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आज एक ख़त, तहे दिल से, अपनी बाईसा के नाम लिख रही हूँ

इस सुंदर से पत्र के माध्यम से एक बाईसा दूसरी बाईसा से अपने दिल की बात साझा करना चाह रही हैं, अब उम्मीद है बस एक दुसरे को समझने की!

इस सुंदर से पत्र के माध्यम से एक बाईसा दूसरी बाईसा से अपने दिल की बात साझा करना चाह रही हैं, अब उम्मीद है बस एक दुसरे को समझने की!

‘बाईसा!’ अगर राजस्थान से हैं तो तुरंत समझ गए होंगे शायद कि ये किसे संबोधित करने के लिए उपयोग होता है और अगर ये शब्द पहली बार सुन रहे हैं तो वादा कर रही हूँ पूरा ब्लॉग पढ़ने के बाद पक्का समझ जायेंगे।

प्रिय बाईसा,

माता पिता से दूर रहने का दुःख क्या होता है, ये आपसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता। वो आंसू भरी आँखों से माँ का गाड़ी का कांच पकड़ लेना और पापा का यूँ सर पर हाथ फेरना, आपकी आँखों में भी तो आंसू ला देता होगा। घर, ससुराल, पति और बच्चों में खुद को कहीं खो देना और फिर अपना ध्यान खुद ही रख लेने की कला भी आपने सीख ली होगी ना?  आप बहुत अच्छे से जानती होंगी ससुराल में हर कदम पर खुद को साबित करने की वो दौड़, वो गोल रोटी बनाने से लगाकर वो बिलकुल सटीक पके चावल बनने की कसौटी। वो बुआ सास के सामने सर से पल्लू ना खिसक जाने का डर, तो वो ऊँची आवाज़ में बात ना करने या हंसने का नियम। आप जानती हैं सब। आपने बहुत अच्छे से निभाया है। हम आपका सम्मान करते हैं।

पर जब आप हमारे यानि आपके अपने घर आती हैं तो ये ज़रूरी तो नहीं हम भी इन सब कसौटियों पर खरे उतरें। क्या आपके द्वारा बनायी ये ‘नियमों की फ़ेहरिस्त’ हमें भी पढ़नी और समझनी होगी? क्या रिश्तों में मिठास होना गोल रोटी से ज़्यादा ज़रूरी है? क्या ये आपके लिए खुश होने वाली बात नहीं कि आपके घर आई ये लड़की अपने चुटकुलों से सबको हंसा सकती है, आपके परिवार से वो सब कह सकती है जो अपने माता पिता के घर में कहा करती थी?  वो तकिये के ऊपर सिसकियाँ लेने, जैसा आप करती हैं, की बजाय अपने मायके के परिवार में दुःख के समय खड़ी रहती है। वो अच्छी बहु के तमगे की जगह ‘वो जैसी है वैसी ही’ रहने का प्रयास कर रही है। वो घर, ससुराल, पति और बच्चे के साथ अपनी भी पहचान बना रही है। अपने ही घर में दो दिन ज़्यादा रुकने की अनुमति नहीं लेना चाहती वो। वो ‘परफेक्ट’ नहीं बनना चाहती। वो पल्लू पर शायद ध्यान ना दे पाए, पर घर में किसी के सम्मान को  ठेस ना पहुंचे, इस बात का हमेशा ध्यान रखती है।

मुझे पता है वो सब, जो कुछ आप मेरे लिए मेरी पीठ पीछे कह जाती हैं।  वो आपत्तियां जो आप मेरे मायके जाने पर जताती हैं। वो उखड़े मिजाज़ मेरे घर वालों के बहुत कुछ कह जाते हैं और बिना कुछ पूछे मेरे सवालों के जवाब दे जाते हैं। वो जो आप नाप तोल में अपने ससुराल और मायके को ले आती हैं और फिर हमें नीचा दिखाए चली जाती हैं।

सिर्फ ‘सोच’ को बदल लेने से ही काम हो जाएगा, ‘नियमों’ को बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, इतना विश्वास रखिये।

आपसे सिर्फ एक आखिरी सवाल करना चाहती हूँ, क्या आप सच में एक अच्छी बेटी हैं? अगर सच में हाँ, तो कोई भी बेटी अपना घर टूटते हुए देख कैसे खुश हो सकती है? है ना?

आपकी बाईसा।

लेखक का नोट : बाईसा, राजस्थान में किसी भी स्त्री को सम्मान से बुलाने के लिए काम में लेने वाला संबोधन है। अदब, शान और संस्कृति की झलक यहाँ हर घर में देखने को मिलती है। बड़ों का नाम ना लेने की पुरानी परंपरा का भी तोड़ था ‘बाईसा’ 

और आज भी घरों में अक्सर किसी को प्यार से, तो किसी को लिहाज से बाईसा बुला लेते हैं। 

यहाँ मैंने किन बाईसा को संबोधित किया है ,आप ये समझ ही गए होंगे। 

और जो पत्र लिख रहीं हैं वो भी एक बाईसा ही हैं। 

और पत्र लिखने का लक्ष्य केवल इतना सा है कि जिस दिन एक बाईसा दूसरी बाईसा को समझ जायेंगी, ये मनमुटाव का कोहरा अपने आप छंटने लगेगा। -श्वेता व्यास ( बाईसा ) 

मूल चित्र : Canva 

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About the Author

Shweta Vyas

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