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मैं भी मुसाफ़िर – सफ़र और मेरा रिश्ता कुछ ऐसा है जैसे रुई के फ़ाहे और बयार का

दूर तक फैले खेत, जंगल, हरियाली के मनोहारी दृश्य, जिन्हें कलाकार अपने चित्रों में उतारते हैं, आँखों के सामने दौड़ते तो मन रोमांच से भर जाता।

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दूर तक फैले खेत, जंगल, हरियाली के मनोहारी दृश्य, जिन्हें कलाकार अपने चित्रों में उतारते हैं, आँखों के सामने दौड़ते तो मन रोमांच से भर जाता।

सफ़र और मेरा रिश्ता कुछ ऐसा है जैसे रुई के फ़ाहे और बयार का। रुई चाहे कितनी भी झाड़ियों में अटक जाए, हवा का झोंका देर सवेर उसे उड़ा ले ही जाता है। मेरा हाल भी कुछ ऐसा ही है। और कैसे न हो? जबसे होश संभाला, अपने आप को एक सफ़र में पाया।

मेरे पिता भारतीय सेना में कार्यरत थे। हर दो-तीन साल में अपने आप को एक नए स्थान पर पाते। या तो नए स्टेशन पर पोस्टिंग या छुट्टियों में दादी-नानी के घर का सफ़र। नन्ही आँखों से दुनिया को हर बार एक नए रूप, नए परिवेश में देखना ही जैसे जीवन था। सामान बाँध रेल से एक नयी दुनिया में जाने का सफ़र मानो जादू के सामान था। साथ ही, स्थिर और चिरपरिचित दिनचर्या को एक झटके में बिसार देना, दोस्त, स्कूल, जगह सब पीछे छूट जाने का दुःख।

पाँच वर्ष की उम्र में तय किया सफर मुझे अब भी याद है। उत्तर भारत से सुदूर आसाम के दूर दराज़ कोने में बसा आर्मी स्टेशन। तीन दिन लम्बा रेल का सफ़र, एक बच्चे के लिए सुन्दर स्वप्न जैसा था। दूर तक फैले खेत, जंगल, हरियाली के मनोहारी दृश्य, जिन्हें कलाकार अपने चित्रों में उतारते हैं, आँखों के सामने दौड़ते तो मन रोमांच से भर जाता। बस यहीं से शुरू हुआ घुमक्कड़पन का सिलसिला।

बड़ी हुई और प्रबंधन की पढ़ाई के दौरान एक कंपनी के साथ प्रोजेक्ट किया। प्रोजेक्ट के सिलसिले में मुझे मध्य प्रदेश के इंदौर के पास धार ज़िले जाना था। अनजान शहर, अकेले पहली बार जा रही थी और मन थोड़ा घबरा रहा था। वहां किसी को नहीं जानती थी।

कंपनी ने एक बिज़नेस हॉटेल बुक करवा दिया और मैं रेल सफर तय कर होटल पहुँच गयी। धार दूर था, मैंने टैक्सी की जगह पब्लिक बस लेने का फैसला लिया। बस ने मुझे शहर के बाहर धार के पास एक बस स्टैंड पर उतारा। वहां से मेरा गंतव्य कुछ और दूर था। पहुँचने के लिए मेंढकनुमा टेम्पो ही जाते थे।

मैं भी एक टेम्पो में सवार हो गयी। मटमैले काले टेम्पो पर रंग बिरंगे फूलों के चित्र और लकड़ी की बेंच जैसी सीटें। घड़-घड़ की आवाज़ के साथ टेम्पो चल दिया। सड़क के दोनों ओर धूल भरे मैदान और ऊपर तेज धूप चिलचिला रही थी। मेरी नज़र मेरे बगल मैं बैठी एक वृद्ध महिला पर गयी। वो मुझे देख धीरे से मुस्कुरायी। शायद वहीं पास के किसी गाँव की थी। रंग बिरंगी लहंगे जैसी पोशाक पैरों में मोटी कड़े जैसी पाजेब। कपड़ा फटने के कारण कई जगह ऊपर से कपड़े के टुकड़े सिले हुए थे।

मैं कौतूहल से कभी लोगों को देख रही थी, तो कभी तेज गर्मी में बहता पसीना पोंछ रही थी कि तभी उस महिला ने मेरी तरफ देख कर कुछ इशारा किया। उसने मेरी हथेली पर कुछ सिक्के रखे और इशारे से पूछा कौन सा एक रुपए का सिक्का है और कौन सा दो। वो शायद गिनती नहीं जानती थी। टेम्पो वाले से पूछकर मैंने गिनकर उसके पैसे दिए और बाकी उस महिला को वापिस कर दिए। उसने हाथ जोड़कर शुक्रिया कहा और उतर गयी। मैं उसे दूर तक निहारती रही। सोचती रही कैसे होगी उसकी ज़िंदगी, क्या संघर्ष होंगे? कितने ऐसे लोग हैं दुनिया में जिन्हें मूल शिक्षा की सुविधाएं नहीं मिलतीं। मेरा मन ग्लानि और क्षोभ से भर गया।

बहरहाल प्रोजेक्ट पूरा कर कॉलेज वापिस आ गयी और पहली एकल यात्रा सफलतापूर्वक तय हुई। मगर मन बहुत भारी रहा उस महिला के बारे में सोच कर। साथ ही ये भी एहसास हुआ कि शिक्षा अनमोल है। शिक्षित होकर हमारा कर्त्तव्य है, हम अपने अलावा उन्हें भी ऊपर उठायें जिन्हें शिक्षा उपलब्ध नहीं।

कुछ दिन पहले विमेंस वेब ने अपने पाठकों से ‘मैं भी मुसाफिर-मेरा पहला एकल सफ़र’पर आधारित कुछ निजी अनुभव एक लेख के रूप में साझा करने को कहा था, अंजली शर्मा जी का ये लेख इस श्रृंख्ला से चुना हुआ लेख है।  

मूल चित्र : Unsplash

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