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आज मेरा मन किचेन में जाने का नहीं है, रविवार को तो मेरी भी छुट्टी है, और एक दिन तो मुझे भी आपकी तरह पूरा आराम करने का हक़ है।
रविवार का दिन था, सो अलसाई सी मोना को रज़ाई से बाहर निकलने का बिल्कुल भी मन नहीं था। गुलाबी ठंड में देर तक सोने का आनन्द ही कुछ और है और फिर छ: दिनों के लम्बे इंतज़ार के बाद तो रविवार आता है। मोना का मन हो रहा था कि काश उसे कोई एक प्याली गर्मागर्म चाय पिला दे, वैसे ही जैसे शादी से पहले मम्मी पिलाया करती थीं।
उसकी शादी को लगभग आठ महीने हो चले थे। इन आठ महीनों में कोई भी दिन ऐसा नहीं गुज़रता था जब मोना अपनी मम्मी को याद न करती हो। मायके में सबसे छोटी होने के कारण वह सबकी लाडली थी। मम्मी, पापा व दोनों भैया उस पर जान छिड़कते थे।
बडे़ नाज़ों से पली मोना की ससुराल में सास-ससुर के अलावा उसका एक छोटा देवर और एक ननद रहते थे। विवाह के पश्चात मोना सभी ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभा रही थी, परन्तु कभी-कभी उसका मन इन ज़िम्मेदारियों से भागने का करता। मोना रोज़ सुबह जल्दी उठ कर घर के सब काम निपटाती, सास-ससुर का नाश्ता-खाना, पति दीपक, देवर, ननद और अपना टिफ़िन भरते-भरते ही नौ बज जाते। फिर जल्दी-जल्दी तैयार होकर ऑफ़िस भागती। दिन भर ऑफ़िस में खट कर, थक कर चूर हो जब घर लौटती, तो फिर घर का काम उसे मुँह चिढ़ाता सा मिलता। रात तक निढाल हो मोना बिस्तर पर पड़ जाती। प्रत्येक सप्ताह सोमवार से शनिवार तक मोना की यही दिनचर्या रहती।
बिस्तर पर लेटे हुए मोना चाय के बारे में सोच ही रही थी कि दीपक की प्यार भरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी, “आज उठने का इरादा नहीं है क्या बेगम साहिबा? आज तो रविवार है। आज तो कुछ स्पेशल खिलाइये अपने इस प्यारे से पति को।”
“आज मेरा मन किचेन में जाने का नहीं है। रविवार को तो मेरी भी छुट्टी है। और, एक दिन तो मुझे भी आपकी तरह पूरा आराम करने का हक़ है”, मुस्कुराते हुए मोना ने जवाब दिया।
“अरे मज़ाक़ छोड़ो, उठो और चाय बनाओ प्लीज़। माँ भी सवेरे से दो बार चाय के लिये पूछ चुकी हैं”, दीपक ने थोड़ा ज़ोर देकर कहा।
“हाँ, उठ रही हूँ। अभी बनाती हूँ”, मोना की मुस्कुराहट अचानक ग़ायब हो गई और आँखों से दो बूँद आँसू छलक पड़े।
“यह क्या? इसमें रोने की क्या बात है”, दीपक ने आश्चर्य से पूछा।
“कुछ नहीं, बस मम्मी की याद आ गई। मम्मी अक्सर चाय बना कर मुझे उठाया करतीं थीं”, मोना ने धीरे से उत्तर दिया और किचेन की ओर चाय बनाने चल दी।
दीपक वहीं बैठे-बैठे सोचने लगा, इन आठ महीनों में कितनी मुरझा सी गई है मोना। जब वह मोना को दुल्हन बनाकर लाया था तो वह कैसे हमेशा चहकती रहती थी। मोना जैसी सुन्दर और सुशील पत्नी पाकर वह निहाल हो गया था। विवाह के समय उसने मोना के माता-पिता से वादा किया था कि मोना को हमेशा ख़ुश रखेगा। अपने माता-पिता के घर फूल की तरह पली बढ़ी मोना को विवाह के तुरंत बाद ही गृहस्थी के बोझ तले दब सी गई है। वह, उसके माँ-पापा, भाई-बहन, सब अपनी सारी आवश्यकताओं के लिये मोना पर ही पूरी तरह निर्भर हैं। मोना घर का सारा काम कर के ऑफ़िस जाती है और लौट कर फिर घर के कामों में उलझ जाती है। वह ऐसा क्यों सोचता रहा कि गृहणी होने के नाते सारे काम मोना के ही हैं। मोना तो उसकी अर्द्धांगिनी है, मोना के सुख दुख का ख़्याल वह नहीं रखेगा तो कौन रखेगा।
यह सोचते-सोचते दीपक भी किचेन में पहुँच गया। उसने देखा मोना चाय के प्याले ट्रे में रख रही थी।
“तुम कमरे में चल कर बैठो, मैं माँ-पापा को चाय दे आता हूँ, फिर हम दोनों साथ में चाय पियेंगे”, दीपक ने मोना की आँखों में झाँकते हुए कहा। मोना को आश्चर्यचकित देख दीपक ने पुन: अपनी बात दोहराई।
दीपक जब चाय लेकर अपने माँ और पापा के कमरे में गया तो वे दोनों चौंक पड़े, “अरे बेटा, तुमने क्यों तकलीफ़ की। बहू को क्या हुआ?” दोनों ने एक स्वर में पूछा।
“हाँ माँ, आज मोना का मन थोड़ा आराम करने का है। वैसे चाय उसी ने बनाई है। और हाँ, आज नाश्ता मैं बनाऊँगा। अब से प्रत्येक रविवार हम सब मिल कर बाहर घूमने चला करेंगे और खाना बाहर से खाकर लौटा करेंगे”, दीपक दृढ़ स्वर में अपने माँ-पापा से बोला।
“पर बेटा घर संभालने की ज़िम्मेदारी तो बहू की है। सभी की तो बहुएँ घर संभालती हैं”, दीपक की माँ ने तर्क दिया।
“हाँ माँ, घर संभालने की ज़िम्मेदारी तो मोना की है, पर मोना को ख़ुश रखने की ज़िम्मेदारी तो हम सब की है”, दीपक मुस्कुरा कर बोला और मोना के साथ चाय पीने के लिए अपने कमरे की ओर बढ़ चला।
कमरे के बाहर खड़ी मोना ने दीपक और उसके माँ-पापा के बीच हो रहे संवाद को सुन लिया था। अपने कमरे में दीपक के साथ चाय पीते समय उसे अपनी ही बनायी चाय में अलग सी मिठास लग रही थी। आज का रविवार ख़ुशनुमा बन गया था।
मूल चित्र : Unsplash
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