम के साथ जुड़कर रहना ही उसकी तकदीर बन जाती है।
उसे और कुछ नहीं बस सम्मान और अपनापन चाहिए।
कोई न लगाए प्रश्न चिन्ह उसके व्यक्तित्व पर, उसे ये भरोसा चाहिए।
आशा करती है वो कि एक औरत की आवाज दूसरी औरत के द्वारा उठाई जाएगी।
जो उसने झेला है कभी, समय आने पर दूसरी औरत को झेलने से बचाएगी।
मूल चित्र : Pexels
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