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क्यूं बेवजह, बेहिसाब इल्ज़ाम सहती हो? नारी क्यूं तुम ऐसा करती हो?

अपना सब कुछ छोड़ने के बावजूद उसे दो मीठे बोल भी नहीं मिल पाते, अपने सपनों, अपनी सब इच्छाओं को खुशी-खुशी त्यागने के लिये वह तैयार हो जाती है। आखिर क्यूँ?

अपना सब कुछ छोड़ने के बावजूद उसे दो मीठे बोल भी नहीं मिल पाते, अपने सपनों, अपनी सब इच्छाओं को खुशी-खुशी त्यागने के लिये वह तैयार हो जाती है। आखिर क्यूँ?

लोग बोलते हैं नारी को समझना मुश्किल है। उनके स्वभाव को, उनकी सोच को कोई नहीं समझ सकता। लेकिन हकीकत तो ये है कि नारी का स्वभाव और उनके मन जैसा सरल कुछ है ही नहीं और उनकी इस सरलता को कोई समझना ही नहीं चाहता। यहां तक कि एक औरत भी नहीं। कई मर्तबा औरत ही औरत की दुश्ममन बन जाती है।

बेटियों की परवरिश आखिर क्यूं इस ढंग से की जाती है कि बेटी ऐसा मत करो, वैसा मत करो, तुम धीरे चलो, तुम धीरे हंसो, तुम जोर से मत बोलो, तुम्हें पराये घर जाना है, तुम अन्नाय सहो, तुम हर बार झुको।

आखिर क्यूं?

क्या उन्हें खुलकर हंसने का भी अधिकार नहीं है और इसी परवरिश के साथ वो बड़ी हो कर दूसरे घर चली जाती हैं।

नये सफर के साथ नयी कहानी शुरू हो जाती है। हालात और परिस्थितियां चाहे जैसे भी हों, एक लड़की बहु, पत्नि और मां बन कर सब कुछ सहने लग जाती है। समझौते करने लग जाती है। झुकने लगती है। गलती ना होने पर भी अपने रिश्तों को निभाने के लिये गलती मान लेती है।

अपना सब कुछ छोड़ने के बावजूद उसे दो मीठे बोल भी नहीं मिल पाते। अपने सपनों, अरमानों, अपनी सब इच्छाओं को खुशी-खुशी त्यागने के लिये वह तैयार हो जाती है। इसके बावजूद भी उसे उसका ना वजूद मिलता है और ना ही पहचान। फिर आखिर वो ऐसा क्यूं करती है? ये प्रश्न बार-बार मेरे जहन में उठते रहते हैं।

आखिर क्यूं?

क्या यही नारी का स्वभाव है?

इन्हीं प्रश्नों के आधार पर एक कविता की रचना की है –

नारी आखिर क्यूं तुम ऐसा करती हो?

क्यूं अपने दिल को, बार-बार जलाती हो,

क्यूं अपने मन को, तिल-तिल मारती हो।

चाहे कितना भी बदल लो तुम खुद को,

किसी की सोच को नहीं बदल पाओगी।

तुम बार-बार लगातार झुकती हो,

रिश्ते को अपने जी जान से निभाती हो।

आंखों में भर-भर कर आंसुओं को,

तानों के कड़वे घूंट पी जाती हो।

तन-मन-धन सब कुछ न्यौछावर करती हो,

भाव समर्पण का जिसके प्रति रखती हो।

प्यार के मीठे दो पलों को तरसती हो,

\"\\"\\"\"ये कैसी जिंदगी आखिर तुम जीती हो?

अरमानों और सपनों को अपने कुचलती हो,

अपनी हर इच्छाओं को क्यूं त्यागती हो।

खुशियों की अपने परवाह नहीं करती हो,

फिर भी शिकायतों की शीर्षक बनी रहती हो।

सबको संभालकर खुद क्यूं नहीं संभलती हो,

स्वयं के आत्म-सम्मान को दांव पे लगाती हो।

सही होकर भी स्वयं को ही कोसती हो,

क्यूं बेवजह, बेहिसाब इल्जामों को सहती हो?

नारी आखिर क्यूं तुम ऐसा करती हो?

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मूल चित्र : Unsplash

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