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अपने पिता की अंत्येष्टि के बारे में पूजा कहती हैं, कि अगर लड़कियों को वाक़ई में सबके बराबर होना है तो इस बराबरी को जीवन के अंतिम पड़ाव तक भी ले जाना होगा।
मुझसे अक्सर लोग कहते हैं, मेरा नज़रिया बहुत अलग है।
मुझे लगता है ये ‘अलग’ होना मुझे मेरे दिवंगत पिता से मिला। लेकिन काफी सालों तक मुझे लगा ही नहीं कि वो बहुत अलग थे। जब पंद्रह साल की उम्र में उन्होंने मुझसे पीरियड्स की बात की, टेम्पोंस इस्तेमाल करना सिखाया या फिर कुछ सालों बाद सुरक्षित सेक्स की बात समझायी तो मुझे लगा सबके पिता ऐसा ही करते होंगे। करनी भी चाहिए माँ-बाप को ऐसी बातें, लेकिन फिर जाना कि नहीं, वो अपनी तरह के तब शायद अकेले ही थे।
अपने पिता की अंत्येष्टि करना मेरे लिए कोई बहादुरी का काम नहीं था, न ही उसका औचित्य या कोई सामाजिक उदहारण बनाना था। पर, जब लोगों ने मेरी अनुमति के बिना उस प्रक्रिया के व्हाट्सप्प वीडियो बना कर बांटे, शायद तब पहली बार मुझे लगा कि मुझे इसके बारे में लिखना चाहिए क्यूंकि ये आज भी अलग है, अनसुना है, सामान्य बिलकुल भी नहीं है।
मैं इसके बारे में लिखती हूँ, बोलती हूँ जबकि ये आसान बिलकुल नहीं, क्यूंकि वो अब इस दुनिया में नहीं है। लेकिन ये मेरा उनको एक तोहफा है। अगर एक भी पिता या बेटी ये पढ़ कर अलग सोचने लगे या ये सब थोड़ा सामान्य हो जाए, तो ये लिखना सार्थक होगा, बस इसीलिए लिखती हूँ।
बनारस की एक खूबसूरत सुबह, जब मैं बारह या तेरह साल की थी, मम्मी सो रही थीं, पापा ने कहा, “चलो जूते पहनो, चाय पी के आते हैं।” होटल घाट से बहुत दूर नहीं था। छोटी दुकान से कुल्हड़ में चाय ली और घाट की तरफ आ गए।
दुनिया के काम धीरे-धीरे शुरू हो रहे थे। थोड़ी ही दूर घाट पर पहला शव अंतिम संस्कार के लिए तैयार था। वो पूरी प्रक्रिया मैं और पापा दूर से चाय पीते हुए देखते रहे और उन्होंने मुझे सब समझाया। बीच में पूछते रहे, “तुम्हें डर लग रहा है, तो बताओ।” मुझे डर नहीं लग रहा था, पर शायद वो मेरा शमशान वैराग्य का पहला अनुभव था
सीढ़ियों से वापस ऊपर आते हुए वे बोले, “क्यूंकि मैं अभिभावक हूँ, चाहूँगा कि मैं पहले मरुँ और तब तुम्हें भी मेरे लिए ये करना पड़ेगा।” मैंने सिर्फ सिर हिलाकर हामी भरी।
ये पहली बार नहीं था कि पापा और मैं मृत्यु की बात कर रहे थे। हम हर बात पर बात करते थे, फिर चाहे वो माहवारी हो, लड़कियों के अधिकार हों या फिर मौत।
जिस देश में मैं रहती हूँ वहां परिवारों में मौत की बात नहीं की जाती, बेटियों से तो बिलकुल भी नहीं, क्यूंकि उनका इस से क्या लेना देना? वो पराये घर जाती हैं और वहां भी जीने-मरने के अधिकतर फैसले और कर्म-काण्ड पुरुष ही करते हैं, धर्म या जाति कोई भी क्यों न हो।
हालांकि अगले कुछ सालों में उन्होंने मुझे बहुत बार बताया कि कभी-कभी उनकी अपनी पारम्परिक परवरिश उनके आड़े आती थी और वो जैसी अनोखी परवरिश मुझे दे रहे थे, उसके बारे में वे खुद से भी बहुत सवाल पूछते थे। बहुत बार फिर उन्होंने पूछा, ‘तुम्हें डर तो नहीं लगेगा न?’
मेरा डर मौत या उससे जुड़े रीति रिवाज़ों से नहीं था, उनकी उम्र के बढ़ने और सेहत की परेशानियों के चलते मेरा डर उनको खोने का था।
२०१५ में जब उनकी मृत्यु हुई, एक दिन पहले ही मैं छत्तीस साल की हुई थी। मैं उनकी शादी-शुदा इकलौती संतान थी। उनकी इकलौती नाती, मेरी बेटी सिर्फ छः साल की थी। मैं जानती थी मुझे क्या करना है, लेकिन जब करने लगी तो समझ आया उसके रास्ते में कितनी बाधाएं हैं। पहला तो ये ही कि कैसी लड़की है रोती भी नहीं। एक औरत को कैसे दुःख मनाना है ये भी समाज तय करेगा?
धर्म के हिसाब से मेरा और मेरे पिता का गोत्र अब एक नहीं था, और वो धर्म मानने वालों के लिए समस्या थी। मैं अपनी माहवारी में थी, ये भी धर्म और शुचिता वालों के लिए समस्या थी। और, औरतें ये सब करने लगेंगी तो हम क्या करेंगे ये पुरुषों की समस्या थी। लेकिन मैं जानती थी मुझे क्या करना है। मेरे लिए ये कोई बहादुरी नहीं थी। ये मेरे पिता का अधिकार था कि वो तय करें कि उनके पार्थिव शरीर के साथ क्या हो, और उनकी संतान होने के नाते वो अधिकार मेरा भी था। मेरा औरत होना, विवाहित होना इसके आड़े कैसे आ सकता था?
उनके मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए जब मैंने दाहगृह से प्रमाणपत्र माँगा तो पता चला कि कर्त्ता (अंतिम संस्कार करने वाले) के लिए उनके सॉफ्टवेयर में सिर्फ पुरुष सम्बन्धियों के विकल्प हैं। मेरे नाम के आगे छपा हुआ आया, मृतक से सम्बन्ध – पुत्र जिसे लाल सियाही से काट के पुत्री किया गया।
लड़कियों की बराबरी की बात अक्सर शिक्षा या आर्थिक आत्मनिर्भरता पर आ कर रुक जाती है। अधिकतर लोगों के लिए इनके बाद भी लड़की का विवाहित होना (अपने धर्म और जाति में) बहुत ज़रूरी है और उस विवाह को किसी भी कीमत पर बचाये रखना भी। जो थोड़े अधिक प्रगतिशील हैं, वो बहनों/बेटियों को जायदाद में बराबर हिस्सा भी देने लगे हैं, हालाँकि इनकी संख्या भी अभी बहुत कम है। लेकिन ऐसे कितने परिवार हैं जो बेटों के होते हुए भी ये आखिरी अधिकार बेटियों को भी देंगे ?
ऐसी कितनी बेटियाँ या बहनें हैं जो जायदाद में अपना हक़ लेंगी हक़ समझकर, और भाई-भाभी नाराज़ होंगे इससे नहीं डरेंगी? कितने बेटियाँ कहेंगी मेरा हक़ है अपने माता-पिता का अंतिम संस्कार करना जितना उनके बेटे का हक़ है यह।
इस पूरी प्रक्रिया में मैंने जाना की लैंगिक मतभेद परिवारों में भी कितना गहरा बैठा है। हर कदम पर मुझसे हज़ार सवाल किये गए क्यूंकि मैं उनका बेटा नहीं थी। मुझे बेटा होना भी नहीं था, और बेटे जैसी बेटी तो बिलकुल भी नहीं। मुझे बेटी ही रहना है, लेकिन बराबर इंसान।
अपने पिता की अंत्येष्टि के अनुभव को याद कर के पूजा कहती हैं, “इस बारे में अक्सर लोग पूछते हैं अगर तुम्हारा भाई होता तो? और मैं फिर वही कहती हूँ, तो भी मैं वही करती जो मैंने किया, भाई के साथ मिलकर करती पर करती ज़रूर, क्यूंकि मेरा मानना है लड़कियों को अगर वास्तविकता में बराबर होना है, तो परिवारों में व्यवहारिक बराबरी को जीवन के इस अंतिम पड़ाव तक भी ले जाना होगा।”
मूल चित्र : By Unknown
Pooja Priyamvada is an author, columnist, translator, online content & Social Media consultant, and poet. An awarded bi-lingual blogger she is a trained psychological/mental health first aider, mindfulness & grief facilitator, emotional wellness read more...
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