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समाज की रूढ़ियों के खिलाफ लकीरें खींचने की हिम्मत है आप में?

जीने के बाद भी समाज की रूढ़ियों को ललकारती और उसका सामना करने की हिम्मत दिखा कर अपनों के साथ खड़े रहने का साहस दिखाती है ये कहानी।

मरने के बाद भी समाज की रूढ़ियों को ललकारती और उसका सामना करने की हिम्मत दिखा कर अपनों के साथ खड़े रहने का साहस दिखाती है ये कहानी।

बात करीब आठ साल पुरानी है। सुबह के करीब दस बजे थे। मैं दफ्तर के काम में मशगूल थी। तभी मेरी दोस्त कामना का फोन आया, काम की व्यस्तता के चलते मैं बार-बार उसका फोन काट रही थी। लेकिन लगातार फोन बजने से आखिरकार मैंने फ़ोन उठा ही लिया।

“हलो नीरा, तुम्हारे अंकल अब नहीं रहे। हार्ट अटैक आया था। अस्पताल ले जाते वक्त ही उनकी सांसें थम गईं।”

मुझसे कुछ बोला ना गया। फोन काटकर बाजू में बैठे साथी से रुंधे गले से सिर्फ इतना ही कह पाई,
“मेरे अंकल नहीं रहे, घर जा रही हूँ। बॉस को बता देना।”

“मैं बता दूंगा। कुछ मेरे लायक काम हो तो बताना”, बोलकर साथी ने भरोसा दिया।

करीब पांच घन्टे का सफर करके मैं घर पहुंची। घर पर लोगों का जमावड़ा था। नाते-रिश्तेदार सब पहुंच चुके थे।बड़े भाई संजय का इंतज़ार हो रहा था। वो रास्ते में थे। आंटी का रो-रोकर बुरा हाल था। बेसुध, बदहवास सिर्फ अंकल को पुकारे जा रही थीं। आस-पास की रहने वाली महिलाएं उन्हें ढाँढस बंधा रही थीं। छोटा भाई अनिल लोगों के कहने के मुताबिक आखिरी रस्म की तैयारी में जुटा था।

तभी संजय भैया भी आ गए। खुद को मजबूत कर सबसे पहले वो आंटी से मिले और जी भर के उन्हें रोने दिया। खुद के आंसू तो जैसे ज़ब्त कर लिया था।

अंकल यानि घनश्याम जी एक छोटे से कस्बे में रहते थे। खेती-बाड़ी करते थे। ये इलाका काफी पिछड़ा था। ना स्कूल ना ही अस्पताल। मुख्यधारा से करीब कटा हुआ। अंकल ने अपनी पूरी ज़िंदगी लोगों के लिए समर्पित कर दी। बच्चों के लिए स्कूल खोलना, कविता-कहानी लिखना और उन्हें जागरूक करना एकमात्र उनका मकसद बन गया। उनके इस काम में हर कदम पर आंटी ने साथ दिया। वो भी बगैर किसी शिकायत के।

“संजय! संजय बेटा!” बाहर से आवाज़ आई। आवाज़ सुनकर संजय भइया बाहर निकले। तभी किसी ने कहा, “पंडित जी को बुला लें?”

‘पंडित! हमारे घर? पापा तो इसके सख्त खिलाफ थे’, मन ही मन संजय भइया ने सोचा। वो तुरन्त अपने बैग की तरफ भागे। उसमें से एक डायरी लेकर बाहर आए।

“अंकल, पापा ने पिछली बार जाते वक्त मुझे ये डायरी दी थी। कहा था, जब मैं ना रहूं तो ही इसे पढ़ना।”
सब लोग डायरी देख और संजय भइया की बात सुनकर नज़दीक आ गए। डायरी का पहला पन्ना खोलकर संजय भइया ने पढ़ना शुरू किया।

प्रिय संजय,

तुम तीनों हमेशा खुश रहो। अपनी माँ का ख़्याल रखना। अब एक बहुत ज़रूरी बात। अगर मैं इस दुनिया में ना रहूं तो मुझे अपने ही खेत के एक कोने में दफना देना। जिस मिट्टी में काम किया उसी में दफ़्न होना चाहता हूँ। इस काम के लिए किसी पंडित को नहीं बुलाना।

मेरे जाने के बाद मां को सफेद वस्त्र पहनने से रोकना। मेरी ज़िंदगी खत्म हुई है, उसकी नहीं। मुझे तो उसके माथे की बिंदिया और हाथों में खनकती चूड़ी बेहद पसंद है।

मेरे घर में आज तक कोई पंडित पूजा-पाठ या कर्मकांड करने नहीं आया है, इसलिए मेरे जाने के बाद भी नहीं आए, इसकी कोशिश करना। मेरी तेरहवीं में बच्चों, बुजुर्गों और ज़रूरतमन्दों के लिए जो हो सके वो करना।

मुझे पूरा यकीन है कि तुम दोनों भाई अपनी मां का ध्यान रखोगे लेकिन फिर भी मैं अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करके जा रहा हूँ। इस ज़मीन के टुकड़े को तुम तीनों के बीच बराबर हिस्सों में बांट दिया है। बैंक में जो भी पैसा जमा है वो तुम्हारी मां को देकर जा रहा हूँ। तुम दोनों बहुत सक्षम हो, अपना ख्याल रखना। हाँ, जब भी मेरी याद आए समाधि पर आ जाना। चाहे दुख हो या सुख तुम लोगों की बातें सुनकर सुकून मिलता रहेगा।

तुम्हारा
पापा

पत्र पढ़ते-पढ़ते संजय भइया के आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। वहीं कुछ लोगों में खुसुर-फुसुर भी होने लगी। हिन्दू होकर भी दफनाने की बात। ये तो हिन्दू धर्म का अपमान है। लोग संजय भइया को समझाने लगे। हिन्दू-मुस्लिम धर्म की दुहाइयाँ दी जाने लगीं।

संजय भइया वहां से उठकर आंटी के पास आए और छोटे भाई अनिल को भी बुलाया, “पापा की आखिरी इच्छा क्या थी, ये तो आप लोगों ने सुन ली। लोगों का क्या कहना है, ये भी हम जान चुके हैं। लेकिन फैसला हम तीनों को करना है।”

“बेटा, तुम तो पापा को अच्छे से जानते हो। उन्होंने कभी भी दुनिया की परवाह नहीं की। उसी का साथ दिया जो सही था।”

“अनिल तुम क्या कहते हो?” संजय भइया ने पूछा।

“भइया, मैं सिर्फ वो चाहता हूँ, जो पापा चाहते थे।”

संजय भइया वहां से मुड़ा और लोगों के बीच आकर अंकल के कहे मुताबिक सारी रस्में अदा करने की गुज़ारिश की। अंतिम संस्कार के बाद शाम को आंटी के साथ मैं उनकी समाधि के पास दीपक जलाने पहुंची।

“नीरा, तुम्हारे अंकल ने तो सारी रूढ़ियों को तोड़कर एक नई लकीर खींच दी है।”

“लकीर? अंकल ने तो ऐसी लकीरें खींची हैं कि आने वाली पीढ़ी भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाएगी। उसको सोचने में ना जाने कितने वर्ष लग जाएं।”

मूल चित्र : Canva

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