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क्या है ये महिला चालिसा – शिकायतों का पिटारा या खुशियों की पेटी?

उम्र की संख्या तो बढ़ती जा रही है, लेकिन उसका जोश भी दुगनी गति से बढ़ रहा है और अब वह शिकायतों का पिटारा नहीं, निराकरण करने वाली महिला बनना चाहती है।

उम्र की संख्या तो बढ़ती जा रही है, लेकिन उसका जोश भी दुगनी गति से बढ़ रहा है और अब वह शिकायतों का पिटारा नहीं, निराकरण करने वाली महिला बनना चाहती है।

अरे! मैं किसी भगवान की चालीसा की बात नहीं कर रही हूं, और ना ही महिलाओं को देवी का रूप बता कर कोई चालीसा पाठ करने वाली हूं। महिला चालीसा गाथा है उन महिलाओं की, जो चालीस साल की या तो हो गई हैं या होने वाली हैं।

वैसे तो दिया बहुत व्यस्त रहती थी। एक दोपहर उसने अपनी बिखरी अलमारी और संदूक पेटी साफ़ करने का समय निकाल ही लिया। फिर क्या था, उसने जल्दी-जल्दी खाना बनाकर रख दिया और अलमारी खोलकर बैठ गई। तभी अलमारी में रखी एल्बम पर नज़र पड़ी। उसे देखने का मोह छोड़ नहीं पाई।

मूड बिगाड़ने के लिए पहली फोटो ही काफी थी। खुले काले लम्बे घने बाल और गॉगल! हाय! कितनी सुन्दर थी पहले। वो सोचने लगी कि इंसान कभी खुश नहीं हो सकता। जो उसे प्राप्त होता है वह हमेशा कम क्यों होता है? उस समय भी वह अपने आपको यूँ ही कोसती थी कि यह कमी है वह कमी है। पूर्णता कभी नहीं मिलती। आज तो उस पुरानी फोटो को देखकर ही वह निराशा से घिर गयी।

वहीं पॉलिथीन में साड़ियां रखी थीं, जिनका फॉल-पिको तक नहीं कराया था। उसे आश्चर्य हुआ कैसे इतना बदल गई है वह? पहले तो किसी साड़ी को देखने के बाद ही डिसाइड कर लेती थी कि कौन सा ब्लाउज जचेगा, किस डिज़ाइन में सिलेगा। अलमारी के नीचे वाले हिस्से में कई सूट ऐसे थे जो सालों पहले पहने थे।

दिया ने गौर किया कि वह लगभग नाईट गाउन में ही रहती है। ऐसा महसूस हुआ कि वह एक खूँटी पर टँगी तस्वीर जैसी हो गई है, कोई नयापन नहीं। टाइम मिलने पर भी उसे लगता था कि वो बंधी हुई है, किसी अदृश्य जंजीर से। अकेले कहीं जा नहीं सकती।

दिमाग पर ज़ोर डाला तो याद आया कि बच्चे स्कूल से आते होंगे। वह बस उसी पल में रूक गई है, चिपक गई है अपने अलिखित कर्तव्यों से। जबकि अब बच्चे स्कूल से कोचिंग फिर ग्रुप स्टडीज़ में व्यस्त हो गए हैं। मगर वह है कि वहीं खड़ी है, जहां पर उसका बेटा क्लास वन में था। उस समय उसे लगता था कि मैं नहीं दिखूंगी तो यह डर ना जाए। इसलिए दरवाज़े पर ही खड़ी रहती थी, पर पता नहीं क्यों अब भी खड़ी रहती है। जब तक आ ना जाए। मगर बच्चों के समय और ज़रूरतें दोनों बदल गई हैं।

याद आया आज बच्चे एग्ज़ीबिशन जाने की जिद कर रहे हैं, मगर उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह वहां क्या करेगी? एक ज़माने में सारे झूलों को ट्राई करने वाली दिया आजकल झूलों को देखकर भी डर जाती थी। वह कब इतनी कमज़ोर हुई पता ही नहीं चला।

चौबीस साल की उम्र में वह पहली बार मां बनी थी और देखते ही देखते कब इतने सारे साल गुज़र गए और आज वह खड़ी है चालीस साल की दहलीज़ पर। आज उसकी आँखे, उसका चेहरा, उसके बाल गवाही दे रहे हैं कि वह पहले जैसी नहीं रही। वह और निराश हो गई। वो चालीस की हो गई, लगा अभी तो बहुत कुछ करना बाकी था। दिया का सफर जाने कितने रास्तों पगडंडियों से होकर गुज़रा। वह खुद को संभाल ही नहीं पाई।

अपने झड़ते बाल, बेजान त्वचा को निहारती, वह अकेली अलमारी के सामने बैठी है। पर पुरानी दिया कितनी दबंग, खुशहाल हुआ करती थी। खुशियां उसके कदम चूमा करती थी। आज सब कुछ होने के बाद भी पता नहीं कौन सी निराशा और सन्नाटा पसरा रहता है।

दिया भी पढ़ी-लिखी थी। जानती थी कि इस उम्र में नारी की सृजन शक्ति के खत्म होने का वक्त शुरु होने वाला है। स्त्रोत, स्त्राव के सूखने के साथ नारी की कमनीयता भी सूखने लगती है। ये सुख है कि पहले जैसी तकलीफें तो नहीं होंगी, मगर उसकी जगह इतनी बड़ी उदासी और निराशा उसे घेर लेगी उसे पता नहीं था। आज वो इस दर्द को समझ पाई कि क्यों किसी औरत को अपनी उम्र बताना पसंद नहीं है। जिस खूबसूरती को वो वरीयता देती है, जिस नारी सुलभ कोमलता से वह पहचानी जाती है, इस दौर में वह सब भी साथ छोड़ने लगती है।

मगर अब दिया ने फैसला लिया। ज़िंदगी बहुत बड़ी नेमत होती है ईश्वर की। इसे इस तरह से बर्बाद नहीं किया जा सकता। कोई ना कोई कदम तो उठाना ही पड़ेगा। खुद की तकदीर खुद को संभालनी होती है, कोई और नहीं आता।

हाँ! उसके पति को काम है इस वजह से वह व्यस्त है। हाँ! उसके बच्चों को तरक्की करनी है इस वजह से वह भी व्यस्त हैं। इस बात के लिए वह किसी को दोष नहीं दे सकती। उसे भी इस व्यस्तता के आलम में खुद के लिए जीना होगा। हर उम्र की अपनी खूबसूरती होती है। अपनी परिपक्वता होती है।

एक वही नहीं जो चालीस साल की हुई है। यह जीवन चक्र है और हर किसी को ये सभी पड़ाव पार करने हैं। किसी ने शानदार तरीके से अपनी पारी खेली, तो कोई निभा ही नहीं पाया। हर किसी को खुद को स्वीकार करना चाहिए । दिया ने सोच लिया कि वह पूरी प्लानिंग के साथ अपनी सेकंड इनिंग शुरू करेगी।

दिनभर एक बच्चा भी उतने खिलौनों में व्यस्त नहीं रहता, जितनी कि एक ग्रहणी या औरत अपने फर्नीचर, शो पीस को ही साफ़ करने, पोछने, जमाकर रखने में व्यस्त रहती है। चार कमरों में चार धाम की यात्रा कर लेती है। उससे सोचा, नहीं! अब वह इस दायरे को बढ़ाएगी। अपने लिए ज़मीन तलाशेगी। इस उदासी वाली हकीकत से परे एक ऐसी दुनिया बनाएगी जहां उसे कोई भी उदासी नहीं घेरेगी।

वह उठी, मुंह धोकर हल्की नींबू कलर की साड़ी पहनी। बालों का जुड़ा बनाया। छोटी सी बिंदी और गुलाबी लिपस्टिक लगाई। उसने खुद को निहारा। उसे लगा वह इतनी भी नहीं बदली थी। बस भूल गई थी वह अपने आपको। ऐसे जगी जैसे कोई सोते से जगता है।

उसने ऑटो लिया, उस में बैठकर पहुंच गई संगीत अकादमी, जहां पर उसने फॉर्म भरा और अपने अधूरे कोर्स को पूरा करने की पहल की। फिर उसने ज़ुंबा क्लास जॉइन की। वहाँ तो हमउम्र की कई महिलाओं को देख उसका उत्साह दुगना हो गया।

जब घर पहुंची तो बच्चों और पति ने उसमें बदलाव देखा। उनको आदत थी कि मां हमारे आगे पीछे होगी। मगर दिया ने एसा कुछ नहीं किया। खुद को थोड़ा संभाला, फिर फ्रेश होकर कहा,”चलो भाई एग्ज़ीबिशन नहीं जाना?” सब उछल पड़े। वहां दिया ने फैमिली के साथ खूब मज़े किये। कुछ दिनों बाद बच्चों को भी इसकी आदत हो गई, पति तो इस बदलाव के लिए इंतजार ही कर रहे थे। दीया को खुश देख उनको बहुत सुकून मिला। उसकी संगीत शिक्षा भी चल रही थी।

आज दिया इकतालीस साल की है। उम्र की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन उसका जोश दुगनी गति से बढ़ रहा है। अब वह शिकायतों का पिटारा नहीं निराकरण करने वाली महिला बनना चाहती है।

इति।

महिला चालिसा अध्याय। सप्ताह में एक बार इसे पढ़ने से इसका फल अवश्य मिलता है।

आप सभी ने उम्र के साथ आये बदलावों को कैसे स्वीकार किया? घटते उर्जा स्तर से आयी निराशा से कैसे बचे? सुझाव साझा करें ताकि सभी को मदद मिल सके।

मूल चित्र : Canva

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