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मंदिर, मस्जिद या राज्य की ज़मीन के लिए रातों रात कानून बना सकते हैं, लेकिन बेटी की अस्मत को यूँ ज़ार-ज़ार करने वाले हाथों को काट नहीं सकते!
बहुत रोका अपने आप को कि इस हादसे पर न लिखूं क्योंकि अगर लिखो तो हर हादसे पर लिखो और फिर हर दिन इतनी फुर्सत कहाँ हम लोगों को, रोटी-कपड़े-मकान की दौड़ में दौड़ रहे हैं। आम जनता चाहे तो क्रांति ले आये, पर क्रांति लाएं या ज़िन्दगी जियें – तो चलो छोड़ो!
ख्याल भी बस यूँ ही, कि ऐसा क्या है कि इंसानियत इस तरह से लुप्त हो रही है…
ये कौन अथवा क्या है, जिसकी वजह से औरतों और मर्दों में मात्र भोगी और वस्तु का सा संबंध रह जा रहा है। ये कौन से परिवार हैं, जो अपने घर में पलने वाले लड़कों को जानवर की भांति रात के अँधेरे में कुत्तों की तरह मांस के शिकार पर निकलने की शिक्षा देते हैं?
हम समाज का हिस्सा हैं तो कहाँ ज़िम्मेदार हैं?
क्या औरत पहले एक इंसान होने के मापदंड पर नहीं उतरती?
क्या औरत के ऊपर होने वाले इस जघन्य अपराध पर सालों से हम चुप नहीं बैठे?
क्यों?
क्योंकि पितृसत्त्तात्मक सोच हमे खुल कर ये अवाज़ उठाने नहीं देती।
आदमी यानि नर, कभी पूर्णतया गलत नहीं हो सकता, ऐसी सोच कूट कूट क्र भरी हुई है।
समाज दो-चार दिन शोर मचाएगा, फिर औरत के जाने-आने का वक़्त , उसके कपड़ों की लम्बाई और उसके हंसने, बोलने, उठने, बैठने और सांस लेने के तरीके पर ज्ञान देगा!
औरत हो कर सशक्त हूँ, सशक्त करना चाहती हूँ, ये महसूस भले करूँ, किंतु हर बार मजबूर हो जाती हूं…
क्या कर लोगे?
लिखो, चिल्लाओ, मोमबत्ती जलाओ, टी.वी पर बहस करो…
चलो पकड़ लिया उन चार को। पर अब?
अब केस चलेगा…
पहले तो शायद हम में से ही कोई उनकी तरफ से भी लड़ेगा, ये कहते हुए कि रात के अंधेरे में दिमाग पर पट्टी बंध गयी…
या कि उम्र कम थी, लड़कों को समझ नहीं आया कि क्या कर रहे हैं।
या फिर ये कि देर रात मांस का लोथड़ा कुत्तों के सामने होगा तो नोचेंगे ही!
तैयार रहिये, कुछ भी सुनने को मिल सकता है… और फिर अभी हाल ही में मिनिस्टर साहब ने तो स्टाम्प लगा दिया कि लड़कियां रेप खुद आमंत्रित करती है।
दबी ज़बान में कोई पढ़ा लिखा यह भी बोल दे शायद कि लड़कियों को देर रात (5 बजे के बाद) बाहर रहने की ज़रूरत क्या है? भले घर की लड़कियां यूँ नहीं घूमतीं।
ऐसे बहुत से वाक्य, जो सालों से हम बोलते आये हैं, जब-जब ऐसा हादसा हुआ।
जी हां, पर शर्त है कि हादसा इतना जघन्य हो कि मानवता पर से विश्वास उठ जाए, वरना अगर रेप पीड़िता ज़िंदा बच गयी, फिर तो सब ठीक है…
क्यूँकि उसके चरित्र पर प्रश्न करना आसान है!
और बलात्कार ही तो हुआ, जान थोड़े ही न ली! देखो, ज़रा ध्यान से कहीं लड़की ही तो छोटे कपड़े नहीं पहने थी? या हंस कर सबसे बात करती थी! ऐसी लड़की के लिए कौन बोले!
कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए, नाबालिग का टैग लगा, वो बाहर घूम रहा है। वो जिसने बलात्कार के बाद अंतड़ियाँ निकाल लीं, लेकिन कानून में उसे नाबालिग मान लेने का प्रावधान है।
हम मंदिर, मस्जिद या राज्य की ज़मीन के लिए रातों रात कानून बना सकते हैं। हम ५६ इंच का सीना लेकर दुश्मन के घर में घुस कर मार सकते हैं, लेकिन देश की बेटी के खिलाफ उठने वाली नज़र और उसकी अस्मत को यूँ ज़ार-ज़ार करने वाले हाथों को काट नहीं सकते!
सत्ता पक्ष में जो कानून को बदलने का मुद्दा रखते हैं – उनकी तो बात ही अलग है। उन्हें तो मूर्ति से ले कर मंदिर और तेरी कुर्सी-मेरी कुर्सी से फुर्सत नहीं।
कृपया किसी पार्टी के लिए मुझे सॉफ्ट कॉर्नर रखने का दोषी न मानिए, क्योकि साठ साल या सात साल, नारी के खिलाफ होने वाले जुर्म को खुले आम और जल्द से जल्द सज़ा देने की हिम्मत कोई न दिख पाया।
और हम और आप बस गुस्सा दिखा सकते हैं। ये आर्टिकल सोशल मीडिया पर लिखना और शायद अगर ऑफिस से कोई आधे दिन की छुट्टी देदे तो हम मोमबत्ती लेकर निकल पड़ेंगे और इंडिया गेट पर इकठ्ठा हो जायेंगे।
और फिर, अगले दिन लड़कियों को हिदायत दे कर, अपने रस्ते।
यह हमारा समाज है और यही हम हैं। आईना सामने हो तो नज़र नहीं मिला सकते। इतनी घिनोनी परछाई है हमारी।
अपराधी पर कोई केस नही…
अपराधी की कोई सुनवाई नहीं…
अपराधी को कोई दूसरा मौका नहीं…
बीच सड़क पर गोली मारना, इससे कम की सज़ा मुझे मंज़ूर नहीं!
अब न केस न सुनवाई – अब बस डायरेक्ट एन्काउंटर…
पर ऐसा होगा नहीं!
मूल चित्र : Canva
Founder KalaManthan "An Art Platform" An Equalist. Proud woman. Love to dwell upon the layers within one statement. Poetess || Writer || Entrepreneur read more...
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