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इस दीवाली मैंने, सरला भाभी के निराशा भरे जीवन में उम्मीद की रोशनी जलाने का संकल्प कर लिया है और अब मेरी उद्विग्नता, मानसिक शांति में परिवर्तित हो चुकी है।
दीवाली आने वाली है और घर में पड़े ढेरों काम मुझे जैसे मुँह चिढ़ा रहे हैं। मैं चाय की प्याली हाथों में लेकर मन में उठ रहे भावनाओं के झंझावातों से जूझ रही हूँ। जब से मैंने सरला भाभी को देखा है, स्मृतियाँ बिना मेरी आज्ञा के मेरे भीतर घुसती चली आ रहीं हैं।
दो दिन पहले की बात है, बाज़ार में सब्ज़ी की दुकान पर सहसा अपना नाम ‘मीनू’ सुनकर मैं चौंक पड़ी। इस नाम से तो मुझे केवल सरला भाभी ही पुकारा करती थीं, बाक़ी सभी के लिये तो मैं ‘मंजरी’ थी।
“सरला भाभी आप? इतने सालों बाद? कैसी हैं? कहाँ हैं आजकल? कितनी कमज़ोर हो गई हैं!” मैंने उत्सुकता में कई प्रश्न एक साथ पूछ डाले।
“ठीक हूँ। दो महीने पहले ही इस शहर में आई हूँ। तेरे भैया का यहीं ट्रान्सफर हो गया है। तू बता कैसी है? कितने बच्चे हैं?” फीकी सी मुस्कान के साथ सरला भाभी ने कहा।
“मैं तो अच्छी हूँ भाभी। दो बेटे हैं। घर चलिये न, आराम से बैठ कर बातें करेंगे”, मैं उत्साहित होकर बोली।
“आज नहीं मीनू, कल आती हूँ। तुझसे ढेर सारी बातें करनी हैं।” सरला भाभी ने मेरा पता और मोबाइल नम्बर लिया और बाज़ार की भीड़ में ओझल हो गईं।
सरला भाभी से मेरी मुलाक़ात लगभग पचीस वर्ष पूर्व हुई थी, जब मैं अपने विवाह के बाद पवन के साथ जबलपुर गई थी। पवन और महेन्द्र भैया एक ही सरकारी कम्पनी में कार्य करते थे। कम्पनी के सभी अधिकारी, कम्पनी द्वारा दिये गये सरकारी आवासों में रहते थे।
महेन्द्र भैया और सरला भाभी का घर हमारे घर के सामने ही था। वे दोनों ही उम्र में हमसे काफ़ी बड़े थे अत: पवन उनका बड़े भाई और भाभी की तरह ही सम्मान करते थे। मेरे जबलपुर पहुँचने पर महेन्द्र भैया और सरला भाभी ने हमें अपने घर भोजन पर बुलाया था। तभी सरला भाभी से मेरी पहली मुलाक़ात हुई। सरला भाभी अपने नाम के अनुरूप ही सरल स्वभाव की घरेलू सी महिला थीं। वे अधिक पढ़ी-लिखी तो न थीं, परन्तु घर के सभी कामों में निपुण थीं। खाना तो वे इतना स्वादिष्ट बनातीं कि हम उँगलियाँ चाटते रह जाते। जब हमारे पति ऑफ़िस चले जाते तो अक्सर वे या तो मेरे घर चलीं आतीं या मुझे अपने घर बुला लेतीं और मुझे पाक कला, सिलाई, कढ़ाई या बुनाई से सम्बन्धित गुर सिखाती रहतीं। कुछ ही समय में सरला भाभी के प्रेम, स्नेह एवं अपनत्व से अभिभूत मैं, उन्हें अपनी बड़ी बहन की तरह ही मानने लगी थी। महेन्द्र भैया की कमाई अच्छी होने के कारण, सरला भाभी एक से एक महँगी साड़ियाँ व ज़ेवर पहन ठसक से रहतीं थीं और उनके घर में भी सुख-सुविधाओं के समस्त साधन उपलब्ध थे।
उनके जीवन में बस एक कमी थी कि उनके विवाह के बारह वर्ष बीत जाने के उपरान्त भी उनकी गोद सूनी थी। सभी तरह के उपाय जैसे चिकित्सकीय इलाज, नीम हकीम, झाड़-फूँक आदि करने के बावजूद भी उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ था। एक दिन बातों-बातों में मैं उनसे पूछ बैठी थी, “भाभी, आप किसी जान पहचान या अनाथालय से बच्चा गोद क्यों नहीं ले लेतीं?”
तो वे उदास होकर बोलीं थीं, “बच्चा गोद लेने के लिये तेरे भैया तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि अनाथालय से गोद लिये बच्चे के संस्कार कैसे हों पता नहीं और जान-पहचान या रिश्तेदारी से गोद लेने से पारिवारिक सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।”
कुछ समय बाद पवन का जबलपुर से स्थानान्तरण दिल्ली हो गया था। दिल्ली आकर मैं घर गृहस्थी और बच्चों में ऐसा रम गई थी कि महेन्द्र भैया और सरला भाभी से नाता लगभग टूट सा गया था। शुरु-शुरु में तो यदा-कदा सरला भाभी के पत्र आ जाया करते थे, परन्तु इधर तो कई सालों से उनका कोई हाल नहीं मिला था।
“दीदी खाने में क्या बनाऊँ?” कमली ने पूछा तो मैं स्मृतियों की गली से निकल कर वर्तमान में आ पहुँची। कमली को खाने का बता कर मैं अपने बंगले के बरामदे से निकल लॉन में आ गई। इस मौसम की कुनकुनी सी धूप मुझे बहुत पसन्द है। लॉन में पड़ी बेंत की कुर्सी पर बैठी तो कल शाम सरला भाभी से हुई मुलाक़ात याद आने लगी और मेरा मन उद्विग्न हो उठा।
कल दोपहर को खाना खाकर लेटी ही थी कि सरला भाभी का फ़ोन आ गया, “मैंने डिस्टर्ब तो नहीं किया मीनू? क्या शाम को तुमसे मिलने आ सकती हूँ?”
“अरे भाभी, इतना औपचारिक होने की ज़रूरत नहीं। आपका ही घर है। बिलकुल आइये”, मैंने उत्तर दिया। दरअसल मैं स्वयं ही यह जानने के लिये बेचैन थी कि इतनी ठसक के साथ रहने वाली सरला भाभी क्यों इतनी कमज़ोर और मुरझाई सी लग रहीं थीं।
शाम होते होते सरला भाभी आ गईं थीं। साधारण सी साड़ी और अधपके बालों का जूड़ा, निस्तेज सी आँखें और पहले की तुलना में लगभग आधी हो चुकी जीर्ण शीर्ण काया। कमली को चाय बनाने को बोल हम दोनों यहीं लॉन में पड़ी कुर्सियों पर बैठ गये। थोड़ी देर तक औपचारिक बातें होती रहीं फिर मैं उनसे वही सवाल पूछ बैठी जो मुझे परेशान कर रहे थे।
“महेन्द्र भैया कैसे हैं? आप इतनी कमज़ोर क्यों दिख रही हैं? तबियत तो ठीक रहती है न आपकी?”
सरला भाभी ने दीर्घ नि:श्वास लेकर कहा, “लम्बी कहानी है मीनू। सुनेगी? सच, जीवन में कोई तो ऐसा होना चाहिये न जिसके सामने इंसान अपने मन की बातें खुल कर कह सके। कल तुझे बाज़ार में देख कर लगा कि तेरे सामने मैं अपने मन की गिरहें खोल सकती हूँ। इसीलिये बिना प्रतीक्षा किये आज ही तुझसे मिलने चली आई।”
“हाँ कहिये न भाभी। महेन्द्र भैया तो ठीक हैं न?” उनकी बात सुन कर मेरे मन में न जाने कैसे यह सवाल आ गया और मैं बिना सोचे समझे सरला भाभी से यह सवाल पूछ बैठी। हालाँकि अगले ही पल मुझे अपनी ही सोच पर ग्लानि हुई क्योंकि भाभी की माँग में चमकता सिंदूर व माथे पर हमेशा की तरह बड़ी सी बिंदी, महेन्द्र भैया के सही सलामत होने की गवाही दे रहे थे।
“हाँ वे बिलकुल ठीक हैं, बस मैं ही अब ठीक नहीं हूँ”, भाभी ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा।
“विस्तार से बताइये न भाभी, आप मेरे सामने अपने मन की गिरहें निश्चिन्त हो कर खोल सकती हैं”, मैंने कहा।
“तू तो जानती है मीनू, मेरी कोख हरी नहीं हुई और तेरे भैया बच्चा गोद लेने को तैयार ही नहीं थे। बच्चे न होने की वजह से तेरे भैया और मेरे बीच दूरियाँ पनपने लगीं थीं। ससुराल के सारे रिश्तेदारों के बीच मैं बाँझ के रूप में बदनाम हो चुकी थी और सभी की सहानुभूति तेरे भैया के साथ थी। तुम लोगों के दिल्ली ट्रान्सफर होने के कुछ महीनों बाद ही हमारा भी ट्रान्सफर भोपाल हो गया”, कहते-कहते सरला भाभी की आँखें नम हो चलीं थीं।
“फिर क्या हुआ भाभी?” मैं आगे की कहानी जानने के लिये उत्सुक थी।
“भोपाल पहुँच कर हमने अपना सामान जमाया और लगभग पैंतीस वर्ष की तीन बच्चों की माँ सुनीता हमारे यहाँ काम करने के लिये आने लगी। साधारण नाक-नक़्श की साँवली और गठीले बदन की सुनीता काम काज में बहुत फ़ुर्तीली थी। इसी बीच मेरी माँ बीमार पड़ गईं और मेरी भाभी के नौकरी में होने के कारण मैं उनकी देखभाल करने के लिये मायके चली गई। फिर माँ का देहान्त हो गया, इसी कारण से मैं लगभग डेढ़ महीने तक मायके में ही रह गई। माँ के देहान्त पर दो दिन के लिये तेरे भैया भी आये, परन्तु उनका रुखा व्यवहार और अलग से रंग-ढंग देख कर मुझे वे अपने पति कम और एक अजनबी से अधिक लगे”, कहते-कहते सरला भाभी की आँखों से आँसू बह निकले।
“क्या कह रहीं हैं भाभी? महेन्द्र भैया तो कितने सीधे और सज्जन हुआ करते थे”, मुझे अपने कानों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ।
“मीनू, पुरुष शायद जल्दी कमज़ोर पड़ जाता है। जब मैं भोपाल लौट कर आयी, तब तक सुनीता मेरे शयनकक्ष पर क़ब्ज़ा जमा चुकी थी। वह अपने शराबी पति और तीन बच्चों को छोड़ कर हमारे ही घर में रहने लगी थी। जब मैंने विरोध किया तो तेरे भैया ने कहा कि मैं बाँझ हूँ, उन्हें संतान का सुख नहीं दे सकती, इसलिये उनका परस्त्री से सम्बन्ध रखना जायज़ है। ससुराल वाले तो वैसे ही मेरे ख़िलाफ़ थे, मेरे भाई-भाभी ने भी मेरा दर्द नहीं समझा। मैं उसी घर में रहने को विवश थी। अपनी आँखों के सामने तेरे भैया की रंगरेलियाँ देखने की वेदना और एक नौकरानी द्वारा अपने अस्तित्व का अपमान मेरे लिये असहनीय हो रहा था। कई बार आत्महत्या जैसे नकारात्मक विचार भी मेरे दिमाग़ में आते थे पर उन विचारों को असलियत में बदलने की हिम्मत मुझमें नहीं थी”, अब भाभी फूट-फूट कर रोने लगीं थीं।
“पर भैया ऐसा कैसे कर सकते हैं आपके साथ? आपने उनके ऑफ़िस में शिकायत नहीं की?” मैंने उन्हें पानी का गिलास पकड़ाते हुए कहा।
“तू क्या सोचती है मीनू, मैंने ऐसा नहीं किया होगा? तेरे भैया भी अच्छी तरह से जानते थे कि वे एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह नहीं कर सकते, वरना उनकी सरकारी नौकरी चली जायेगी, इसलिये समाज की नज़र में तो उनकी पत्नी मैं ही हूँ। मेरी शिकायत पर जब ऑफ़िस के अधिकारी छान-बीन करने के लिये घर पर आए तो तुम्हारे भैया ने उनसे कहा कि उनकी पत्नी (अर्थात मैं) संतान न होने के कारण अपना मानसिक संतुलन खो बैठी हूँ, इसीलिये उन पर अनर्गल आरोप लगा रही हूँ और उन्होंने मेरी देखभाल के लिये सुनीता को रखा है। बताओ मीनू क्या मैं पागल लगती हूँ?” सरला भाभी ने रोते हुए मुझसे पूछा।
“बिलकुल नहीं भाभी। तो क्या अब भी सुनीता आप लोगों के साथ ही रहती है?” मैंने पूछा।
“नहीं, तुम्हारे भैया ने भोपाल में सुनीता के लिए एक फ़्लैट ख़रीद दिया है। उनके सुनीता से दो बच्चे भी हैं, एक बेटा और एक बेटी। सुनीता बच्चों के साथ वहीं रहती है। तुम्हारे भैया अपनी पूरी तनख़्वाह उन्हीं लोगों पर ख़र्च करते हैं। मैं तो बस उनके फेंके हुए टुकड़ों पर जी रही हूँ। जानती हूँ जब तक तेरे भैया की नौकरी है तब तक ही दो वक़्त की रोटी भी मिल रही है। उसके बाद तो वे मुझे साथ नहीं रखेंगे तब शायद सड़कों पर भीख माँग कर मुझे अपना पेट भरना पड़ेगा। पढ़ी-लिखी तो हूँ नहीं कि कोई मुझे नौकरी देगा। पीड़ा और अपमान सहते-सहते मुझे स्वयं से घृणा होने लगी है। पता नहीं कब तक जीवन में इसी तरह घुटना लिखा है?” सरला भाभी फूट-फूट कर रो रहीं थीं।
तब तक कमली चाय ले आयी थी। मैंने उन्हें सांत्वना दिया। उन्होंने चाय पी और कुछ देर बैठ कर वापस चली गईं। उनके दुख के बारे में सोच कर मेरा मन भी विचलित हो गया।
पवन के ऑफ़िस से लौटने पर मैंने उन्हें सरला भाभी की कहानी सुनाई और बोली, “महेन्द्र भैया तो आपके ही ऑफ़िस में होंगे न? आपने बताया नहीं कि उनका तबादला भी दिल्ली हो गया है?”
‘हाँ मेरे ऑफ़िस में ही हैं महेन्द्र भैया। तुम उनको विलेन के रूप में क्यों देख रही हो? भाभी से उन्हें संतान सुख नहीं मिला इसीलिये न वे सुनीता की ओर आकृष्ट हुए? यह तो उनका अधिकार है और वे भाभी के प्रति भी तो अपनी ज़िम्मेदारी निभा ही रहे हैं। तुम भी उनके बारे में सोच कर अपना दिमाग़ मत ख़राब करो। उन पति-पत्नी के बीच के मामले में तुम्हें पड़ने ज़रूरत नहीं है।” पवन रुखे स्वर में बोले।
पवन से मुझे ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी, मैं सोचने लगी, “हो तो तुम भी पुरुष ही। स्त्री मन की वेदना क्या समझोगे? यदि भाभी की जगह भैया अक्षम होते और भाभी किसी और के साथ सम्बन्ध रखतीं तब भी क्या तुम यही कहते कि भाभी ने ठीक किया? ये दोहरे मापदंड उफ़!”
मेरे मन की उद्विग्नता बढ़ती ही जा रही थी। मैं लॉन से उठ कर अंदर आ गई। कमली अब तक खाना बना चुकी थी। मैंने उसको दो-चार सफ़ाई के काम बता कर अपनी महिला कल्याण संघ की सचिव को फ़ोन लगाया। उससे बात करके मैं एक निष्कर्ष पर पहुँच चुकी थी।
फिर मैने सरला भाभी को फ़ोन कर के कहा, “भाभी, हम अपने महिला मंडल की ओर से ग़रीब और बेसहारा महिलाओं तथा लड़कियों के लिये सिलाई केन्द्र चलाते हैं, आप वहाँ सिलाई-बुनाई सिखाने का कार्य करेंगी? हम आपको अधिक वेतन तो नहीं दे पायेंगे, परन्तु आपको इतना पैसा अवश्य मिलेगा कि आपको किसी के सामने भीख माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। आप दीवाली के बाद से ही सिलाई केन्द्र आ सकती हैं।”
इस दीवाली मैंने, सरला भाभी के निराशा भरे जीवन में उम्मीद की रोशनी से झिलमिलाता दीपक जलाने का संकल्प कर लिया है और अब मेरी उद्विग्नता, मानसिक शांति में परिवर्तित हो चुकी है।
मूल चित्र : Canva
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