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मंदिर में देवी और बाहर दरिंदों का शिकार? बंद करो, अब बहुत हो गया!

ज़रा सोचिये! क्यूँ अपनी आबरू खोने के बाद भी वो करती इंसाफ़ का इंतज़ार है? क्या गलती थी उसकी, जो वो चिता पर और खुली हवा में घूम रहे उसके गुनहगार हैं?

ज़रा सोचिये! क्यूँ अपनी आबरू खोने के बाद भी वो करती इंसाफ़ का इंतज़ार है? क्या गलती थी उसकी, जो वो चिता पर और खुली हवा में घूम रहे उसके गुनहगार हैं?

क्यूँ ये हाहाकार है? क्यूँ चारों तरफ़ मचा चीत्कार है?
क्यूँ अपनी आबरू खोने के बाद भी वो करती इंसाफ़ का इंतज़ार है?

क्यूँ डर है आँखों में उसकी? क्यूँ डरा हुआ और सदमे में उसका परिवार है?
क्या गलती थी उसकी, जो वो चिता पर और खुली हवा में घूम रहे उसके गुनहगार हैं?

बंद करो, अब बहुत हो गया,
बंद करो, अब बहुत हो गया।

ना समझो उसे भोग की वस्तु,
वो तो किसी की लाड़ली बेटी, बहू, पत्नी और परिवार के जीने का आधार है।

क्यूँ ये हाहाकार है?
क्यूँ चारों तरफ़ मचा चीत्कार है?

ये कैसी विडंबना है? ये कैसा सामाजिक सरोकार है?
एक तरफ पूजी जाती है जो कन्या देवी के रूप में नौ दिन,
क्यूँ बनती वही उन वैश्यी दरिंदों का शिकार है?

कहाँ जा रहे है हम? क्या ये ही हमारे संस्कार है?
कोई घर से निकलने में डर रही है, तो कोई घर में ही डर के साए में जीने को लाचार है।

क्यूँ ये हाहाकार है?
क्यूँ चारों तरफ़ मचा चीत्कार है?

हर घाव शरीर का, उसकी आत्मा को छलनी कर जाता है।
‘जीना चाहती हूँ मैं’, कहकर दिल का हर दर्द उसकी आँखों में उतर आता है।

बंद करो, अब बहुत हो गया
बंद करो, अब बहुत हो गया।

ना समझो उसे भोग की वस्तु,
वो तो किसी की लाड़ली बेटी, बहू, पत्नी और परिवार के जीने का आधार है।

मूल चित्र : Canva

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Deepika Mishra

I am a mom of two lovely kids, Content creator and Poetry lover. read more...

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