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हमारे मैनेजर ने एक ही बात बोली, 'पति-पत्नी का रिश्ता जन्मों-जन्मों का होता है, जब प्यार दिल से किया है तो यह रिश्ता भी दिल से निभाना दोनों।'
हमारे मैनेजर ने एक ही बात बोली, ‘पति-पत्नी का रिश्ता जन्मों-जन्मों का होता है, जब प्यार दिल से किया है तो यह रिश्ता भी दिल से निभाना दोनों।’
जी हां साथियों, इस कालचक्र के घेरे को कौन समझ पाया है भला? भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल, इनके घेरों से मनुष्य को ताउम्र गुजरना पड़ता है और काल के इस बहाव में हम उस परिस्थिति का सामना करते चले जाते हैं।
जीवन के इस काल में प्रेम रस का आनंद कौन नहीं लेना चाहता, प्रेम शब्द ही स्वयं इतना प्यारा है कि इसका भाव कभी भी किसी क्षण व्यक्ति विशेष में समाहित हो सकता है। निश्चल प्रेम का समावेश होने के कारण ही भूत, वर्तमान और भविष्य की चिंता न करते हुए इसके उतार-चढ़ाव में मानव बहता चला जाता है ।
ऐसा ही कुछ घटित हुआ था सोहन शर्माजी के साथ। कभी-कभी वे अपने करीबी दोस्त रमेश के पास अपना अतीत याद करते तो आंसू स्वयं ही छलक पड़ते। रमेश को भी बहुत बुरा लगता पर वह भी बेचारा क्या करे? इस काल के आगे चली है किसी की भी मर्जी?
अब तो शर्माजी की भी उम्र हो चली थी, तो बस छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना गुजारा करते, औलाद तो कोई थी नहीं जो परवाह करते वे किसी की। साथ ही रमेश की प्यारी सी बिटिया खुशी, जैसा नाम वैसा ही गुण। सदैव स्वयं हंसते रहती और दूसरों को भी खुशी देने की कोशिश करती। वह अपनी मां रमा के काम में भी हाथ बंटाती। रमा ऑफीस वालों के लिये भोजन बनाकर टिफिन पहुंचाने का काम करती, सुहानी को किया हुआ वादा जो पूरा करना था। फिर खुशी कभी-कभी स्कूल जाते समय टिफिन पहुंचाने में सहायता कर देती।
शर्माजी का अब एक ही सपना था कि बची-खुची जिंदगी में इन छोटे बच्चों का जीवन संवर जाए और खुशी को भी जीवन की असली खुशी मिल सके। बस इसी कोशिश में वे दिन-प्रतिदिन नवीन तकनीकी युग में उसको अपनाते हुए वैसी शिक्षा देने की कोशिश में तल्लीन रहते, क्योंकि वे सोचते कि यही कार्य अब मेरे लिये अच्छा है, और जीते जी न सही पर मरने के बाद मेरी आत्मा को सूकून तो मिलेगा कि मेरा जीवन किसी के काम आया। बीते पलों को याद कर वे सिसक ही पड़ते, इसलिये अब वे इसी शैक्षणिक कार्य में व्यस्त रहने लगे।
एक दिन शर्माजी अपने कमरे में यूं ही उदास बैठे मन ही मन कुछ सोच रहे थे, तो खुशी आ गयी।
“चाचाजी आपके लिये टिफिन लाई हूँ। माँ ने आज मक्के की रोटी और सरसों का साग बनाया था।” कुछ रूकते हुए बोली, “पसंद है न आपको?” पर ये क्या? खुशी ने देखा, चाचाजी तो फफक-फफककर रो पड़े। खुशी बोली, “अरे चाचाजी, ऐसे कब तक अपने गमों को दिल में छिपाकर रखेंगे, इसे साझा करने से मन हल्का हो जाता है, नहीं तो आपको अंदर ही अंदर और तकलीफ होकर स्वास्थ्य पर भी असर आएगा।”
इतने में रमेश ने आकर बताया कि रमा को अचानक ही चक्कर आए तो उसे नज़दीकी अस्पताल में उपचार के लिए भर्ती कराया गया, “तु जल्दी चल बेटी। अभी माँ को तेरी ज़रूरत है।” चाचाजी भी तुरंत बोले, “हां बेटी जल्दी जा, यह समय व काल बड़ा ही मूल्यवान होता है। इसे कभी मत खोना। जीते जी जो कर सकते हो दूसरों के लिए करो। कम से कम कोशिश ही सही।
फिर सभी अस्पताल पहुँच गए और डॉक्टर बोले, “अब रमा को ज्यादा मेहनत वाले काम नहीं करना चाहिए क्यों कि उसकी दिमाग की नसें बेहद कमजोर होने के कारण चक्कर आए और वो बेहोश हुई, अतः अब भोजन बनाकर टिफिन पहुंचाने का काम नहीं करना ही उसके स्वास्थ्य के लिए बेहतर विकल्प है।”
चाचाजी को अब बहुत ही दुःख होता है कि सुहानी को किए वादे के लिए मैं रमा को अपनी जान की आहुति नहीं देने दूंगा।
इसीलिए, यह कालचक्र है साहब, किस पर कहां और कब कहर ढाएगा या सुनहरा अवसर लाएगा यह आज तक कोई भी इस धरती पर नहीं जान पाया है।
रमेश और खुशी को अपने समीप बुलाकर कहने लगे, “बस अब यह निर्णय लेने का काल है कि रमा से कोई भी मेहनत वाले कार्य नहीं कराएं और भलाई इसी में है कि उसे जो शौक हो वह करने दिया जाए।”
“ए मेरे दोस्त पहले पत्नी खोई, इसी कालचक्र के बहाव में, अब मैं अपनी बहन को नहीं खोना चाहता हूं।”
फिर वह खुशी और ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों को बताते हैं, “आज जो कहानी मैं बताऊंगा, उससे तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण सीख मिलने वाली है। तो सुनो बच्चों मै बहुत बड़ी सीमेंट की फैक्ट्री में काम करता था और माँ साथ ही में रहती।
“फैक्ट्री के मैनेजर रघुवंशी जी जो बड़े सीधे-साधे और दिल के सच्चे और उदार प्रवृत्ति के थे, उन्होंने फैक्ट्री का शुभारंभ इसी उद्देश्य से किया था कि बेरोजगारों को काम मिल सके। धीरे-धीरे मेरी उनसे अच्छी-खासी दोस्ती हो गई। फिर मैंने देखा कि फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों को काम के साथ ही भोजन भी उपलब्ध हो, इसलिए उनकी बेटी सुहानी फैक्ट्री में मैस चलाती और अन्य साथियों की मदद से स्वादिष्ट भोजन बनाकर सभी को टिफिन रोजाना समय पर पहुंचाती और साथ ही मुझे भी। सुहानी दिखने में बेहद खूबसूरत थी।”
“मेरी सुहानी के साथ भी मेल-मुलाकात बढ़ने लगी और ये मेल-मुलाकात कब प्यार में तब्दील हो गई, पता ही नहीं चला। इसीलिए तो यह कालचक्र है, बेटा इसके बहाव में बहते चले जाना है हम सभी को।”
“जब मैनेजर को पता चला कि सुहानी और मैं एक-दूसरे को चाहते हैं और विवाह रचाना चाहते हैं तो उन्होंने सहमति तो जताई, पर एक ही बात बोली, ‘पति-पत्नी का रिश्ता जन्मों-जन्मों का होता है, जब प्यार दिल से किया है तो यह रिश्ता भी दिल से निभाना दोनों।’
“फिर मेरा और सुहानी का विवाह हो गया और हमारी जिंदगानी खुशगवार हो गई। सुहानी रोजाना की ही तरह स्वादिष्ट भोजन बनाकर सभी को तहेदिल से खिलाती।”
“फिर धीरे-धीरे फैक्ट्री उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने लगी और मैं सुहानी के स्वादिष्ट भोजन का आदि हो गया। ऐसे ही देखते-देखते दो साल बीत गए और अचानक सुहानी को पूरे शरीर पर चत्ते हो गए। बेचारी खुजाल के कारण इतनी परेशान हो गई कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था और उसको ऐसी हालत में भी मजदूरों के खाने की चिंता सता रही थी। तब रमा ने आगे बढ़कर उसका काम संभाला और तब से अन्नपूर्णा देवी प्रसन्न होकर सबको खाना खिला रही है।”
“किसी तरह रमा के कहने पर सुहानी अस्पताल चलने के लिए राज़ी हुई। चिकित्सक के बताए अनुसार सुहानी को ऐसा चर्मरोग हो गया था जो कभी ठीक नहीं हो सकता था।”
“दिन पर दिन सुहानी की हालत और बिगड़ने लगी और मैं उसकी तकलीफ देख ही नहीं पाता था। देखकर रोना आता, पर कुछ भी सहायता प्रदान करने में असमर्थ था। मैं उसे बेहद प्यार करता था, करता हूं और करता रहूंगा और मैनेजर साहब की बात मेरे दिमाग तक पहूंच गई थी।”
“फिर बच्चों मैं तुम्हें बताता हूं, जिसे जीवन में दिल से प्यार करते हैं और उसे खुश देखना चाहते हैं तो उसके लिए त्याग भी करना पड़ता है, जो मैंने किया। एक दिन अचानक आंखों में तकलीफ होने का नाटक कर, ‘मैं डॉक्टर के पास जा रहा हूं’, ऐसा सुहानी को बोला और इस बहाने चश्मा पहनकर आया। सुहानी को बताया, ‘मुझे बहुत कम दिखाई दे रहा है’ ताकि उसे ऐसा न लगे कि मैं बहाने कर रहा हूं।”
“सुहानी बेहद खूबसूरत थी और उसे यह पता नहीं चलने देना था मुझे कि उसकी बीमारी ठीक नहीं हो सकती। वह यह नहीं समझे कि वह कुरूप होती जा रही है और मैं उससे बेपनाह मोहब्बत करता था, इसलिए मैंने भी ऐसा नाटक किया कि इस तकलीफ में अभी भी तुम अकेली नहीं हो, मैं साथ हूं तुम्हारे सदा।”
“अब वह पहले से थोड़ा खुश रहने लगी तो मैंने यह परिवर्तन देखकर अंधे बने रहने का नाटक किया। जीवन में बच्चों ऐसे ही मोड़ आते हैं तब दूसरों को खुशी देने का प्रयास तो करते हैं, पर अपने साथी के लिए त्याग और समर्पण तो कर ही सकते हैं न?”
बच्चे भी बड़े ध्यान से सुन रहे थे तल्लीनता के साथ। कुछ रूककर चाचा जी ने कहा, “अब वह सही समझ रही थी कि मैं अंधा हो गया और ऐसे ही सांझ ढले सुहानी इस दुनिया से चली गई, दूसरी दुनिया में। इस अहसास के अंतिम क्षणों में उसे यह तसल्ली थी कि मेरा साथी मेरे साथ है।”
“उसके बाद रमेश आया और तब उसे पता चला कि मैं सुहानी के लिए अंधे बने रहने का नाटक कर रहा था।”
“बच्चों इसलिए कालचक्र के इस बहाव में जीते जी समयानुसार सबकी इच्छा पूरी करने की कोशिश करो, किसी को कटाक्ष मत करो और भलाई के लिए तैयार रहो।”
“तब से फैक्ट्री का काम छोड़ दिया क्यों कि मुझे पता चला सीमेंट की फैक्ट्री में काम करने के समय कुछ किटाणुओं के कारण सुहानी को चर्मरोग हो गया था। अतः मैं ट्यूशन पढ़ाने के साथ समाज सेवा करने की कोशिश कर रहा हूं ताकि मेरे मन को शांति मिले साथ ही सुहानी की आत्मा को भी।”
“मेरे साथ जो हुआ वो हुआ, अब रमेश मैं चाहता हूँ कि रमा के साथ ऐसा न हो, इस काल में सही निर्णय लेने की आवश्यकता है जो तुम्हारे और खुशी के हित में है।”
कालचक्र या समय का पहिया भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल के चक्रव्यूह में हर मानव जीवन में घूमता रहता है और इस बहाव को कोई भी व्यक्ति आज तक नहीं रोक पाया।
फिर मेरे प्रिय पाठकों अपनी आख्या के माध्यम से बताइएगा जरूर कि यह कहानी कैसी लगी ? मुझे इंतज़ार रहेगा और साथ ही आप मेरे अन्य ब्लॉग पढ़ने के लिए भी आमंत्रित हैं ।
मूल चित्र : Unsplash
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