कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

क्या आज भी हमारे समाज को कबीर सिंह जैसी फिल्मों की ज़रुरत है?

हमारे देश के वर्तमान में महिलाओं की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है, ऐसे में कबीर सिंह जैसी फ़िल्में आग में घी डालने के जैसी हैं।

हमारे देश के वर्तमान में महिलाओं की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है, ऐसे में कबीर सिंह जैसी फ़िल्में आग में घी डालने के जैसी हैं।

पिछले दिनों रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘कबीर सिंह’ काफी चर्चा में रही। इस फिल्म को देखने की मुझे पहले बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी, न ही कोई प्रभावित पहलू था जो मुझे आकर्षित कर पाता। मैंने फ़िल्म रिलीज़ होने के दो हफ्ते बाद देखी, जब मेरे कुछ करीबी दोस्तों द्वारा फ़िल्म को मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली। कुछ ने बोला बहुत अच्छी मूवी है। किसी ने महिला विरोधी बताया, तो किसी ने बोला के इस फ़िल्म में भी पितृसत्ता की झलक देखने को मिलती है।

खैर, मैंने सभी बातों और विचारों को दरकिनार करते हुए और नॉन जजमेंटल होते हुए फ़िल्म देखी और महसूस किया के यह फ़िल्म पूरी तरह से मर्दवाद पर आधारित है, जिसमें औरत को एक कमज़ोर और असहाय इंसान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। मैं इतना महसूस कर सकता हूँ कि फ़िल्म में कोई भी ऐसा सभ्य और प्रभावशाली दृश्य नहीं था जिससे समाज पर कोई सकरात्मक प्रभाव पड़ता

संदीप रेड्डी के दर्शक फ़िल्म का पूरा लुत्फ़ उठाते हैं। जब कबीर प्रीति को थप्पड़ मारता है, तब वो तालियां बजाते हैं और पूरा सिनेमाहाल तालियों से गूंज उठता है। वहीं अन्य दृश्य में कबीर अपनी कामवाली बाई को दौड़ाता है, तब वो हंसते हैं। वो उस स्थिति पर हंसते हैं जब एक ग़रीब औरत को कांच का ग्लास तोड़ने के लिए पीटने के लिए दौड़ाया जा रहा है। यह हंसने वाले कोई और नहीं हमारे समाज में पनपने वाले कीचड़ हैं जो अपने साथ-साथ दूसरों का जीवन भी भृष्ट कर देते हैं। वो उस सीन पर भी खिलखिलाते हैं जब कबीर किसी लड़की को चाक़ू दिखाकर उससे कपड़े उतारने को कहता है।

पितृसत्ता के बनाये मर्द का निर्देशन

इस फ़िल्म का निर्देशक एक पुरुष है जिसकी सोच में मर्दवाद की अवधारणा घर किए हुए है। संदीप रेड्डी वांगा इस फ़िल्म के निर्देशक भी हैं और लेखक भी। संदीप का इन दिनों एक इंटरव्यू बहुत तेज़ी से वायरल हो रहा है और कई लोग, महान हस्तियां उनके विरोध में आ गईं हैं और कुछ उनके सपोर्ट में हैं। संदीप ने अपने इंटरव्यू में कहा है कि ‘अगर दो लोगों के बीच एक दूसरे को थप्पड़ मारने, एक-दूसरे को गाली देने की आज़ादी नहीं है तो शायद ये सच्चा प्यार नहीं है।’ उन्होंने अनुपमा चोपड़ा को दिए इंटरव्यू में कहा कि ‘ग़ुस्सा सबसे असली जज़्बात है और रिश्तों में लोगों को अपने पार्टनर को जब चाहे छूने, किस करने, गाली देने और थप्पड़ मारने की आज़ादी होती है।’ रेड्डी की ये बातें मुझे मूल रूप से महिला विरोधी लगीं और यह साफ तौर पर महसूस भी किया जा सकता है। मैं पुरुष हूँ और नारीवादी भी, मैं किसी भी प्रकार की हिंसा को न तो बढ़ावा दे सकता हूँ और ना बढ़ने दे सकता हूँ।

मैं इनसे कभी निजी तौर पर न तो मिला हूँ ना इनके बारे में मुझे अधिक ज्ञान है। मगर इनके इन शब्दों के पीछे छिपे संदर्भ को हम सब लगभग समझ चुके हैं। उनका यह कहना महिला हिंसा को बढ़ावा देने वाला है

हिंसा जायज़ ही नहीं है

ऐसी स्थिति घरेलू हिंसा की है। संदीप रेड्डी वंगा भले ही प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के रिश्ते में थप्पड़ मारने को प्यार करार दें, लेकिन भारतीय कानून इसे डोमेस्टिक वॉयलेंस यानी घरेलू हिंसा मानता है। यह शायद संदीप रेड्डी जैसे मर्दों की सोच का ही नतीजा है कि नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक, हमारे यहां 15 से 49 साल की उम्र तक 27 फीसद महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार होती हैं, जबकि 31 फीसद शादीशुदा महिलाएं अपने पति द्वारा शारीरिक, भावानात्मक या यौनिक हिंसा झेलती हैं। इसमें शारीरिक हिंसा सबसे आम (27 प्रतिशत) होती है। इसी वजह से बहुत सी प्रगतिशील महिलाओं ने खुलकर संदीप रेड्डी के इस बयान की आलोचना की। मैं अक्सर तमाम सामाजिक मुद्दे पर बेबाक राय रखने वाला हूँ। हम यहां फिल्म की बात नहीं कर रहे मैं असल जिंदगी की बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि किसी भी प्यार वाले रिश्ते में हिंसा जायज़ ही नहीं है।’

जैसे संदीप रेड्डी कह रहे हैं, वैसा हम अपने समाज में देखते हैं कि जिससे हम सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, उसी पर हक जताते हैं और गुस्सा निकालते हैं, मारपीट भी करते हैं। लेकिन किसी पर हाथ उठाना या गाली देना प्यार या इज़्ज़त के दायरे में नहीं आता है। यह घृणा करने वाली चीज़ है। हिंसा, चाहे वो किसी भी तरह की हो, गलत ही है। आप हिंसा का समर्थन किसी भी कीमत पर नहीं कर सकते और रिश्तों में तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि इससे आप रिश्ते की गरिमा का बहिष्कार करते हैं। यह बेतकल्लुफ़ी या लिबर्टी की बात नहीं है।

प्यार एक बहुत ही ख़ास हिस्सा होता है हमारे जीवन का। हम एक-दूसरे से सब कुछ शेयर कर सकते हैं, हमारे पास लिबर्टी है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि अपना फ्रस्ट्रेशन या निराशा एक-दूसरे पर हिंसा के रूप में निकालें। यह मुझे सही नहीं लगता। आप इसे पजेसिवनेस का नाम भी नहीं दे सकते। यह अब्यूज़ ही है, लेकिन हमारे यहां बेवजह उस हिंसा को स्वीकार करने का दबाव डाला जाता है। जब भी कोई विरोध करता है, तो हिंसा करने वाला कहता है कि ये प्यार है, आप समझ नहीं पाए। इसका नतीजा यह होता है कि लोग रास्ते चलते महिलाओं, कॉलेज जाती बच्चियों को स्टॉक करते हैं कि ये प्यार है, आप अक्सेप्ट कर लो। अगर लड़की मना करती है, तो उस पर ऐसिड डाल दिया जाता है या उसे कॉलेज बदलना पड़ता है। यह सब उसे क्यों करना पड़े? ये मानसिकता हमारे समाज के लिए ही ठीक नहीं है। मुझे लगता है कि ऐसी मानसिकता को हमें समर्थन नहीं देना चाहिए।’

प्यार ‘इज़्ज़त’ से पनपता है ‘मारपीट’ से नहीं

शक्तिशाली का किसी कम बलशाली मनुष्य के ऊपर हाथ उठाना या अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करना हिंसा ही है। वह चाहे पति अपनी पत्नी के साथ करता हो या कोई पत्नी अपने पति के साथ। कोई इतनी बेवकूफाना बात कैसे कह सकता है कि अगर आप प्यार या रिलेशनशिप में हैं, तो आप एक औरत को मार सकते हैं। यह किसी भी संस्कृति में किसी भी तरह से सही नहीं है। मुझे बहुत अफसोस है कि इतनी बड़ी फिल्म के डायरेक्टर का माइंडसेट ऐसा है। ऐसे इंसान को शर्म आनी चाहिए। आप थप्पड़ मारने का सामान्यीकरण नहीं कर सकते। इससे दिखता है कि आप एक सेंसिबल या समझदार इंसान नहीं हैं। वह किसी और दुनिया में ही रह रहे हैं, जहां सिर्फ मर्दवाद ही अहम है। सच्चे प्यार में इज़्ज़त होती है। प्रेम की जो परिभाषा मैंने जानी है, उसके हिसाब से मेरा प्रेम किसी को मारना नहीं सिखाता है।

पिछड़ा हुआ बॉलीवुड

फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म का वह दृश्य जिसमें दिलीप कुमार, मधुबाला को चहरे पर थप्पड़ मारते हैं, दृश्य तो फ़िल्म का हिस्सा था, मगर दिलीप कुमार ने हक़ीक़त में मधुबाला के मुँह पर अपनी ताकत के हिसाब से ज़ोरदार चांटा मारा था, बाद में बदस्तूर ये कहानी फैलाई गई के दिलीप जी मधुबाला से बेइंतेहा प्यार करते हैं इसलिए थप्पड़ मारा, ऐसा कैसे हो सकता है?

आप जिसे सच्चे दिल से प्यार करते हैं तो आप उसकी तकलीफ को कैसे नज़र अदाज़ कर सकते हैं? नही! बिल्कुल भी यह प्यार का हिस्सा नहीं, यह खुले आम महिलाओं के प्रति हिंसा है। इस फ़िल्म को बने हुए ना जाने कितने दशक बीत गए, मगर एक पुरुष की घिनौनी सोच वहीं की वहीं है। संदीप द्वारा दिया गया ये साक्षात्कार केवल यह एक बातचीत नहीं थी। इन वाक्यों ने हमारे समाज मैं फैली हुए मर्दवादी विचारधारा को उजागर कर दिया है। ऐसी ना जाने कितनी ही सोच होंगी जो महिला विरोधी हैं, ऐसी हिंसा से और ऐसे प्रेम से उपजे रिश्तों का कोई आधार नहीं होता और ऐसे वातावरण में जन्म लेने वाले बच्चे भी ऐसी ही धारणा लिए हुए पैदा होते हैं, और कई वंशों को प्रभावित करते हैं। इसलिए आज हमारा भारत ना जाने कितने ही समस्याओं से जूझ रहा है।

यह एक बेहद दुखद हालत है जो मेरे अस्तित्व को झकझोर कर रख देती है, जिसमें किसी महिला पर अत्याचार या हिंसा कर के मनोरंजन किया जाता हो। मेरी व्यक्तिगत सोच यह है की सेंसर बोर्ड को ऐसी फिल्म या धारावाहिकों पर रोक लगानी चाहिए जो हमारे समाज के लिए नुकसानदेह साबित होती हैं, हमारे देश के वर्तमान में महिलाओं की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है, ऐसे में कबीर सिंह जैसी फ़िल्में आग में घी डालने के जैसी हैं।

मूल चित्र : YouTube 

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

96 Posts | 1,403,563 Views
All Categories